नई संसद, नई शुरुआत : क्या सरकार-विपक्ष के बीच मतभेद दूर कर पाएगी

punjabkesari.in Wednesday, May 31, 2023 - 04:46 AM (IST)

ऐसी अनेक संस्थाएं और क्षण होते हैं, जो राजनीति से परे होते हैं और लोकतंत्र का पावन मंदिर संसद उनमें से एक है। संसद के दोनों सदन, लोकसभा और राज्यसभा चर्चा और बहस के केन्द्र हैं, जहां पर लोगों की आवाज को उनके प्रतिनिधियों के माध्यम से सुना और सरकार को जवाबदेह ठहराया जाता है। बीता रविवार एक सामान्य रविवार से अलग था। स्वतंत्र भारत में संसद के नव-निर्मित भवन का उद्घाटन किया गया और इसने काऊंसिल हाऊस के रूप में 1927 में औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत निर्मित वर्तमान संसद का स्थान ले लिया। यह अतीत को वर्तमान से जोडऩे का एक सेतु है। 

नव-निर्मित संसद भवन की भव्यता और उसमें उच्च प्रौद्योगिकी युक्त सुविधाएं नए भारत की महत्वाकांक्षाओं और आत्मनिर्भरता को दर्शाती हैं तो इसके उद्घाटन के संबंध में तीव्र राजनीतिक मतभेद और विद्वेष, तीखे बयान, ट्वीट आदि उन महत्वाकांक्षाओं पर एक अंकुश सा लगाते हैं। नि:संदेह 19 विपक्षी दलों द्वारा नव-निर्मित संसद भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार उनकी राजनीति को दर्शाता है। 

यह कहा गया कि लोकतंत्र की आत्मा को मार दिया गया, नए भवन का कोई महत्व नहीं है। हमेशा की तरह मोदी सुर्खियों में रहना चाहते हैं। लोकतांत्रिक संस्थाओं और भावनाओं का ह्रास हो रहा है। मोदी अपने ब्रांड का हिन्दू राष्ट्रवाद थोप रहे हैं। साथ ही यह भी प्रश्न उठाया गया कि नव-निर्मित संसद भवन के उद्घाटन की तिथि हिन्दू हृदय सम्राट वीर सावरकर के जन्म दिवस के दिन क्यों निर्धारित की गई, जिन्हें विपक्ष विभाजनकारी मानता है। 

कांग्रेस के राहुल गांधी ने इस नव-निर्मित भवन के उद्घाटन को मोदी का राजतिलक बताया, तो राजद ने इस भवन को एक ताबूत बताया। वहीं राकांपा के शरद पवार ने कहा कि वह खुश हैं कि उन्होंने इस समारोह में भाग नहीं लिया क्योंकि यह भारत को पीछे ले जाएगा। प्रश्न उठता है कि साधुओं द्वारा पूजा-प्रार्थना करना और उनकी उपस्थिति किस तरह पिछड़ापन है? विपक्ष ने कहा कि वे नए संसद भवन का बहिष्कार कर रहे हैं न कि संसद का। किंतु संसद के अगले सत्र में वे इसी भवन में प्रवेश करेंगे और 2024 में इसी भवन में प्रवेश करने के लिए चुनावी दंगल लड़ेंगे। वे इसका अनिश्चितकाल के लिए बहिष्कार नहीं कर सकते, तो फिर इसके उद्घाटन को विरोध-प्रदर्शन का प्रतीक क्यों बनाया गया? वे इस कटु सच्चाई को भूल गए कि संसद मोदी के बाद भी रहेगी और इतिहास में दर्ज होगा कि नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में विपक्ष उपस्थित नहीं रहा। 

उद्घाटन समारोह में अनुपस्थित रहकर कांग्रेस का अधिक नुक्सान होगा, विशेषकर कर्नाटक की जीत के बाद जब लोग कांग्रेस को एक नई आशा के साथ देखने लगे थे। भाजपा ने न केवल कांग्रेस के नायकों पटेल, अंबेडकर, आजाद आदि को अपनाया, अपितु कांग्रेस ने मोदी को ऐसा अवसर भी दिया, जिससे वे भारत को नया संसद भवन देने का पूर्ण श्रेय ले सकते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब सोनिया गांधी ने अनेक विधानसभा भवनों का उद्घाटन किया। सोनिया गांधी ने मणिपुर, झारखंड और छत्तीसगढ़ विधानसभा भवनों का उद्घाटन किया। इंदिरा गांधी ने संसदीय सौध का उद्घाटन किया। राजीव गांधी ने संसद ग्रंथालय भवन का उद्घाटन किया और संवैधानिक औपचारिकताओं की परवाह नहीं की गई। 

यदि विपक्ष ने विरोध प्रदर्शन के लिए गलत समय चुना तो सरकार ने भी आधे-अधूरे मन से विपक्ष को निमंत्रण दिया। प्रधानमंत्री को उदारता दिखाते हुए विपक्षी नेताओं और विपक्ष शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को व्यक्तिगत रूप से निमंत्रण देना चाहिए था, जो भारत की विविधता और विभिन्न विचारों का प्रतिनिधित्व करते और इस तरह भारत को एकजुट रखने का एक बड़ा अवसर प्रदान करते। स्वयं को समारोह के केन्द्र में रखकर प्रधानमंत्री ने इस अवसर को हमारी जीवंतता के समावेश की बजाय एक राजनीतिक अवसर बना दिया। नया संसद भवन पहले दिन से विवादों से घिरा रहा है, कि इसकी क्या आवश्यकता है। क्या यह बेहतर नहीं होगा कि नए संसद भवन पर पैसा खर्च करने की बजाय रोजगार सृजन पर खर्च किया जाता, पुराने संसद भवन की मुरम्मत की जाए, उसका विस्तार किया जाए और उसमें आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं, जैसा कि ब्रिटेन समेत अन्य देश कर रहे हैं। 

नि:संदेह संसद अपने वायदों को पूरा नहीं कर पाई और भाजपा द्वारा विपक्ष तक पहुंचने और उससे संवाद करने का प्रयास नहीं किया गया। आज यह ऐसा स्थान नहीं रह गया, जहां पर राजनीतिक भावना की संकीर्णता समाप्त हो। लोकसभा और राज्यसभा की कार्रवाई में बाधा से लेकर बिना चर्चा और संसदीय समितियों को भेजे बिना कानून पास करना आम बात हो गई है। हमारे नेताओं को हर स्थिति में निर्णय लेने में सावधान रहना चाहिए, चाहे सदन में शोर-शराबा हो, हल्ला, धक्का-मुक्की, कुर्सियां, माइक तोडऩा आदि ही क्यों न चल रहा हो या विपक्षी सदस्य बहिर्गमन क्यों न कर रहे हों। यदि संसद भवन में विचारपूर्वक बहस और कानूनों की अच्छे से समीक्षा न हो तो नए संसद भवन का क्या उपयोग है? 

इस लोकसभा में पिछले मानसून सत्र तक केवल 13 प्रतिशत विधेयकों को समितियों को विचार के लिए सौंपा गया था। जबकि 16वीं लोकसभा में 27 प्रतिशत विधेयकों को समितियों के पास विचार के लिए भेजा गया था। 17वीं लोकसभा की पुनरावृति कोई नहीं चाहता क्योंकि इस लोकसभा में बिना चर्चा और बहस के कानूनों को पारित किया गया, न ही 15वीं लोकसभा की पुनरावृति होनी चाहिए, जो अब तक सबसे कम उत्पादक रही है। आज संसद के समक्ष तीन चुनौतियां हैं। पहली, विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच बढ़ता मतभेद। संसद के पिछले कुछ सत्रों में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों द्वारा कार्रवाइयों में बाधा डाली गई। दोनों अपनी-अपनी विचारधारा और अपने-अपने रुख पर अड़े रहे। भाजपा का मानना है कि उसके लोकतांत्रिक जनादेश का अनादर किया जा रहा है और विपक्ष इसलिए परेशान है कि सरकार अपनी संख्या बल का इस्तेमाल कानूनों को पारित करने और संसदीय प्रक्रिया को नजरंदाज करने के लिए कर रही है। 

दूसरी, संसदीय प्रक्रिया को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है क्योंकि इसका मुख्य कार्य सरकार द्वारा तैयार किए गए विधेयकों की जांच करना है। कानून निर्माताओं को ऐसे उपायों पर विचार करना चाहिए, जिनसे दोनों पक्षों को मुद्दों को उठाने के लिए समय और महत्वपूर्ण विधानों की जांच के लिए पर्याप्त अवसर मिले। तीसरा, संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन और दोनों सदनों की सदस्य संख्या बढ़ाने के लिए 2026 की समय-सीमा। नई लोकसभा में 888 और राज्यसभा में 384 सदस्य हो सकते हैं। वह दिन दूर नहीं जब इस संसद के चैंबरों में अधिक सदस्य बैठेंगे। हमारे नेताओं को इस बात को समझना होगा कि संसद जनता की इच्छा की अभिरक्षक और सरकार तथा विपक्ष के माध्यम से संसदीय लोकतंत्र में उनकी सर्वोच्चता का प्रतीक है। 

दोनों पक्षों को जनता की खातिर अपने-अपने लिए अलग-अलग स्थान बनाने चाहिएं और दृढ़ इच्छा शक्ति से जनता के मुद्दों को उठाना चाहिए। उन्हें संसद में ढांचागत सुधार करने चाहिएं और मुद्दों को उठाने के लिए अलग से समय निर्धारित करना चाहिए। हमारी संसद विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का हृदय स्थल है और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को चलाने का प्रमुख साधन है। भारत एक महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहा है और अपनी जनसंख्या का लाभ उठा सकता है। हमारे राजनेता वर्ग को संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर उठना होगा, अन्यथा इतिहास उन्हें माफ नहीं करेगा।-पूनम आई. कौशिश     


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