नेहरू-गांधी परिवार ने ही कांग्रेस को गौरवशाली अतीत से वंचित किया

Sunday, Feb 11, 2018 - 03:24 AM (IST)

2019 में होने वाले आम चुनाव के लिए चुनावी कैलेंडर की समय सारिणी शायद पहले ही तय हो चुकी है। बजट सत्र में और खास तौर पर  राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप पर जिस तरह एक-दूसरे के विरुद्ध कड़वाहट भरी आक्रामकता देखने को मिली, वह ही अब से लेकर लोकसभा चुनाव की तैयारी तक राजनीतिक विमर्श की धारा तय करेगी। वैसे भाजपा और कांग्रेस के बीच बढ़ता टकराव संसद में और संसद के बाहर काम करवाने की सरकार की क्षमता के रास्ते में अवरोधक ही बनेगा लेकिन राजनीतिक रूप में सत्तारूढ़ पार्टी को इसका मुख्य विपक्षी दल की तुलना में अधिक लाभ होगा। 

वैसे यह थाह पाना मुश्किल है कि मोदी को कांग्रेस और मोटे रूप में नेहरू-गांधी परिवार के विरुद्ध विशेष तौर पर चौतरफा हल्ला बोलने के लिए किस बात ने भड़काया। लेकिन इस हर लिहाज से इस अभूतपूर्व आक्रामण के बाद नेहरू-गांधी परिवार अपने बचाव में हाथ-पांव मारता देखा गया। इसके सामने एक बहुत ही सटीक दुविधा आ खड़ी हुई। यदि यह परिवार अपने विरुद्ध चुन-चुन कर लगाए गए आरोपों से इंकार करता तो यह सीधे तौर पर हमलावर के हाथों में खेलने जैसा होता और यदि वह मौन रहता तो विरोधी आक्रामकता की विश्वसनीयता  बढ़ जाती है। यह तो बिल्कुल सटीक बात है कि जो लोग भाजपा और भगवा संगठनों के प्रति जन्मजात नफरत से भरे हुए हैं उनके लिए भी कांग्रेस के प्रथम परिवार की आत्मकेन्द्रत्व का समर्थन करना मुश्किल है क्योंकि इसी परिवार ने कांग्रेस को उसके गौरवशाली अतीत से वंचित किया है। 

प्रधानमंत्री के रूप में मोदी का यह रूप विवाद का विषय हो सकता है लेकिन जिस प्रकार उन्होंने धुआंधार हमला करते हुए हस्तक्षेप किया उससे उनके राजनीतिक दल-बल का मनोबल बहुत ऊंचा हो गया। राजस्थान के उपचुनाव में बुरी तरह धूल चाटने के बाद भाजपा के लोग कुछ हतोत्साहित थे। भाजपा के परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो कांग्रेस पर मोदी का सीधा हमला जरूरी हो गया था। गत कुछ समय से राहुल को जैसे नया रूप दिया जा रहा है और जिस प्रकार मीडिया का सम्पादकीय वर्ग उनकी काफी सहायता कर रहा है उससे कांग्रेस फिर से पुराने दिनों की ओर लौटने के प्रति आश्वस्त होने लगी है। 

महारानियों जैसा व्यवहार करने वाली वसंधुरा राजे को राजस्थान में मिली चुनावी पराजय के मद्देनजर राहुल गांधी की उंगली से बंधे कठपुतलियों जैसे छुटभैये नेताओं को नई दिल्ली के सिंहासन पर शीघ्र ही लौटने के सपने आने लगे हैं। जिस ङ्क्षहदी भाषी पट्टी में व्यावहारिक अर्थों में अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों का सफाया करते हुए 2014 के चुनाव में भाजपा सत्तासीन हुई थी उसी इलाके में उसे पटखनी देने के कारण कांग्रेस को अपने लिए परिस्थितियां खुशगवार दिखाई देने लगी हैं। 

मोदी के आक्रामक भाषण कौशल ने तत्काल दो जलवे दिखाए। पहली बात तो यह कि उन्होंने अपने आलोचकों को यह याद दिला दिया कि वह आसानी से कोने में धकेले जाने वाले या दबाव में आने वाले व्यक्ति नहीं हैं। वह न केवल अपने खेमे की रक्षा करेंगे बल्कि लड़ाई को विरोधी खेमे में ले जाएंगे। यह काम उन्होंने उसी तरीके से किया जिससे वह करना जानते हैं। उनके हमले के आगे विपक्ष की हालत चक्की में पिस रहे अनाज जैसी हो गई और कांग्रेस तो एक तरह से मूर्छा में चली गई। मोदी का दूसरा उद्देश्य था कि कांग्रेस नेतृत्व के चीथड़े उड़ाना। 

इसका उद्देश्य यह भी था कि ममता बनर्जी और शरद पवार जैसे नेताओं द्वारा जिस तरह प्रस्तावित भाजपा विरोधी गठबंधन के लिए राहुल गांधी की दावेदारी का खुलकर विरोध किया जा रहा है उसे और भी धारदार बनाया जाए। संसद में जिस तरह राहुल की बोलती बंद हुई और वह मोदी के भाषण कौशल के सामने लाचार और निहत्थे दिखाई दिए, उसके मद्देनजर उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह सैम पित्रोदा, शशि थरूर इत्यादि जैसों के बावजूद भी मोदी को बराबर की टक्कर देने में सफल होंगे। अभी भी उन्हें अपनी ‘पप्पू’ वाली छवि का कलंक धोने के लिए काफी प्रयास करने होंगे। तोता रटंत ढंग से कुछ जुमले याद करने या अपने कार्यालय के माध्यम से ट्विटर पर व्यंग्य कस लेने मात्र से वह केवल यही सिद्ध कर पा रहे हैं कि उनमें प्रधानमंत्री बनने का कौशल बहुत सीमित है। 

इस परिप्रेक्ष्य में एक बहुत ही सम्मानित बुद्धिजीवी राम चंद्र गुहा का यह रुदन काबिलेगौर है कि राहुल गांधी इस सबसे पुरानी पार्टी के नेता के रूप में स्वीकार्य नहीं हैं, बेशक पार्टी के दरबारी उनका कितना भी यशोगान क्यों न करें। दुर्भाग्य की बात है कि कांग्रेस में कोई भी अकेले दम पर या सामूहिक रूप में बिल्ली के गले में घंटी बांधने की हिम्मत नहीं कर पा रहा और ऐसी स्थिति में 10 जनपथ का हुक्म ही बजाया जा रहा है। कांग्रेस का ‘शाही परिवार’ तो एक स्थायी लक्षण बन चुका है और जो भी नेहरू-गांधी परिवार की सम्पत्ति बन चुकी इस गद्दी को चुनौती देगा उसे शरद पवार जैसे लोगों का ही अनुसरण करते हुए अपना अलग तम्बू गाडऩा पड़ेगा। जहां तक राफेल सौदे में कथित भ्रष्टाचार का राग अलापने की बात है तो राहुल या उनकी मां सोनिया मुश्किल से ही रक्षा सौदों में किसी भ्रष्टाचार के बारे में मुंह खोलने की स्थिति में हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि राफेल सौदे में एक पैसे की भी रिश्वतखोरी नहीं हुई। यह फैसला भी प्रधानमंत्री ने अपने दम पर लिया था-बिल्कुल नोटबंदी की तरह। इस सौदे के बारे में अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि कुछ प्रक्रियाओं को पूरा करने की औपचारिकता शायद न की गई हो। 

एक बात तो उल्लेखनीय है कि राहुल ने राफेल सौदे का शोर उन रिपोर्टों के आने के बाद ही मचाया कि सी.बी.आई. फिर से बोफोर्स मामला खोल सकती है। राहुल का दुर्भाग्य यह है कि वह मोदी के विरुद्ध भ्रष्टाचार का आरोप लगाने में लगभग पंगु हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि राफेल सौदा दो सरकारों के बीच सीधे तौर पर हुआ है और इसमें नेहरू-गांधी परिवार के ‘घनिष्ठ मित्र’ क्वात्रोच्चि जैसा कोई बिचौलिया शामिल नहीं। वैसे यह बात तो कही जा सकती है कि खास-खास मौके पर सुॢखयां बटोरने की दृष्टि से मोदी ऐसी घोषणाएं करते हैं जिनमें लम्बी प्रक्रियाओं को दरकिनार कर दिया जाता है।-वरिन्द्र कपूर

Advertising