बेरोजगारी दूर करने के लिए ‘स्व:रोजगार’ प्रति जागरूकता फैलाने की जरूरत

Saturday, Feb 10, 2018 - 03:23 AM (IST)

कांग्रेस भी अजीब पार्टी है। उसके नेताओं के मुख से अक्सर ऐसी बातें निकल जाती हैं जो सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में हो जाती हैं। जरा सोचिए, अगर मणिशंकर अय्यर ने 2014 के चुनाव से पहले नरेन्द्र मोदी को कांग्रेस अधिवेशन में चाय का स्टॉल देने की पेशकश नहीं की होती तो क्या कांग्रेस के प्रति मतदाताओं का इतना मोहभंग होता? 

अय्यर की कड़ी में ही अब चिदम्बरम आगे आ गए। उन्होंने मोदी और अमित शाह के पकौड़े प्रेम को भुनाते हुए कह दिया कि अगर पकौड़े बेचना रोजगार है तो भीख मांगना भी रोजगार होना चाहिए। नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस के पक्ष में फिर से उल्टी गंगा बहने लगी। देश भर से पकौड़े बेचने वाले ही नहीं बल्कि इस तरह के अन्य काम-धंधा करने वाले दुकानदार या व्यापारी इसे अपना अपमान समझकर प्रतिक्रिया देने लगे। अपनी तुलना एक भिखारी से करना किसे गवारा हो सकता था। असल में हमारे देश में 2 तरह के लोग बसते हैं। एक तो वे जो मुंह में सोने-चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए हैं और दूसरे वे जो साधारण परिवार में जन्मे हैं, जिन्हें गरीब कहा जाता है। अक्सर यही लोग अपनी मेहनत और दूरदृष्टि के बल पर पहली श्रेणी वालों से आगे निकलने में कामयाब हो जाते हैं। 

उदाहरण के लिए हल्दीराम ब्रांड के हल्दीराम एक बहुत ही साधारण परिवार में जन्मे थे। भुजिया बनाने का पुश्तैनी काम था जिसे पुडिय़ा में भरकर लोगों के घर तक पहुंचाते थे। परिवार के सभी सदस्य इसमें लगे थे। आज हजारों लोगों को इसमें रोजगार मिल रहा है। मसाला बेचने वाले एम.डी.एच. के महाशय जी भी ब्रांड बन चुके हैं। अपने बाबा रामदेव को ही देख लाजिए। उनके पास ही कौन-सी पैतृक धन-दौलत थी लेकिन आज पतंजलि ने दुनिया भर के नामी-गिरामी ब्रांडों की नाक में दम कर रखा है। हम यह बात भूल जाते हैं कि भारत में खेतीबाड़ी को सबसे उत्तम कहा गया है। हम अपने आप को कृषि प्रधान देश भी मानते हैं। इसके बाद अपने व्यवसाय या रोजगार का महत्व है। नौकरी को अधम माना गया है और भीख मांगना तो वर्जित ही है। 

इतिहास क्या कहता है: तथ्य है कि अंग्रेजों को जब भारत के ज्यादातर लोग व्यवसाय करते दिखे और उन्हें अपनी सेवा या नौकरी करने के लिए लोग नहीं मिले तो लॉर्ड मैकाले ने ऐसी बदनाम शिक्षा चलाई कि लोग नौकरी को प्रमुखता देने लगे और वही काबिलियत का पैमाना बन गया। तब से आज तक नौकरी का ही बोलबाला है। नौकरी भी कौन-सी, सरकारी। किसी सरकारी विभाग में चपरासी या क्लर्क की भी नौकरी परिवार की सुख-समृद्धि से लेकर शादी-विवाह तक में अपनी धाक जमा देती है। सरकारी नौकरी होने से विवाह प्रस्तावों की कोई कमी नहीं रहती। चाहे अपना काम-धंधा करने वाला उससे कई गुना अधिक कमाता हो, शादी के बाजार में सरकारी नौकरी करने वालों को ही प्राथमिकता दी जाती है। 

राहुल गांधी भी मोदी जी की आलोचना सिर्फ इसलिए करते हैं कि चुनाव के समय जो उन्होंने नौकरी देने का वायदा किया था वह पूरा नहीं किया। जरा सोचिए, नौकरी करना क्या इतना जरूरी है कि चाय-पकौड़ा बेचने वाला या ऐसा ही कोई काम करने वाला हमारे पूर्व वित्त मंत्री को भीख मांगता नजर आता है। अपना काम करने को न तो छोटा समझना चाहिए और न ही शर्म करनी चाहिए। सामंती मानसिकता, विलासिता का जीवन जीने वाले इसका महत्व क्या समझेंगे? 

नौकरी का विकल्प: भारत की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा हाथ उन लोगों का है जो गली, मोहल्ले, बाजार, हाट, फेरी लगाकर सामान बेचने वाले हैं। साप्ताहिक बाजार या हाट किस दिन लगेगा, इसका इंतजार सभी को रहता है क्योंकि वहां घरेलू उपयोग की चीजें बहुत सस्ते दाम पर मिल जाती हैं। एक और हकीकत समझनी जरूरी है। जो दुकानदार होता है वह अपने यहां काम करने के लिए 2-4 सहायक भी रखता है। ये सहायक दुकानदारी के गुर सीखने के बाद कुछ समय में अपना काम करने के काबिल हो जाते हैं और वे सीधे अपनी दुकान या अड्डा खोल लेते हैं। जरा गौर करिए, जिससे उसने दुकानदारी की कला सीखी वह इस बात का बुरा नहीं मानता कि उसके यहां काम करने वाला नौकर उसका प्रतिद्वंद्वी बन गया है बल्कि जरूरत पडऩे पर व्यापार जमाने में उसकी मदद भी करता है। वह जानता है कि उसकी चलती दुकान में तो कोई न कोई काम करने वाला या सीखने वाला मिल ही जाएगा। उसे गर्व होता है कि उसके यहां काम करने वाला भी एक कारोबारी बन चुका है। 

अब इसकी तुलना उससे करिए जो दफ्तर में परमानैंट नौकरी करता है। उस व्यक्ति को हमेशा डर लगा रहता है कि  यदि उसकी नौकरी चली गई तो उसका और उसके परिवार का क्या होगा? असल में अंग्रेजों से लेकर हमारी सरकारों ने खासकर कांग्रेस सरकार ने नौकरी का लालच देकर हमारे युवाओं की सोच को ही कुंठित कर दिया है। वे यह सोचते रहते हैं कि नौकरी नहीं रही तो क्या होगा, जबकि दुकानदार कभी नहीं सोचता कि यदि उसका माल नहीं बिका तो क्या होगा? वह उसे कम दाम में बेच कर अपनी दुकान में कोई अन्य चीज बेचने लगता है। एक ऐतिहासिक तथ्य और भी है। जब देश का विभाजन हुआ तो जो लोग हमारे देश में आए और हमने जिन्हें शरणार्थी का नाम दिया, उन्होंने बहुत ही छोटे-छोटे काम करके समाज में अपनी जगह बनाई। आज कारोबार के क्षेत्र में उनका सिक्का चलता है। किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया, नौकरी के लिए भीख नहीं मांगी और अपने परिवार का पेट एक भी दिन भूखे नहीं रहने दिया। 

हमारे पिछडऩे का कारण: हमारे देश के साथ आजाद हुए या द्वितीय विश्य युद्ध में बर्बाद हुए देश आज हमसे इसलिए आगे हैं क्योंकि उन्होंने स्वरोजगार को महत्व दिया। चीन, जापान को ले लीजिए। वहां के लोग नौकरी के लिए बाहर जाना तो दूर, अपने ही देश में नौकरी करने को नहीं बल्कि छोटे-छोटे रोजगार खोलने को प्राथमिकता देते हैं। आज उनके उत्पाद पूरे विश्व में छाए हुए हैं और दुनियाभर में टैक्नोलॉजी से लेकर सभी चीजें मुहैया करा रहे हैं। अब जरा यह देखिए कि जो लोग भारत से बाहर नौकरी करने के लिए जाते हैं वे इसलिए क्योंकि वहां अच्छी तनख्वाह मिलती है, सुख-सुविधाएं ज्यादा होती हैं। हमारे देश के युवा वैज्ञानिक और प्रतिभाशाली लोग ज्यादा पैसों के लालच में अमरीका और यूरोप जैसे देशों में नौकरी करने चले जाते हैं।

अब जरा उन्हें नौकरी देने वाले देशों के बारे में सोचिए। क्या उनके यहां नौकरी करने वाले लोग नहीं हैं? हकीकत यह है कि वहां के लोग नौकरी नहीं करना चाहते क्योंकि नौकरी से ज्यादा वे इस बात को समझते हैं कि अगर स्वरोजगार करेंगे तो ज्यादा फायदा होगा। नौकरी के लिए तो वे हमारे जैसे देशों से लोगों को उधार ले ही लेते हैं। यदि भारत से पलायन करने वाले प्रतिभाशाली लोगों को रोकना है तो उन्हें रोजगार देना होगा और जो लोग पलायन कर चुके हैं उन्हें यदि वापस बुलाना है तो उनके लिए स्वरोजगार की व्यवस्था करनी होगी।-पूरन चंद सरीन

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