लोकसभा व विधानसभा चुनाव एकसाथ करवाने के पीछे ‘कोई साजिश’

Wednesday, Oct 18, 2017 - 10:43 PM (IST)

कुछ साल पहले अर्मत्य सेन ने हमें ‘‘आर्गुमैंटेटिव इंडियन’’ की उपाधि दी थी। वह हमारी तर्क-वितर्क और दर्शन की परम्परा का सम्मान कर रहे थे। मैं अक्सर सोचता हूं कि ‘आर्गुमैंटेटिव इंडियन’ का अनुवाद क्या होगा? तर्कशील भारतीय? तर्की-वितर्की-कुतर्की भारतीय? या फिर बहसबाज भारतीय? मुझे बहसबाज ’ज्यादा  लगता है। क्योंकि हम हिंदुस्तानियों की प्रवृत्ति है कि जिन मुद्दों पर बहस होनी चाहिए उन पर तो करते नहीं हैं, लेकिन जिन पर समय बर्बाद करने की कोई जरूरत नहीं है उन पर लम्बी बहसों में उलझे रहते हैं।

इस फिजूल की बहसबाजी का नवीनतम नमूना है देश भर में एक साथ चुनाव करवाने को लेकर चल रही बहस। यह शगूफा कई साल से चल रहा था। अब चुनाव आयोग भी इस बहस से जुड़ गया है। मुख्य चुनाव आयुक्त ने न जाने किसके पूछने पर कह दिया है कि चुनाव आयोग देश भर में संसद और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने को तैयार है। पता नहीं यह प्रस्ताव वह किस कानूनी मर्यादा के तहत दे रहे थे। पता नहीं क्यों चुनाव आयोग अपने सामने मुंह बाय खड़े बड़े सवालों को छोड़कर इस सवाल में उलझ गया?

लेकिन ऐसे सवाल हमारे देश में बड़े लोगों से नहीं पूछे जाते। बहरहाल प्रस्ताव आ गया है तो बहस चल निकली है। पहली नजर में प्रस्ताव जंचता भी है। हमें बताया जा रहा है कि एक साथ चुनाव कराए जाने से पैसे की बचत होगी। सरकारी अमले को बार-बार झंझट में नहीं फंसना पड़ेगा। साथ में यह भी कहा जा रहा है कि इससे सरकार के काम में व्यवधान पैदा होने से बचा जा सकेगा।

हर साल 6 महीने में देश में कहीं न कहीं चुनाव हो जाते हैं। आचार संहिता लागू हो जाती है। सरकार का सारा कामकाज ठप्प हो जाता है। एक साथ चुनाव होंगे तो केन्द्र सरकार सारा समय किसी न किसी रा’य में चुनाव जीतने की ङ्क्षचता से मुक्त रहेगी और निर्बाध होकर काम कर सकेगी। इस बात में भी तुक नजर आती है। हालांकि मेरे मन में एक दुविधा भी रहती है। नेता का ङ्क्षचताग्रस्त रहना ’यादा बुरा है या कि ङ्क्षचता से मुक्त हो जाना। इतिहास तो यही बताता है कि चुनाव जीतने की ङ्क्षचता से ग्रस्त नेताओं ने उतने बुरे काम नहीं किए हैं जितने लोकप्रियता के दबाव से मुक्त नेताओं ने।

पक्ष-विपक्ष के तर्क जो भी हों, मुझे असली हैरानी इस बात से हुई कि इस बहस में सबसे महत्वपूर्ण पहलू अछूता रह गया। सारा देश इस बहस को ऐसे चला रहा है मानो यह प्रशासनिक सुविधा का मामला हो। बस सिर्फ  फायदा- नुक्सान देखने की जरूरत है, जिसमें कायदा, सुविधा होगी वो कर लेंगे। इस बहस में शायद ही किसी ने यह याद दिलाया कि यह सवाल हमारे संविधान से भी जुड़ा है। संसद और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने का मतलब होगा देश के संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था को समाप्त कर राष्ट्रपतीय व्यवस्था को स्थापित करना।

हमारी संविधान सभा में बहुत विस्तृत चर्चा के बाद एक राय से यह फैसला हुआ कि हमें अमरीका जैसी राष्ट्रपतीय व्यवस्था की जगह ब्रिटेन जैसी संसदीय व्यवस्था अपनानी चाहिए। संसदीय लोकतंत्र का मुख्य लक्षण है कि कार्यपालिका के प्रमुख यानी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की यह अनिवार्यता है कि उसे सदन में विधायिका का बहुमत प्राप्त हो। इसलिए जिस दिन  प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री सदन में बहुमत खो देते हैं उसी दिन उनकी सरकार को इस्तीफा देना पड़ता है। राष्ट्रपतीय प्रणाली में ऐसी अनिवार्यता नहीं है। अमरीका के राष्ट्रपति ट्रम्प, वहां की संसद यानी ‘कांग्रेस’ को बहुमत मिले या न मिले, उनके कार्यकाल पर इसका असर नहीं पड़ता है।

हमारे संविधान निर्माताओं ने संसदीय व्यवस्था इसलिए चुनी क्योंकि उसमें विधायिका और कार्यपालिका में टकराहट की गुंजाइश नहीं है और सरकार का काम सुचारू रूप से चलता है। अमरीका और लातिन अमरीका में अपनाई गई राष्ट्रपतीय प्रणाली का बहुत समय संसद और राष्ट्रपति के झगड़े में निकल जाता है। खैर, जो भी हो, हमारा संविधान संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था पर आधारित है और इसे बिना संविधान संशोधन के बदला नहीं जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के हिसाब से तो इस हिस्से को संशोधन से भी नहीं बदला जा सकता है।

आप सोच रहे होंगे कि चुनाव की तारीख का इस संवैधानिक व्यवस्था से क्या संबंध है? संबंध सीधा है, पर पता नहीं क्यों इस बहस में इस पर तव’जो नहीं दी गई है। मान लीजिए कि पूरे देश में लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव 2019 में हो जाएं। मान लीजिए कि हम कोई रास्ता निकालकर सभी विधानसभाओं को भंग कर एक बार 2019 में चुनाव करने की व्यवस्था कर लेते हैं।

अब अगला चुनाव 5 साल बाद 2024 में होगा। अब मान लीजिए कि 2020 में किसी रा’य की सरकार बहुमत खो बैठती है। ऐसे में क्या होगा? अगला चुनाव तो 4 साल दूर है। या तो सरकार बनी रहेगी क्योंकि सरकार के पास बहुमत नहीं है इसलिए वह न कानून पास करवा सकेगी, न ही बजट पास करवा सकेगी। मुख्यमंत्री होंगे, सरकार होगी, सारा तामझाम भी होगा, बस कोई काम नहीं होगा। आप कल्पना कीजिए कि इस संवैधानिक संकट का क्या समाधान है? आप सोचिए कि एक साथ चुनाव के इस शोरगुल में इस संवैधानिक पक्ष की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया गया?

एक साथ चुनाव की वकालत करने वाले इस सवाल का जवाब क्यों नहीं देते हैं। वे कहते हैं अगर सरकार बीच रास्ते में विश्वास खो बैठती है तो उसे भंग किया जाए और फिर से चुनाव करवाए जाएं, लेकिन सिर्फ  बाकी बचे हुए साल के लिए। इस हिसाब से अगर सरकार 2020 में विश्वास मत खोती है तो नई विधानसभा 4 साल के लिए चुने जाएगी। यानी कभी 5 साल के लिए चुनाव होंगे, कभी 3 साल के लिए, कभी 2 साल के लिए। इस तरह हम छोटे सिरदर्द से निपटने के लिए बड़ा 
सिरदर्द मोल ले लेंगे।

तो क्या इस बहस के पीछे सिर्फ नासमझी है? संविधान को न पढऩे की भूल है? केवल प्रशासनिक अति उत्साह है? इस बहस के पीछे एक गहरा राजनीतिक खेल भी हो सकता है। अगर देश भर में एक साथ चुनाव हों तो सारा ध्यान लोकसभा के चुनाव पर होगा। एक साथ चुनाव होने से अलग-अलग रा’यों के मुद्दे दब जाएंगे व एक राष्ट्रीय व्यक्तित्व, राष्ट्रव्यापी पार्टी और पूरे देश का एक मुद्दा उभरकर सामने आएगा। अब जरा सोचिए इससे किस पार्टी को फायदा होगा। कहीं यह सारी बहस पिछले दरवाजे से देश में राष्ट्रपतीय प्रणाली लादने की शरारत तो नहीं? कहीं यह प्रस्ताव क्षेत्रीय और स्थानीय स्वरूप को मिटाने के प्रयास तो नहीं? कहीं यह खेल एक लंबे समय तक एक ही पार्टी का वर्चस्व स्थापित करने का षड्यंत्र तो नहीं? इस सवाल का जवाब मैं क्यों दूं? हम हिंदुस्तानी हैं, आर्गुमैंटेटिव इंडियन हैं, बहसबाज हैं। अब आप बहस कीजिए और जवाब दीजिए।

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