‘बुजदिल’ सरकार को कोई खबर नहीं

Sunday, Feb 09, 2020 - 01:17 AM (IST)

एक फरवरी को 2020-21 का बजट पेश किया गया। इसने सुर्खियां बटोरीं तथा 2 फरवरी के समाचार पत्रों के सम्पादकीय का विषय बन गया। दूसरे दिन ही बजट की खबरें समाचार पत्रों तथा टी.वी. चैनलों से अदृश्य हो गईं। यह एक ऐसी फिल्म की तरह था जो पहले दिन ही बाक्स आफिस पर फ्लाप हो जाती है। भाजपा, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को इसके लिए स्वयं को दोष देना चाहिए। ये लोग अर्थशास्त्रियों, कारोबारियों तथा मुख्य आर्थिक सलाहकार (जिन्होंने आर्थिक सर्वे में कुछ ठोस परामर्श दिए थे) पर दोष नहीं मढ़ सकते, जिन्होंने बजट से पूर्व परामर्शों के लिए प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात की थी। यहां पर कई विचार थे जिन पर मार्कीट में चर्चा थी। मैंने 26 जनवरी को अपने कालम में 10 चीजों की सूची बताई थी। जिस पर बजट में वित्त मंत्री को अमल करना चाहिए था। यदि वित्त मंत्री ने मुख्य आर्थिक सलाहकार, अर्थशास्त्रियों तथा कारोबारियों के सुझाव पर ध्यान नहीं दिया तो इसके निम्नलिखित कारण हैं। 

सरकार का इंकार 
सरकार ने स्वीकार नहीं किया कि नोटबंदी और दोषपूर्ण जी.एस.टी. ऐसी गलतियां थीं जिन्होंने एम.एस.एम.ई. की हत्या की तथा नौकरियों को बर्बाद किया। सरकार ने यह नहीं माना कि इस मंदी का कारण निर्यात में गिरावट, वित्तीय क्षेत्र में अस्थिरता, अपर्याप्त उधार आपूर्ति, कम स्तर की घरेलू बचतें, उपभोग में कमी, खनन तथा विनिर्माण का गिरना तथा डर तथा असुरक्षा का माहौल है। दुर्भाग्यवश वित्त मंत्री ने अपने भाषण में अर्थव्यवस्था के इन नकारात्मक तथ्यों का उल्लेख तक नहीं किया। 

अर्थव्यवस्था की हालत का सरकारी मूल्यांकन नाउम्मीद भरा तथा गलत 
सरकार का मानना है कि अर्थव्यवस्था की सुस्ती का कारण चक्रीय फैक्टर है तथा यह तभी सुधरेगी यदि पैसे के लिए ज्यादा याचना की जाएगी। चल रहे कार्यक्रमों में और पैसा डालना होगा तथा नए कार्यक्रमों की घोषणा करनी होगी। यदि मंदी का कारण चक्रीय से ज्यादा ढांचागत है जैसा कि ज्यादातर अर्थशास्त्री मानते हैं, तब अर्थव्यवस्था को पुनर्जागृत करने के लिए सरकार ने विकल्पों को वास्तव में रोक दिया। 

सरकार समाधान पाने में नाकाम
सरकार पुराने दर्शनशास्त्र, आयात प्रतिस्थापन, एक सशक्त रुपया इत्यादि में भरोसा नहीं करती। यह बाहरी व्यापार के बहुआयामी लाभों में भी भरोसा नहीं करती। इसने लगभग निर्यात को बढ़ावा देने के रास्तों को खोजने के प्रयास बंद कर दिए हैं। इसने तो आयात टैरिफ बढ़ाने के पतित विचार को आङ्क्षलगन कर रखा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार रुपए को ज्यादा यथार्थवादी स्तर खोजने के लिए असंतुष्ट हैं। सरकार समाधान पाने में नाकाम है। 

कर संग्रह कर आतंक बनकर रह गया है
सरकार ने कई आर्थिक कानूनों का अपराधीकरण कर रखा है। इसने कर एकत्रित करने वाले विभाग के कमतर अधिकारियों तथा जांच एजैंसियों को असाधारण शक्तियां दे रखी हैं। कर संग्रह कर आतंक बनकर रह गया है (वी.जी. सिद्धार्था को याद करें)। कर को अदा करने की प्रक्रिया जिसकी मांग थी, यह प्रक्रिया अंत में अपने आप परेशानी बनकर रह गई। वित्त मंत्री द्वारा वायदा किए गए करदाताओं के अधिकारों के चार्टर ने चक्रीय प्रतिक्रिया को उत्तेजित किया है। सरकार साधारण तौर पर अथारिटीज तथा एजैंसियों को दी गई पूर्ण स्वतंत्रता को वापस क्यों नहीं ले लेती? 

सरकार अपने आप में अयोग्य प्रबंधक दिखाई दी 
नोटबंदी से जी.एस.टी. तक, स्वच्छ भारत मिशन से घरों के बिजलीकरण तक, उज्जवला योजना से उदय तक, प्रत्येक कार्यक्रम के पास गम्भीर कमियां हैं। दुर्भाग्यवश सरकार ईको चैम्बर में रहती है तथा मात्र चापलूसी प्रतिक्रियाओं को सुनती है। इस कारण विशालकाय पैसा इन कार्यक्रमों पर खर्च कर चुकी है। परिणाम असंतुष्ट थे। प्रशासनिक मशीनरी उचित परिणाम प्राप्त करने के लिए क्षमता की कमी रखती है। इसलिए यह कोई अचम्भे वाली बात नहीं कि वित्त मंत्री ने बिना चमक का बजट पेश किया। जबकि नाममात्र सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) वृद्धि 10 प्रतिशत तक बढ़ेगी, वहीं कुल कर राजस्व के 12 प्रतिशत तक बढऩे की सम्भावना है। ये परिणाम संतुष्टि वाले नहीं। 

इस बजट ने अच्छे तथा बुरे कई कार्यक्रमों पर अनुमानित राजस्व बांटा है। इसके नतीजे में गरीबों के हाथों में जल्द ही ज्यादा पैसा पहुंचने के कार्यक्रमों के लिए ज्यादा कोष के आबंटन का दायरा बहुत कम है। कोष को चालू वर्ष में खर्च नहीं किया गया या फिर अगले वर्ष के लिए मगनरेगा, मिड-डे मील स्कीम, फूड सबसिडी, पी.एम. किसान सम्मान इत्यादि के लिए कटौती की गई है। मैं नहीं समझता कि ग्रामीण आय/मजदूरी अथवा घरेलू उपभोग में उछाल आएगा। आयकर दाताओं को दी गई कर रियायत ने टैक्स ढांचे को अव्यवस्थित किया है तथा उलझन पैदा की है। 40 हजार करोड़ का अनुमानित फायदा कोई पक्का नहीं है तथा यह प्रभाव छोडऩे के लिए बहुत ही निम्न है। ऐसे भी कोई प्रोत्साहन नहीं दिख रहे जो प्राइवेट निवेश को बढ़ावा देंगे। डी.डी.टी. को हटाने से कर का बोझ कम्पनी से शेयर होल्डरों के कंधों पर आ गया है। इसके अलावा जब विनिर्माण में उपयोग 70 प्रतिशत के करीब रहता है तब नए निवेश के बहुत कम आसार हैं। 

वित्त मंत्री ने विवशता वाली मांग तथा निवेश से भूखी अर्थव्यवस्था की जरूरतों पर अपना भाषण नहीं दिया, न ही उन्होंने निर्यात को बढ़ावा देने के गुणक प्रभाव की सराहना की। वह केवल सरकारी खर्च के इंजन पर ही भरोसा जताने के लिए बाध्य रही मगर उस इंजन में ईंधन की कमी है। उन्होंने दो अहम मुद्दों को भी नकार दिया जो कि ज्यादा बेरोजगारी तथा एम.एस.एम.ई. को बंद करने के थे। हाल ही के वर्षों में अर्थव्यवस्था में कुछ खास चुनौतियों को झेलते हुए अपने आपको सशक्त साबित करने तथा निर्णय लेने वाली सरकार आज डरपोक नजर आ रही है जिसे कोई खबर नहीं कि अर्थव्यवस्था में क्या चल रहा है?-पी. चिदम्बरम

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