न तुम जीते न वह हारे!
punjabkesari.in Friday, Jun 07, 2024 - 06:00 AM (IST)
यूं ही नहीं कहा जाता कि भारत दुनिया में लोकतंत्र का मसीहा है। समूची दुनिया मानती है कि भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र कम ही हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की खूबसूरती को बनाए रखने वाले मतदाताओं ने एक बार फिर वह कर दिखाया जिससे समूची दुनिया अचंभित है। निश्चित रूप से नतीजों ने इतना तो बता दिया कि भारत का मतदाता खामोश भले ही रहे लेकिन फैसले वही करता है जो देश हित में जरूरी समझता है। यकीनन 2024 के खंडित जनादेश से अपने बलबूते बहुमत तक नहीं पहुंची भाजपा जहां 63 सीटें हारने के बावजूद ज्यादा सीटें जीतकर भी खुश नहीं है वहीं एक दशक के इंतजार के बावजूद 99 पर अटकी कांग्रेस भी गमजदा नहीं है।
देश में एक बार फिर गठबंधन सरकार का दौर आ गया है। नतीजों के बाद कहीं न कहीं बेहद पुराने सहयोगियों अकाली दल को खोने तो शिवसेना को 2 भागों में कराने का भी भाजपा के धुरंधरों को मलाल होगा। वहीं तमाम सहयोगियों से पिछले 10 वर्षों में किया गया बर्ताव और अब उन्हीं के सहारे सरकार चलाना कितना मददगार होगा? सबसे बड़ा सवाल यही चर्चाओं में है कि क्या मीट, मटन, मंगलसूत्र, मुसलमान, मुजरा जैसे बयान फिर सुनने को मिलेंगे? जबकि किसान आंदोलन, जबरदस्त महंगाई-बेरोजगारी, पेपरलीक जैसे अछूते मुद्दों ने भी चुनाव को प्रभावित किया। इसी साल हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में तो अगले साल दिल्ली और बिहार में विधानसभा चुनाव हैं। इन राज्यों में भाजपा की परफॉर्मैंस पहले के मुकाबले घटी है।
लोकसभा में जीत से उत्साहित नीतीश 6 महीनों के अंदर बिहार में चुनाव के पक्षधर होकर कई मांगें रखेंगे। विशेष राज्य का दर्जा से लेकर अधिक मदद का दबाव होगा। उनकी सफलता का असर बिहार में निश्चित दिखेगा। ऐसे में इन विधानसभा चुनावों के बाद की राजनीति की करवट क्या होगी? अब नीतीश का बार-बार पाला बदलना अचरज के बजाय अवसर कहलाता है। वहीं चंद्रबाबू नायडू ने 2002 में गुजरात दंगों के बाद मुख्यमंत्री के पद से मोदी के इस्तीफे की मांग करते हुए विरोध में एक प्रस्ताव पारित किया था। कुछ बीती कुछ हालिया बातें राजनीतिक भविष्य को लेकर सुर्खियां बटोर रही हैं। 2019 में आंध्र प्रदेश में मोदी का दिया वह भाषण विपक्ष काफी प्रचारित कर रहा है जिसमें चंद्रबाबू को अपने ससुर की पीठ में छुरा घोंपने वाला बताया था। 2018 में नायडू ने विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग पर ही एन.डी.ए. छोड़ अपने 2 केन्द्रीय मंत्रियों को भी हटाया था।
लेकिन राजनीति संभावनाओं का खेल है। यहां न कोई स्थायी दोस्त होता है न ही दुश्मन। फिलहाल नरेन्द्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बनेंगे। यह सच है कि अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने कभी गठबंधन सरकार नहीं चलाई। अब 2 शहजादों के चलते बने मजबूत विपक्ष और संविधान में आस्था रखने की दुहाई के नाम पर विपक्षी एकजुटता के आगे बहुमत से दूर मिली-जुली भाजपा-एन.डी.ए. सरकार चलाना और पहले जैसी मजबूती बनाए रखना बड़ी चुनौती होगी। सारे सवाल भविष्य के गर्त में छुपे हैं। लेकिन सबसे अहम यह कि अब की बार मोदी की एन.डी.ए. सरकार के काम और फैसलों की रफ्तार वैसी ही होगी जो बीते 2 कार्यकाल में थी? कम से कम मंत्रिमंडल गठन तक कयासों के संकेत का इंतजार करना होगा। 2014 के चुनावों में 282, 2019 में 303 सांसदों के मुकाबले इस बार भाजपा के 240 बनाम गठबंधन के 53 सांसदों के बीच मंत्रिमंडल संतुलन भी देखने लायक होगा।
आक्रामकता के साथ चौंकाने वाले फैसलों की खातिर पहचान बना चुके नरेन्द्र मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनकर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बराबरी कर लेंगे जिन्होंने 6130 दिन तक केंद्रीय सत्ता संभाली। लेकिन मोदी पहले राजनेता होंगे जो चुनी हुई सरकारों यानी गुजरात के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री के रूप में रिकॉर्ड 8277 दिन काम कर चुके हैं। जबकि इंदिरा गांधी 5829 दिनों तक प्रधानमंत्री रहीं।
इस सच्चाई से कतई गुरेज नहीं कि चुनाव पूर्व गठबंधन के पास बहुमत है। जिसमें जाते-आते सहयोगियों के खट्टे-मीठे अनुभव और राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को पूरा करने या न करने पर अपने मन की बात न कह पाने वाले घटक दल प्रधानमंत्री मोदी के मन की बात को कितना मानेंगे? क्या मोदी-शाह की जोड़ी वैसा कर पाएगी जैसा करती रही? इसे लोग अपने-अपने तरीकों से समझने और समझाने की कोशिश रहे हैं। गठबंधन की शर्तों और परिस्थितियों के आगे स्वाभिमानी और कड़े फैसलों के हिमायती नरेन्द्र मोदी कितना झुकेंगे? वहीं भाजपा के अपने तमाम संगठनों की भी कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दिखने के क्या मायने हैं? ऐसी परिस्थितियों में क्या एन.डी.ए. की नई गठबंधन सरकार कार्यकाल पूरा करेगी क्योंकि देश में मध्यावधि चुनावों की संभावना जैसे सवाल अभी से हवा में तैरने लगे हैं? लेकिन सच यही है कि इस सबके लिए थोड़ा इंतजार करना ही होगा।-ऋतुपर्ण दवे