यहां पुरुषों के अधिकारों के लिए कोई आंदोलन नहीं
punjabkesari.in Monday, Nov 21, 2022 - 07:07 AM (IST)

हम सभी महिलाओं के अधिकारों के बारे में जानते हैं और हमारा कानून इस तरह से बनाया गया है कि यह केवल महिलाओं की रक्षा करता है। यह भेदभाव हर क्षेत्र में देखा जा सकता है लेकिन घरेलू और वैवाहिक कानून लापरवाही से महिलाओं के पक्ष में है। हमारी अदालतें कार्यस्थल या घर पर घरेलू हिंसा, दहेज और यौन उत्पीडऩ जैसे मामलों से भरी पड़ी हैं। आश्चर्यजनक रूप से पुरुषों द्वारा दायर किए गए मामले दुर्लभ या नगण्य हैं और इसका कारण हमारी व्यवस्था, कानून और हमारी विचार प्रक्रिया है।
शायद ही कोई कानून या कोई दिशा-निर्देश हैं जो घरेलू हिंसा या कार्य स्थल पर या फिर घरेलू आधार पर यौन उत्पीडऩ से किसी पुरुष की रक्षा कर सकें। एक महिला होने के नाते मैं भारतीय कानून और न्यायपालिका का सम्मान करती हूं लेकिन मेरा खुद का भी मानना है कि हम महिलाएं सब कुछ पुरुषों के बराबर कर रही हैं तो हम लैंगिक समानतावाद में विश्वास क्यों नहीं कर सकतीं? हम इसके बारे में बात क्यों नहीं कर सकतीं। महिला सशक्तिकरण समानता की भावना के साथ होता है लेकिन जब घरेलू स्तर पर या कार्यस्थल पर कोई समस्या होती है तो हमें पीड़ित की भूमिका क्यों निभानी पड़ती है। चूंकि कानून और समाज हमेशा ही परम्परागत रूप से कमजोर ङ्क्षलग के रूप में महिलाओं का पक्ष लेता है।
इसलिए कई बार झूठी शिकायतें दर्ज की जाती हैं और कोई बच नहीं पाता। महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा कुछ अलग दिशा ले रही है। अदालतें झूठे मुकद्दमों से भरी पड़ी हैं। पत्नी का पति की सम्पत्ति, आय और अन्य चीजों पर अधिकार है। लेकिन उस महिला का क्या जो शिक्षित है, कमाती है और जिसके पास लगभग सब कुछ है? आय और सम्पत्ति के मामले में कौन कमजोर है यह तय करने के लिए एक कानून होना चाहिए। कई मामलों में यह स्पष्ट है कि पत्नी सिर्फ इसलिए काम करना नहीं चाहती क्योंकि वह गुजारा-भत्ता चाहती है और वह अपने पति के पैसे को बनाए रखना चाहती है।
क्या कोई कानून है जो एक महिला को शिक्षित होने के लिए कमाने के लिए कह सकता है। इसका उत्तर ‘नहीं’ में है। माता-पिता या समाज द्वारा एक लड़की के मस्तिष्क में यह शुरू से ही अंकित कर दिया जाता है कि एक दिन उसकी शादी होगी और वह अपने आप ही सब कुछ प्राप्त कर लेगी जो उसके पति के पास है। पहले के दिनों में महिलाएं केवल प्रजनन और बच्चों, घर व बड़ों की देखभाल के लिए जिम्मेदार थीं लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है और लगभग प्रत्येक महिला काम कर रही है तथा एक स्वतंत्र जीवन जी रही है।
पुरुषों के अधिकारों के लिए हमारे पास लगभग कोई आंदोलन नहीं है। भले ही आप खोज करें तो बहुत कम गैर-सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) या शायद कुछ संस्थाएं हैं जो पीड़ित पुरुषों के लिए आगे आती हैं। एक विकासशील देश के रूप में जहां हम हर जगह नारी शक्ति की बात कर रहे हैं और उसका समर्थन भी कर रहे हैं वहीं दूसरा पक्ष भी उतना ही कुरूप होता जा रहा है। क्या हुआ अगर कोई पुरुष घरेलू ङ्क्षहसा का शिकार है तो हम में से ज्यादातर लोग इस बात पर यकीन भी नहीं करेंगे या हम में से कुछ की मानें तो एक आदमी के लिए ऐसा कानून है ही नहीं।
सबसे बड़ा सवाल है कि समानता कहां है? एक आदमी के लिए न्याय कहां है? दहेज रोकथाम कानून भारत में कानून के सबसे अधिक दुरुपयोग वाले प्रावधानों में से एक है और ऐसा लगता है कि वर्षों से इसमें कोई संशोधन नहीं किया गया है। कुछ मामलों में तो शादी के 10-15 सालों बाद भी महिला अचानक दहेज, घरेलू हिंसा और मानसिक प्रताडऩा के आरोप लगा देती है। यह चौंकाने वाली बात है कि इन सालों में क्या उसे इस सबके बारे में कोई जानकारी नहीं थी? वह किसका इंतजार कर रही थी?
अचानक जब एक महिला अपने ससुराल वालों से नाराज होती है तो वे सबसे खतरनाक स्थिति में होते हैं जिसमें परिवार के बुजुर्ग भी शामिल होते हैं जो कानून से भयभीत रहते हैं। जाहिर-सी बात है कि ज्यादातर पुरुष ऐसे मामलों में तनाव, अवसाद और मानसिक बीमारी से गुजरते हैं। ऐसे मामलों में बच्चों का होना यह दर्शाता है कि जैसे महिलाओं का कोई जैकपॉट लग गया है क्योंकि वे लगभग हर चीज की मांग करेंगी जो पुरुष के पास सिर्फ इसलिए है क्योंकि वह सह-माता-पिता है।
यह कहां लिखा या तय किया गया है कि एक बच्चा केवल एक पुरुष की जिम्मेदारी है? बच्चों का होना हमारी संस्कृति में एक आशीर्वाद के रूप में माना जाता है लेकिन जब चीजें गलत हो जाती हैं तो उन्हीं बच्चों का उपयोग अपने पिता से उच्च धन, गुजारा-भत्ता प्राप्त करने के लिए किया जाता है। कुछ मामलों में तो पूरे परिवार को ही झूठे मुकद्दमों में घसीटा जाता है और 10-15 साल क्लीनचिट मिलने पर भी (जो लगभग नामुमकिन है) महिला पर कोई कार्रवाई नहीं होती।
जब हम पुरुषों के अधिकारों के बारे में बात करते हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि हमें महिलाओं के साथ भेदभाव करना चाहिए बल्कि क्या सच और झूठ है इसकी पहचान करनी चाहिए। एक महिला होने के नाते मैं महिला अधिकार संरक्षण कानूनों का सम्मान करती हूं लेकिन किसी को भी उनका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। इस प्रक्रिया में कुछ संशोधन हैं और ऐसा लगता है कि भारतीय न्यायिक प्रणाली भी आंच महसूस कर रही है। मुझे उम्मीद है कि आने वाले समय में कुछ प्रमुख बदलाव देखने को मिलेंगे। -अनु शर्मा (यह लेखिका के अपने विचार हैं)