‘खानदानी नेतृत्व’ का कोई विकल्प नहीं

punjabkesari.in Wednesday, Dec 13, 2017 - 03:15 AM (IST)

इसमें अचरज की कोई बात नहीं। यह सभी को मालूम था कि कांग्रेस बुरी तरह नेहरू-गांधी परिवार पर निर्भर है। राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष पद पर पहुंचना उम्मीद के मुताबिक ही था लेकिन कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने इस घटना को एक अलग आयाम दे दिया है। 

उन्होंने राहुल गांधी के विरासत संभालने की तुलना मुगल खानदान से की है। उन्होंने कहा कि राजा का बेटा ही राजा बनता था। पार्टी की घोषणा कुछ भी हो, यह खानदान के शो के अलावा कुछ नहीं है। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी बेटी को इस पद के लिए तैयार किया था। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष यू.एन. ढेबर ने इंदिरा गांधी के नाम का प्रस्ताव किया तो गृह मंत्री जी.बी. पंत ने कहा कि उसे परेशान नहीं करना चाहिए क्योंकि उसका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। नेहरू ने उनकी टिप्पणी पर आपत्ति जताई और कहा कि इंदिरा का स्वास्थ्य उनसे और पंत से बेहतर है। उसके बाद इंदिरा को कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया। 

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने दूसरे विकल्प की चर्चा भी नहीं की। अपने बेटे राहुल गांधी को सीधे कुर्सी पर बिठा दिया। एक अफवाह थी कि वह अपनी बेटी प्रियंका गांधी को मनोनीत करेंगी क्योंकि राहुल गांधी चल नहीं पा रहे हैं लेकिन भारतीयों की तरह इटली वाले भी बेटी के मुकाबले बेटे को उत्तराधिकार देना पसंद करते हैं। वास्तव में अब पार्टी 10 जनपथ से उसी तरह चलाई जाएगी जिस तरह नेहरू और इंदिरा गांधी के समय 3 मूर्ति या सफदरजंग से चलाई जाती थी। वैसे भी जब मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद पर बिठाया गया तो सोनिया गांधी ही शासन कर रही थीं। संसद के सैंट्रल हाल में हुए उस नाटक का मैं गवाह हूं जिसमें पार्टी सदस्य रोए थे कि सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाना चाहिए लेकिन वह खामोश रहीं क्योंकि उनके दिमाग में उनका बेटा था और वह प्रधानमंत्री बन जातीं तो यह पहले से तय एक नाटक दिखाई देता। 

मनमोहन सिंह ने भी कई बार कहा कि राहुल गांधी जब भी तैयार हों उनके लिए कुर्सी खाली करना खुशी की बात होगी और यही कि वह कुर्सी राहुल के लिए तैयार रखे हैं। हालांकि कुछ समय से यह बात आ रही थी, खासकर सोनिया गांधी के स्वास्थ्य ठीक नहीं रहने पर, कि राहुल गांधी का पार्टी नेतृत्व संभालना तय है। राहुल गांधी ने पहले से ही सैकुलरिज्म का अपना घोषणा-पत्र बना रखा है। भारतीय जनता पार्टी लोगों के सामने भले ही हिंदुत्व को अपना न बताए लेकिन यह साफ है कि 2019 का चुनाव वह सिर्फ हिंदुत्व के नारे पर लड़ेगी। प्रधानमंत्री इसे नहीं छिपाते कि वह नागपुर के आर.एस.एस. मुख्यालय की यात्रा करते हैं और मोहन भागवत जैसे नेताओं का मार्गदर्शन लेते हैं। ‘सबका साथ, सबका विकास’ उनका महज एक नारा ही साबित हुआ। 

यह देखा जा सकता है कि कामकाज की उनकी योजना में मुसलमान की कहीं भी गिनती नहीं है। यह दुख की बात है कि उन लोगों ने खुद ही अपने को पीछे खींच लिया है। उत्तर प्रदेश विधानसभा में भारी जीत इस बात का सबूत है कि भारतीय जनता पार्टी ने किस तरह सत्ता हासिल की है। यह साफ है कि पार्टी चाहती थी कि लोग जानें कि वह किसी भी तरह मुस्लिम मतदाताओं पर निर्भर नहीं है। गुजरात में फिर यही चिन्हित होने वाला है और मोदी यह स्पष्ट कर रहे हैं कि जो गुजरात जीतेगा वह अगले आम चुनाव में भारत जीतेगा। गुजरात का उनका तूफानी चुनाव अभियान यह सवाल उठा रहा है कि मोदी गुजरात विधानसभा चुनावों में ज्यादा ही दाव लगा रहे हैं। शायद यह राज्य में भाजपा के खिलाफ लडऩे के लिए परिवर्तन चाहने वाले युवाओं के साथ पाटीदारों का कांग्रेस के साथ आने के कारण हुआ हो। 

अभी का जो रिकार्ड है उसमें किसी भी दृष्टि से राहुल गांधी प्रभावी नहीं रहे हैं। उन्होंने कई चुनाव लड़े जिसमेंं उत्तर प्रदेश का चुनाव शामिल है, जहां उन्होंने अखिलेश यादव के साथ गठबंधन किया था लेकिन इससे कोई मदद नहीं मिली। कांग्रेस बुरी तरह हार गई और उसे सिर्फ चौथा स्थान मिला। अभी उन्हें गुजरात चुनावों में अपनी लोकप्रियता साबित करनी है। अगर वह विफल होते हैं तो लोग जान जाएंगे कि वह अपने बूतेे पर नहीं जीत सकते। यह अचरज की बात है कि राहुल गांधी परिवारवाद का बचाव कर रहे हैं। 

पंजाब, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु तथा आंध्र प्रदेश का उदाहरण देकर वह कह रहे थे कि हर पार्टी इस पर निर्भर है लेकिन वह यह भूल जाते हैं कि इन सभी राज्यों में ये पार्टियां वैकल्पिक रूप से सत्ता में आती रही हैं। क्या राहुल या यूं कहिए, कांग्रेस केन्द्र में सरकार बनाने के लिए बहुमत पा सकती है? उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ेगी अगर वह कांग्रेस को सत्ता में देखना चाहते हैं लेकिन अभी के समय में वह सत्ता को अपनी ओर खींचने की ताकत रखने वाले दिखाई नहीं पड़ते लेकिन परिदृश्य बदल सकता है। 

हमने इंदिरा गांधी जिसे ‘गूंगी गुडिय़ा’ कहा जाता था, को प्रधानमंत्री बनते और बहुत ही कम समय में पूरे विपक्ष का सामना करते देखा है। यहां तक कि उनका बेटा, जिसे राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने थोप दिया था, को लोगों ने स्वीकार कर लिया। कोई कारण नहीं है कि राहुल गांधी को स्वीकार नहीं किया जाए। लेकिन यह इसी पर निर्भर करेगा कि वह पार्टी को साथ ले चलने और चुनाव जीतने में इसकी मदद करते हैं। अभी के समय में यह कठिन मालूम होता है क्योंकि सैकुलरिज्म अब पीछे चला गया है। पूरे देश में एक नरम हिंदुत्व फैल चुका है। यह अफसोस की बात है कि जिस देश ने विविधता के मुद्दे पर स्वतंत्रता अंादोलन की लड़ाई लड़ी, वह आजादी के मूल्यों पर चलने में असमर्थ हो गया।-कुलदीप नैय्यर


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