‘उपेक्षित’ महसूस कर रहे हैं ‘राजग’ के सहयोगी दल

Friday, Feb 12, 2016 - 12:47 AM (IST)

(कल्याणी शंकर): बहुत फुर्ती से चाल चलते हुए भाजपा ने अपने बिखरे गठबंधन सहयोगियों तक पहुंच बनाई है और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने उन्हें  एहसास दिलाया है कि पार्टी गठबंधन धर्म के रास्ते पर चलने में पूरी रुचि ले रही है। यह ‘डैमेज कंट्रोल’ कवायद इसी सप्ताह शुरू हो रहे संसद के बजट सत्र से पहले की गई और इसने किसी हद तक गठबंधन सहयोगियों को पलोस कर शांत करने में सफलता हासिल की है, क्योंकि वे भाजपा के कथित घमंडपूर्ण व्यवहार से व्यथित थे। 

 
बेशक पार्टी के लिए गठबंधन कोई नई बात नहीं, फिर भी 2014 का राजग 1998 वाले राजग से अलग तरह का है। 2014 में पार्टी पहली बार अकेले दम पर केन्द्र में सत्तारूढ़ हुई थी, लेकिन फिर भी इसने अपने सहयोगियों को अपने साथ जोड़े रखा। हालांकि उनमें से कुछ तो बिल्कुल ही छोटी-छोटी पार्टियां थीं। समय-समय पर लावारिस छोड़ दिए जाने जैसे एहसास की शिकायत गठबंधन सहयोगियों द्वारा किया जाना कोई असामान्य बात नहीं। राजग के साथ ऐसा पहले भी हो चुका है। यहां तक कि प्रदेश स्तरीय गठबंधन में शिवसेना जैसे सहयोगी ‘खुड्डे लाइन’ लगे हुए महसूस करते हैं। यू.पी.ए. को भी अपने कनिष्ठ सहयोगियों के साथ कई समस्याएं दरपेश हैं। 
 
वर्तमान गठबंधन परिदृश्य में भाजपा को 4 प्रमुख सहयोगियों से निपटना पड़ रहा है। ये सहयोगी हैं अकाली दल (पंजाब), शिवसेना (महाराष्ट्र), पी.डी.पी. (जम्मू व कश्मीर) और तेलगूदेशम (आंध्र प्रदेश), पंजाब तथा जम्मू व कश्मीर में भाजपा कनिष्ठ सहयोगी है, जबकि महाराष्ट्र में यह शिवसेना पर हावी हो गई है। 
 
मुफ्ती की मौत के बाद पी.डी.पी. भी सरकार गठित करने के मामले में भाजपा को इंतजार करवा रही है। भाजपा के सभी चारों गठबंधन सहयोगी स्वयं को उपेक्षित एवं खुड्डेलाइन लगे हुए महसूस करते हैं। आखिर कौन-सी बात है, जो उनको  बेगानेपन का एहसास करवा रही है? संसदीय मामलों के मंत्री एम. वैंकेया नायडू द्वारा बजट सत्र से पूर्व बुलाई गई राजग सहयोगियों की मीटिंग ने इस संबंध में स्पष्ट संकेत दे दिया था। जहां पी.डी.पी. इस मीटिंग से आने-बहाने अनुपस्थित रही, वहीं तेदेपा प्रमुख चंद्रबाबू नायडू एवं अकाली दल के अध्यक्ष और पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखबीर बादल सहित अन्य नेता इसमें शामिल हुए। इस मीटिंग का मुख्य उद्देश्य बजट सत्र में विपक्ष के हमलों का सामना करने के लिए सदन में बेहतर तालमेल पैदा करना था।
 
संसदीय रणनीति संबंधी बैठक में राजग सहयोगियों को शामिल किया जाना इस बात का संकेत है कि सरकार को एकजुटता का प्रदर्शन करने के लिए उनके सहयोग की जरूरत है। मोदी के सत्ता में आने सेलेकर अब तक के सत्रों में राजग सहयोगियों के भूमि अधिग्रहण विधेयक सहित कुछ मुद्दों पर अलग स्वर रहे हैं। 
 
भाजपा के सहयोगी आखिर अपनी हैसियत क्यों प्रदॢशत कर रहे हैं? यह भी एक खास परिप्रेक्ष्य का परिणाम है। बिहार की चुनावी पराजय के बाद भाजपा के सहयोगियों की जुबान खोलने की हिम्मत बढ़ गई है। लोकसभा में बेशक भाजपा को उनके समर्थन की जरूरत न हो, लेकिन राज्यसभा में तो इनके बिना गाड़ी नहीं चलेगी। दूसरी बात यह है कि भाजपा के मुख्य सहयोगी अपना जनाधार फैलाने के सीधे प्रयास कर रहे हैं, जबकि भाजपा की खुद की विस्तार योजना बनी हुई है, जिसे केवल इसके सहयोगियों की कीमत पर ही कार्यान्वित किया जा सकता है। 
 
इन सभी पार्टियों में युवा नेता उभर आए हैं, जबकि भाजपा के पास उनसे निपटने के लिए कोई वाजपेयी या अडवानी नहीं हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि भाजपा ने सहयोगियों के साथ कोई व्यक्तिगत संचार चैनल कायम नहीं किया है, जोकि वर्तमान परिस्थितियों में सहायक हो सकता था। 
 
राजग की रणनीति बैठक में कम से कम 3 प्रमुख सहयोगियों-शिवसेना, अकाली दल और तेलगूदेशम ने सुझाव दिया है कि उन्हें महत्वपूर्ण मुद्दों पर विश्वास में लिया जाना चाहिए।  उनकी सबसे प्रमुख शिकायत थी संवाद की कमी और भाजपा द्वारा गठबंधन धर्म का अनुसरण न किया जाना। 
 
अकाली दल नेता सुखबीर बादल ने तो दोटूक ढंग से भाजपा नेतृत्व को सुना दिया था कि भाजपा अब सहयोगियों को अपने घड़े की मछली न समझे। अकाली-भाजपा रिश्ते पतन की ओर अग्रसर हैं। पंजाब में अगले वर्ष चुनाव होने हैं और भाजपा का एक वर्ग एंटी इन-कम्बैंसी की आशंकाओं के कारण अकेले चुनाव लड़े जाने के पक्ष में है। जहां अकाली दल को सिख वोट मिलते हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में इसका दबदबा है, वहीं भाजपा को मुख्यत: शहरीक्षेत्रों में हिन्दू और बणिया वोट मिलते हैं। वित्तीय संकट पर काबू पाने के लिए पंजाब केन्द्र सरकार से विशेष पैकेज की मांग कर रहा है, जिसने इसे स्वीकार नहीं किया है। फिर भी अमित शाह ने सीधी बातचीत के दौरान सुखबीर को भरोसा दिलाया है कि गठबंधन जारी रहेगा। 
 
शिवसेना को बेशक भाजपा के स्वाभाविक सहयोगी के रूप में प्रचारित किया जाता है और वह लंबे समय से इसके साथ है तो भी इसने न केवल सुखबीर बादल की बातों का पूरी तरह समर्थन किया है बल्कि यह कहते हुए भाजपा के दुखों की सूची लंबी कर दी है कि गत 20 माह के दौरान भाजपा की नीति सहयोगियों को सेंध लगाने  की ही रही है। रिपोर्टों के अनुसार शिवसेना संसदीय दल के नेता संजय राऊत ने कहा था, ‘‘कभी-कभी तो हमें यह भी समझ नहीं लगती कि यह सरकार हमारी है कि नहीं।’’ 
 
सेना-भाजपा के रिश्ते केवल राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं बल्कि प्रादेशिक स्तर पर भी खटाई में पड़े हुए हैं। दोनों ही एक-दूसरे को महाराष्ट्र में हाशिए पर धकेलने के प्रयास कर रही हैं और अक्सर दोनों के बीच सार्वजनिक रूप में तू-तू, मैं-मैं भी होती है। 
 
तेलगूदेशम पार्टी के प्रमुख एन. चंद्रबाबू नायडू ने भी इसी स्वर में शिकायतें कीं, लेकिन उन्होंने भाजपा और सहयोगियों के बीच गठबंधन को मजबूत करने जैसी बड़ी-बड़ी बातें कीं। चंद्रबाबू नायडू के लिए बहुत कुछ दाव पर लगा हुआ है क्योंकि उन्हें अमरावती में नई राजधानी का निर्माण करने के लिए भारी-भरकम वित्तीय पैकेज की जरूरत है। 
 
उनकी बातें सुनकर अमित शाह तत्काल हरकत में आ गए और उनका गुस्सा शांत किया। इन नेताओं के साथ अपनी सीधी मीटिंग में शाह ने बहुत तेजी से डैमेज कंट्रोल करने का प्रबंध किया और बेहतर तालमेल का विश्वास दिलाया। 
 
इसका परिणाम यह निकला है कि भाजपा ने विशेष रूप में कुछ तंत्र सृजित करने का फैसला लिया है और सहयोगियों को नीतिगत पेशकदमियों के बारे में विस्तृत नोट्स उपलब्ध करवाए जाएंगे। सहयोगियों को यह भी विश्वास दिलाया गया है कि राजग की बैठकें नियमित अंतराल पर होती रहेंगी। यदि ये सब बातें कार्यान्वित की जाती हैं तो शायद गठबंधन सहयोगियों की कुछ शिकायतें दूर हो जाएंगी। भाजपा के लिए फटाफट मरहम पट्टी जैसे उपाय ही अब पर्याप्त नहीं होंगे। इसे सहयोगियों को अपने साथ रखने के लिए दीर्घकालिक रणनीति बनानी होगी और इस काम को अंजाम देने के लिए हर सहयोगी के साथ व्यक्तिगत स्तर पर आदान-प्रदान का चैनल खोलना होगा। 
 
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