पुलिस को राजनीतिक दबाव से मुक्त करने की जरूरत

Tuesday, Jul 31, 2018 - 03:08 AM (IST)

पिछले  सप्ताह ‘पुलिस  सदैव आपके साथ, आपके लिए’ नारा तार-तार हो गया जब कुछ राज्यों में गौरक्षकों ने हिंसा फैलाई। राज्यों में लोगों की पीट-पीटकर हत्या की गई, विधायक और वे व्यक्ति जिन्हें आम आदमी की सुरक्षा का जिम्मा सौंपा वही उसमें सक्रिय भागीदार बन गए और हिंसा करने वालों को संरक्षण देने लग गए। 

प्रश्न उठता है कि यह नेता पुलिस है या जनता की पुलिस है? इस सबकी शुरूआत राजस्थान के अलवर जिले में हुई जहां पर दोपहर रामगढ़ पुलिस को सूचना दी गई कि गायों की तस्करी हो रही है। पुलिस वहां 1.15 बजे पहुंची और पाया कि रकबर कीचड़ में गिरा पड़ा है। उसे अस्पताल पहुंचाया गया जहां उसे मृत घोषित किया गया किन्तु अस्पताल पहुंचाने में उसे 3 घंटे लग गए। पुलिस वाले उसे एक गांव में ले गए जहां पर वे चाय के लिए रुके। फिर पुलिस स्टेशन पहुंचे, रकबर के कपड़े बदले गए और फिर अस्पताल के लिए निकले। आसपास खड़े लोगों ने देखा कि पुलिस वाले उसे पीट रहे हैं और गाली दे रहे हैं। राज्य के गृह मंत्री कहते हैं कि पुलिस हिरासत में उसके साथ मारपीट हुई। मैंने जांच का आदेश दे दिया है। केन्द्रीय मंत्री मेघवाल कहते हैं कि लोगों की पीट-पीटकर हत्याएं मोदी की लोकप्रियता के कारण हो रही हैं। 

केरल में उदय कुमार को इसलिए पीट-पीटकर मार दिया गया कि उसने पुलिस वालों से अपने 4000 रुपए वापस मांगे, जो पुलिस वालों ने उससे 2005 में उस समय ले लिए थे जब उसे गिरफ्तार किया गया था। यह मामला 13 साल तक चला और 2 सिपाहियों को मृत्यु दंड दिया गया। रकबर की पीट-पीटकर हत्या और उदय कुमार की हिरासत में मौत इस बात का प्रमाण हैं कि पुलिस वाले सर्वशक्तिमान बन रहे हैं। जब राज्य लोगों के विरुद्ध हो जाता है या अपराधकत्र्ता है और राज्य के तंत्र जैसे पुलिस को खुली छूट के साथ उनके साथ अत्याचार करने की अनुमति देता है तो राज्य तंत्र विफल हो जाता है। ऐसा वातावरण बन गया है जहां पर पुलिस वाले खून के प्यासे गुंडे बन गए हैं और उन्हें राज्य का भी समर्थन प्राप्त है। इससे पहले पिछले वर्ष अलवर में पहलू खान की भी पीट-पीटकर हत्या की गई थी और सभी 6 आरोपियों को क्लीन चिट मिल गई थी। 

किसी भी मोहल्ला, जिला, शहर या राज्य में चले जाओ, यही स्थिति देखने को मिलती है। छोटे-मोटे अपराध हों या बड़े अपराध, निर्ममता पुलिस का पर्याय बन गई है। यदि किसी महिला के साथ छेड़छाड़ या दुष्कर्म किया जाता है तो इसके लिए उत्तर प्रदेश व बिहार कुख्यात हैं और यदि एफ.आई.आर. भ्रष्ट पुलिस वाले के ही विरुद्ध हो तो फिर भगवान का ही सहारा है। इसकी जांच कौन करेगा? सबूत कैसे जुटाए जाएंगे? उसके सहयोगी उसको बचाने की कोशिश करेंगे जिस कारण शिकायत लेकर मीडिया के पास जाने, उच्च अधिकारियों को लिखने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। 

हमारे राजनेताओं के बारे में कम ही कहा जाए तो अच्छा है। सभी जानते हैं कि क्या हो रहा है। अनेक पुलिस सुधार आयोगों का गठन किया गया है और उन्होंने अपनी 8 रिपोर्टें दी हैं जिन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया है क्योंकि प्रश्न उठता है कि पुलिस पर किसका नियंत्रण हो-राज्य सरकार या किसी स्वतंत्र निकाय का? यह एक दुविधा भरा प्रश्न है जिसके उत्तर की अपेक्षा हमारे राजनेताओं से नहीं की जा सकती है। प्रश्न यह भी उठता है कि क्या पुलिस वालों को उससे अधिक दोष दिया जाता है जितना वे दोषी हैं? क्या मुख्य दोषी राजनेता हैं? सच्चाई इसके बीच की है। दोनों अपने-अपने हितों के लिए काम करते हैं जिस कारण व्यवस्था बिगड़ जाती है। राजनीति के अपराधीकरण ने अपराध और राजनीतिक अपराधियों के राजनीतिकरण का रास्ता साफ  किया जिस कारण हमारी राजनीति व पुलिस व्यवस्था निर्मम और अमानवीय बन गई। 

2005 से 2015 के बीच प्रति लाख व्यक्तियों पर अपराधों में 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि इस अवधि में केन्द्र और राज्य सरकारों के बजट में 3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। राज्य पुलिस बलों में 5.50 लाख और केन्द्रीय पुलिस बलों में 7 प्रतिशत पद रिक्त हैं। उनके पास हथियारों और वाहनों की कमी है। राज्यों द्वारा पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए दिए गए पैसे में से सिर्फ  14 प्रतिशत का उपयोग किया गया है। पुलिस द्वारा 60 प्रतिशत गिरफ्तारियां अनावश्यक या आधारहीन होती हैं। 

पुलिस में 1973 से सुधार करने का प्रयास किया जा रहा है किन्तु राजनीतिक क्षत्रप पुलिस पर नियंत्रण छोडऩा नहीं चाहते हैं और उच्चतम न्यायालय के 2006 के आदेश को लागू करना नहीं चाहते हैं। इस माह के आरंभ में भी उच्चतम न्यायालय ने पुलिस अधिकारियों के बारे में राज्य सरकारों की शक्तियां कम करने का प्रयास किया क्योंकि महत्वहीन पदों पर स्थानांतरण की धमकी, पदावनति और निलंबन आदि के डर कारण अधिकतर पुलिस वाले अपने माई-बाप मंत्री का कहना मानते हैं, विशेषकर चुनाव के समय जब राजनेता चाहते हैं कि उनके गुंडे जेल से छूट जाएं। जो उनके आदेश नहीं मानते उन्हें अपमानित किया जाता है और महत्वहीन पदों पर नियुक्त कर दिया जाता है। 

एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अनुसार पुलिस अधिकारियों द्वारा समझौता अपवाद की बजाय नियमित बन गया है जिसके चलते भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है और जो पुलिस बलों में आम बात हो गई है। हफ्ता और चाय-पानी पुलिस वालों का जन्मसिद्ध अधिकार माना जाता है। हाल ही में दिल्ली पुलिस के एक डी.सी.पी. के पास से करोड़ों रुपए की सम्पत्ति मिली है, जबकि उत्तर प्रदेश में पुलिस महानिदेशक ने खुलासा किया कि नाभा जेल तोड़कर भागने वाले अपराधियों के विषय में चल रही जांच में एक पुलिस महानिरीक्षक भी संदिग्ध है। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के अनुसार उत्तर प्रदेश और बिहार में एक  लाख की जनसंख्या पर क्रमश: 94 और 65 पुलिस कर्मी हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 137 है। 

इसकी तुलना में आस्ट्रेलिया में 217, हांगकांग में 393, मलेशिया में 370, दक्षिण कोरिया में 195, ब्रिटेन में 307 और अमरीका में 256 हैं। यही नहीं, पुलिस कर्मियों को वी.आई.पी. सुरक्षा में भी तैनात किया जाता है और वरिष्ठ पुलिस अधिकारी उन्हें अपने घर के कामों पर भी लगा देते हैं। पुलिस व्यवस्था को प्रभावी बनाए जाने के लिए पुलिस कर्मियों को स्थानीय अपराधियों और अपराधों - हत्या, दुष्कर्म, अपहरण, सेंधमारी, संवेदनशील मुद्दों पर विरोध प्रदर्शन आदि की जानकारी होनी चाहिए इसलिए केवल पुलिस की भर्ती से काम नहीं चलेगा। उनका कौशल उन्नयन भी किया जाना चाहिए, उन्हें प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिए और उनके पास अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी तथा हथियार भी होने चाहिएं। 

पुलिस को जनता की पुलिस बनाने के लिए आमूल-चूल सुधार की आवश्यकता है। उद्देश्य कानून का शासन स्थापित करना होना चाहिए। कानून और व्यवस्था को 2 अलग विभागों में बांटा जाना चाहिए और दोनों के लिए अलग-अलग पुलिस बल होना चाहिए। पुलिस अधिकारियों को दबाव से मुक्त किया जाना चाहिए और उनकी तैनाती, स्थानांतरण, कार्यकाल आदि के बारे में पारदॢशता बरती जानी चाहिए। कानून और व्यवस्था को जांच से अलग किया जाना चाहिए तथा पुलिस कर्मियों द्वारा शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के लिए पुलिस शिकायत निवारण प्राधिकरण का गठन किया जाना चाहिए। साथ ही नेताओं को पुलिस के कार्यों में हस्तक्षेप करने से बचना चाहिए।-पूनम आई. कौशिश

Pardeep

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