प्यार के अत्याचार की शिकार नई पीढ़ी

Wednesday, Jun 19, 2019 - 02:14 AM (IST)

हर सुबह समाचार-पत्रों में कुछ ऐसे समाचार पढऩे को मिलते हैं जो मन को बहुत दुखी करते हैं और भविष्य के प्रति बहुत बड़ी ङ्क्षचता का कारण बनते हैं। किसी भी परीक्षा परिणाम के बाद कुछ छात्रों द्वारा आत्महत्या के समाचार आम हो गए हैं। किसी भी बात पर नाराज होकर बच्चों का घर से भागना और कई बार अपनी इच्छा पूरी न होने पर आत्महत्या करना आम होने लगा है। देश की राजधानी दिल्ली से प्रतिदिन लगभग 10 बच्चे गुम होते हैं या भाग जाते हैं। नई पीढ़ी में इस प्रकार के व्यवहार से किसी का भी चिंतित होना स्वाभाविक है। 

पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव और नई-नई तकनीक का आविष्कार समाज के रहन-सहन और चिंतन-मनन में भी बहुत बड़ा परिवर्तन कर रहा है। भारत में परिवार में संस्कार देने की पुरानी परम्परा लगभग समाप्त हो गई है। पहले की तरह दादी-नानी के पास बैठकर रामायण-महाभारत की कहानियां सुनना, मोहल्ले में बच्चों का आपस में खेलना, लडऩा-झगडऩा, शैशव की प्यारी शरारतें, मौज-मस्ती और परिवार से प्राप्त होने वाले संस्कारों की परम्परा अब लगभग समाप्त हो गई है। टी.वी. और मोबाइल ने पूरी तरह से बच्चों को व्यस्त कर दिया है। 

आविष्कार वरदान मगर विनाशकारी भी
विज्ञान और नई तकनीक के नए आविष्कार वरदान हैं, परन्तु विवेक के बिना विज्ञान विनाश भी बन सकता है। बच्चों के हाथ में मोबाइल तो आ गया पर उसमें क्या देखना है और कितना देखना है, इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। मोबाइल की कुछ सामग्री बच्चों के लिए विनाशक सिद्ध हो रही है। नई पीढ़ी में नशे का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। हिमाचल में एक तरफ पंजाब से और दूसरी तरफ कुल्लू-मनाली में कुछ विदेशियों द्वारा फैलाए जाने वाले नशे से पूरा प्रदेश इस बीमारी से त्रस्त हो रहा है। छोटे-छोटे गांवों के स्कूलों में भी यह समस्या बढ़ती जा रही है। मोबाइल और टी.वी. अब नशा बनते जा रहे हैं। कई बार ऐसे समाचार आते हैं कि उनको रोकने के कारण बच्चों ने बाहर जाकर आत्महत्या कर ली। बच्चों के घर से भागने और फिर गुम हो जाने की घटनाएं बढऩे लगी हैं। 

इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि बच्चों को घर या स्कूल में डांट सुनने की आदत ही नहीं रही। हमारे समय में माता-पिता डांट-डपट करते थे। स्कूल में भी ऐसी सजा मिलती थी। पड़ोसी भी बच्चे को डांट दे तो कोई बुरा नहीं मानता था। अब स्थिति बदल रही है। अधिकतर घरों में प्यार के नाम पर बच्चों से डांट-डपट बंद हो गई है। स्कूल में भी किसी प्रकार की सजा देना बंद है। यदि कोई अध्यापक ऐसा करे तो माता-पिता विरोध ही नहीं करते, कई बार अधिकारियों से शिकायत भी करते हैं। बच्चे तो बच्चे हैं, वे कुछ भी करने व मांगने को तैयार हो जाएंगे। उन्हें रोकना पड़ता है, समझाना पड़ता है और डांटना भी पड़ता है। अब लाड़-प्यार के नाम पर बच्चों का स्वभाव ऐसा बन रहा है कि वे ये सब सहन ही नहीं कर सकते। 

खुद माता-पिता जिम्मेदार
बहुत से परिवारों के बच्चों में पैदा होने वाली इन प्रवृत्तियों के लिए स्वयं माता-पिता जिम्मेदार हैं। सम्पन्न परिवारों में बच्चों को उनकी हर इच्छा के अनुसार  सब कुछ देने की परम्परा शुरू हो गई है। बच्चों को यह पता ही नहीं रहता कि कभी उन्हें किसी बात के लिए इन्कार भी हो सकता है। उनकी हर इच्छा पूरा करना माता-पिता अपना कत्र्तव्य समझते हैं। ऐसे बच्चे जीवन में कभी किसी बात पर इन्कार होने की कल्पना ही नहीं करते और यदि कभी उनकी इच्छा पूरी नहीं होती तो वे उसे सहन ही नहीं कर पाते हैं। आत्महत्याओं का एक यही प्रमुख कारण है। 

कई परिवारों में यह निश्चित नियम था कि एक जैसा खाना बनता था, पूरा परिवार एक साथ बैठकर एक समय पर वही खाना खाता था। यह बच्चों के विकास का बड़ा साधन था। इससे शुरू से ही बच्चों में दाल-सब्जी सब कुछ खाने की आदत पड़ जाती थी। अब मैगी, पिज्जा आदि हानिकारक भोजन बच्चों का प्रिय बनता जा रहा है। अब सम्पन्न परिवारों में खाना खाते समय बच्चे कुछ और खाने की मांग करते हैं तो लाड़-प्यार में माता-पिता उसी समय उनकी इच्छा पूरी करते हैं। बना हुआ खाना बेकार जाता है। वास्तव में यह प्यार नहीं, इसे प्यार का अत्याचार कहा जाता है। अधिकतर परिवारों में बच्चों का प्रात: उठने, सोने और जागने का कोई समय नहीं रहा। छुट्टियों में कई घरों के बच्चे देर रात तक टी.वी. देखते हैं, मोबाइल की बहुत सी गेम्स में व्यस्त रहते हैं और फिर दूसरे दिन दोपहर तक सोते रहते हैं। अधिकतर सम्पन्न परिवारों के बच्चों का वजन बढ़ रहा है। समय से पहले बीमारियां आ रही हैं। 

परम्पराएं व अनुशासन
कुछ परिवारों में अभी भी पुरानी परम्पराओं और अनुशासन को जीवित रखने का प्रयत्न किया जा रहा है। मैं एक संबंधी के घर बैठा था। 10वीं कक्षा में पढऩे वाले उनके बेटे ने टी.वी. का रिमोट उठाया और मां से पूछा कि वह कार्यक्रम देखना चाहता है। मां ने घड़ी देखी और कहा-नहीं अभी समय नहीं हुआ। मुझे बताया गया कि इस घर में यह तय है कि बच्चे दिन में केवल निश्चित समय पर एक घंटा टी.वी. देखेंगे। अवकाश के दिन दो घंटे देखेंगे। मोबाइल प्रयोग का भी समय है, रात के 10 बजे सबका सोना तय है और प्रात: सब समय पर उठते हैं। जीवन की ये स्वस्थ परम्पराएं परिवारों में आने वाली सम्पन्नता के साथ समाप्त होती जा रही हैं।

भारतीय चिंतन में अन्न को ब्रह्म कहा गया है। भोजन करना जीवन का एक परम आवश्यक और सात्विक कार्य है। प्राकृतिक चिकित्सा में तो यह सिद्धांत है कि भोजन ही दवाई है। यदि यह ध्यान रखा जाए कि भोजन कब करना है, कैसा करना है, कितना करना है और कहां करना है। परन्तु अब कुछ परिवारों में ये परम्पराएं टूट रही हैं। खाने की प्लेट लेकर बच्चे टी.वी. के सामने बैठ जाते हैं और एक हाथ से मोबाइल चलाते रहते हैं। इसे भोजन निगलना तो कह सकते हैं परन्तु भोजन करना नहीं कह सकते। 

माता-पिता कितने ही सम्पन्न क्यों न हों, उन्हें याद रखना चाहिए कि जीवन सीधी-सपाट पक्की सड़क ही नहीं है, रास्ते में ऊबड़-खाबड़ कच्ची पगडंडियां भी हैं। जीवन में कभी किसी भी प्रकार की कठिनाई व संघर्ष भी आ सकते हैं। जीवन में आ सकने वाली उन सब चुनौतियों के लिए भी बच्चों को तैयार करना आवश्यक होता है। आज हाल यह है कि परीक्षा में कम अंक आने पर ही कुछ बच्चे पंखे से लटक कर जान दे देते हैं, वे और क्या सहेंगे। भावी पीढ़ी में आने वाली ये प्रवृत्तियां एक बहुत गंभीर समस्या है। 

कानून को तो कठोरता से सब कुछ करना ही चाहिए परन्तु उसी से समाधान नहीं होगा। पूरे समाज और सरकार को एक रचनात्मक कार्यक्रम से इस गंभीर संकट का मुकाबला करना होगा। समय आ गया है जब योग व नैतिक शिक्षा को स्कूलों में एक अनिवार्य विषय बनाना होगा। नई तकनीक के इन साधनों पर कुछ अंकुश लगाना होगा। नैतिक शिक्षा में वह सब सीखना होगा जो एक सफल व स्वस्थ जीवन जीने के लिए आवश्यक है।-शांता कुमार

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