केंद्र-राज्य संतुलन बहाल करने की जरूरत

punjabkesari.in Thursday, Nov 03, 2022 - 04:20 AM (IST)

हालांकि केंद्र-राज्य संबंध अतीत में विभिन्न मुद्दों पर तनावपूर्ण रहे हैं। अतीत में किसी भी समय को याद करना मुश्किल है जब गैर-भाजपा शासित राज्य सरकारें केंद्र सरकार के बारे में इतनी संदिग्ध रही हैं। यह आंशिक रूप से ‘एक देश, एक सब कुछ’ के लिए सत्ताधारी दल के घोषित उद्देश्य या इस तथ्य के कारण हो सकता है कि मोदी के नेतृत्व वाली सरकार निर्णय लेने को केंद्रीयकृत कर रही है जबकि मुद्दे समवर्ती सूची के दायरे में आते हैं। 

एक संबंधित पहलू यह भी है कि राज्यपाल राज्य सरकारों के कामकाज में दखलअंदाजी करते हैं और विवादास्पद निर्णय लेते हैं। राज्यपालों को अभी तक औपचारिक प्रमुखों के रूप में देखा जाता था जो संविधान की सीमाओं के भीतर काम करने वाली राज्य सरकारों पर नजर रखते थे और खुद को राजनीति से दूर रखते थे। अब ऐसी बात नहीं है। इन दिनों नियुक्तियां जरूरी नहीं कि योग्यता के आधार पर किसी व्यक्ति की हों जिन्हें सार्वजनिक जीवन में लम्बा अनुभव रहा है। अब उनकी एक प्रमुख योग्यता यह है कि उनके पास राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ(आर.एस.एस.) का समर्थन या आशीर्वाद होना चाहिए। यह देश में लगभग सभी संवैधानिक पदों पर नियुक्ति के बारे में भी सत्य है। 

हाल ही में राज्यपालों के राज्य सरकारों के साथ अनबन के कई मामले सामने आए हैं। पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल और देश के वर्तमान उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़  इस तरह के हस्तक्षेप का एक प्रमुख उदाहरण हैं। उन्होंने ममता बनर्जी सरकार द्वारा पारित कई विधेयकों को वापस ले लिया और अक्सर सरकार के आलोचनात्मक संदर्भ वाले बयानों को दिया। विभिन्न कानूनों और नियमों के तहत राज्यपाल सार्वजनिक स्वामित्व वाले विश्वविद्यालयों के औपचारिक कुलपति होते हैं। 

वे मूल रूप से औपचारिक उप- कुलपति नियुक्त करते हैं और दीक्षांत समारोह की अध्यक्षता करते हैं या औपचारिक अधिसूचनाओं की मंजूरी लेते हैं। हालांकि धनखड़ ने विश्वविद्यालयों के कामकाज में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया था और राज्य सरकारों द्वारा अनुमोदित नियुक्तियों पर सवाल उठाए। इससे उनके और मुख्यमंत्री के बीच देश के उप-राष्ट्रपति पद के लिए नामांकित होने तक एक मजबूत गतिरोध पैदा हो गया था। 

पंजाब और कर्नाटक में भी यही मुद्दा सामने आया है। जहां संबंधित राज्यपालों ने उप-कुलपति की नियुक्ति पर आपत्ति जताई है और उन उप-कुलपतियों को हटाने की मांग की है जिन्हें कथित तौर पर नियत प्रक्रिया का पालन किए बिना नियुक्त किया गया था। केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों के कई पहलू हैं जो तेजी से तनाव में आ रहे हैं। जी.एस.टी. परिषद के कामकाज और केंद्र द्वारा उन शक्तियों को छीनने पर मजबूत मतभेद रहे हैं जो पहले निर्विवाद रूप से राज्य द्वारा पास की जाती थी। 

इसमें शक भी बढ़ गया है। कोई आश्चर्य नहीं कि कई राज्यों में मामलों की जांच के लिए इन सरकारों द्वारा सी.बी.आई. को दी गई सामान्य सहमति भी वापस ले ली है। पश्चिम बंगाल, राजस्थान, पंजाब, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मिजोरम जैसे कई राज्यों ने आम सहमति वापस ले ली है। ऐसा करने वाला नवीनतम उदाहरण तेलंगाना का है। इन राज्यों का स्पष्ट रूप से यह मानना है कि सी.बी.आई. सहमति का दुरुपयोग कर रही थी। केंद्र द्वारा लिए गए इस तरह के एक और फैसले की घोषणा केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने की थी, जिन्होंने पिछले सप्ताह यह घोषणा की थी कि राष्ट्रीय जांच एजैंसी (एन.आई.ए.) के देशभर में विभिन्न राज्यों में कार्यालय होंगे, भले ही कानून और व्यवस्था राज्य का विषय हो। 

यह विडम्बना ही है कि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी संविधान की भावना के अनुसार राज्यों के अधिकारों के सबसे मुखर पैरोकारों में से एक थे। वह राज्यों के लिए अधिक से अधिक वित्तीय स्वायतत: के लिए कड़ी मेहनत कर रहे थे। मोदी केंद्रीय योजनाओं के आलोचक थे और योजना आयोग के समक्ष तर्क दे रहे थे कि राज्यों को कठोर, एक आकार सभी के लिए, केंद्र-संचालित एजैंडा में मजबूर करना अनुचित था। यह बात भारत के संघीय ढांचे के खिलाफ थी। यह घोषित किया गया था कि राज्य केवल केंद्र के अधीन नहीं बनना चाहते। 

फिर भी अपनी नीतिगत कार्रवाइयों के माध्यम से सहकारी संघवाद को बढ़ावा देने की बजाय उनकी सरकार ने केंद्र-राज्य संबंधों को केंद्र की ओर मजबूती से झुकाने के लिए दोनों के संबंधों को सावधानी से चलाया है। संविधान ने केंद्र और राज्यों की सूची में एक अच्छा संतुलन प्रदान किया है। जाहिर है कि केंद्र और राज्यों के बीच नाजुक संतुलन बिगड़ रहा है, यह संतुलन बहाल करने का अब समय आ गया है।-विपिन पब्बी


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