नए आपराधिक कानूनों पर पुन: विचार होना चाहिए

punjabkesari.in Thursday, Jun 27, 2024 - 05:18 AM (IST)

अगस्त 2023 एक ऐसा दौर था जब पिछली सरकार का अहंकार अपने क्रूर बहुमत के साथ पूरी तरह से प्रदर्शित हुआ था। एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए, लोकसभा अध्यक्ष ने रिकॉर्ड 146 सांसदों को निलंबित कर दिया था। वे केवल नए संसद भवन के अंदर हुए हमले पर प्रधानमंत्री द्वारा एक बयान की मांग कर रहे थे, लेकिन प्रधानमंत्री जैसा कि उनका रवैया था टस से मस नहीं हुए और इसके बजाय अध्यक्ष ने विरोध करने वाले सांसदों को निलंबित कर दिया। 

निलंबन की इस अवधि के दौरान ही अत्यधिक विवादास्पद नए आपराधिक कानून बिना किसी बहस और चर्चा के पारित कर दिए गए। हालांकि इन्हें संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया था, लेकिन विपक्षी सदस्यों के विचारों को नजरअंदाज कर दिया गया और सरकार ने नए विधेयकों को पारित कर दिया, जिन्हें बाद में नए कानूनों में बदल दिया गया और जिन्हें अब से कुछ दिनों बाद 1 जुलाई को लागू किया जाना है। 

इस तथ्य के अलावा कि इन्हें अनुचित जल्दबाजी में पारित किया गया था, नए आपराधिक कानूनों के कुछ प्रावधान गिरफ्तारी, रिमांड और जमानत के मामलों में ब्रिटिश काल के कानूनों से भी बदतर हैं। 3 नए आपराधिक कानून, भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, क्रमश: भारतीय दंड संहिता, 1860, दंड प्रक्रिया संहिता, 1898 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की जगह लेंगे। 

एक प्रमुख दोष जो मौलिक अधिकारों को प्रभावित करता है, वह है पुलिस हिरासत में रखे जाने वाले दिनों की संख्या में वृद्धि का प्रावधान। जबकि मौजूदा कानूनों के तहत, उसे 15 दिनों तक पुलिस हिरासत में रखा जा सकता है, संशोधित प्रावधान में कथित अपराध की गंभीरता के आधार पर 60 से 90 दिनों की पुलिस हिरासत का प्रावधान है। इस प्रावधान का दुरुपयोग होने की संभावना है क्योंकि पुलिस को केवल संदेह के आधार पर किसी को भी गिरफ्तार करने का अधिकार है। हालांकि गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर आरोपी को मैजिस्ट्रेट के सामने पेश करने का प्रावधान है, लेकिन यह सर्वविदित है कि मैजिस्ट्रेट लगभग हमेशा पुलिस रिमांड के लिए सहमत होते हैं। इसलिए अब किसी भी व्यक्ति को जेल नहीं बल्कि जमानत के सिद्धांत के विपरीत 90 दिनों तक पुलिस हिरासत में रखना आदर्श होगा। 

विपरीत निर्णय और उच्च न्यायालयों द्वारा आदेशों को पलटने की आशंका के कारण निचली अदालतें जमानत नहीं देती हैं। इसी तरह उच्च न्यायालय भी विपरीत टिप्पणी और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जमानत दिए जाने के डर से जमानत नहीं देती है। इससे न्याय मिलने में अनावश्यक देरी होती है। पुलिस की यह शक्ति, जिसमें षड्यंत्र के आरोपी भी शामिल हैं,  नागरिकों के जीवन और स्वतंत्रता से संबंधित गंभीर परिणामों को जन्म दे सकती है। पुलिस को बुनियादी आरोप स्थापित करने में इतना लंबा समय क्यों लगना चाहिए? और विडंबना यह है कि पुलिस को दिया गया बयान अदालतों में सबूत के तौर पर स्वीकार्य नहीं है! नए कानूनों का एक अन्य प्रावधान बी.एन.एस.एस. की धारा 173(3) के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ.आई.आर.) के पंजीकरण से संबंधित है। यह ऐसे अपराध के लिए एफ.आई.आर. दर्ज करने को विवेकाधीन बना देगा जिसमें सजा 3 से 7 साल तक है। 

यह हाशिए पर पड़े समूहों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है जो एफ.आई.आर. भी दर्ज नहीं करवा पाएंगे। एक अन्य प्रावधान जिसके दुरुपयोग की संभावना है, वह राजद्रोह से संबंधित कानूनों से संबंधित है। बी.एन.एस. की धारा 152 के तहत चार तरह की गतिविधियों को कानूनी परिभाषा दिए बिना अपराध घोषित किया गया है विध्वंसकारी गतिविधियां, अलगाववाद, भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाली अलगाववादी गतिविधियां और सशस्त्र विद्रोह। इससे दुरुपयोग हो सकता है और न्याय मिलने में देरी हो सकती है। कई अन्य खामियां हैं जिनसे निपटा जाना चाहिए और हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली को बेहतर बनाने में मदद करने के लिए सबसे अच्छे कानूनी दिमागों को शामिल किया जाना चाहिए। 

इस तथ्य को देखते हुए कि ये नए कानून जो अनुचित रूप से जल्दबाजी में पारित किए गए हैं लाखों नागरिकों को प्रभावित करेंगे। यह जरूरी है कि व्यापक प्रतिनिधित्व वाली नई संसद इन कानूनों पर फिर से चर्चा करे और गहन चर्चा के बाद एक उचित निर्णय ले। अन्यथा सुप्रीम कोर्ट को नए कानूनों का स्वत: संज्ञान लेना चाहिए और सरकार से इन कानूनों को लागू करने से पहले समीक्षा करने के लिए कहना चाहिए।-विपिन पब्बी    


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