समय के साथ बदलने की जरूरत

punjabkesari.in Friday, Nov 11, 2022 - 04:33 AM (IST)

1961 में आई फिल्म ‘हम हिंदुस्तानी’ का मशहूर गाना ‘छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी’  हमें समय के साथ बदलने की सलाह देता है। टाइपराइटर से कम्प्यूटर तक के लंबे सफर में हम न जाने कितने बदल गए, लेकिन कुछ पुरानी बातों और आदतों को बदलना शायद भूल गए। यदि इन आदतों को भी बदला जाए तो निश्चित ही हम समय के साथ चल सकेंगे। 

दीपावली से पहले लखनऊ में एक ऐसा दृश्य देखने को मिला, जिसे देख कर तथाकथित सभ्य लोगों के असंवेदनशील व्यवहार का पता चलता है। घटना लखनऊ के पत्रकारपुरम की है, जहां एक महिला डाक्टर गरीब कुम्हारों द्वारा लगाई गई दुकान में मिट्टी के दीयों और अन्य सजावट के सामान को बेरहमी से डंडे से तोड़ रही थी। इस बर्बरता का कारण सिर्फ इतना था कि ये सभी दुकानें उस महिला के आलीशान घर के ठीक सामने लगी थीं। 

ऐसा नहीं है कि त्यौहारों के समय ऐसी अस्थायी दुकानें या बाजार पहले उसी जगह नहीं लगते थे। तो उस दिन अचानक इस महिला के गुस्से का बांध क्यों टूटा? तमाम सोशल मीडिया पर इस महिला डाक्टर की क्रूरता को देखा गया और लगभग सभी की संवेदनाएं उन गरीब कुम्हारों के प्रति ही थीं, जिनका नुक्सान हुआ। 

सवाल उठता है कि जब बरसों से उस सड़क पर या देश के किसी अन्य शहर की सड़क पर त्यौहारों के समय ऐसे बाजार और दुकानें लगती आई हैं, तो उस दिन ऐसा क्यों हुआ? क्या उस मोहल्ले के लोग वहां से सामान नहीं खरीदते? क्या वहां के प्रशासन को इस बात का नहीं पता कि त्यौहारों के समय सड़क पर ऐसे बाजार लगाए जाते हैं? 

सोचने वाली बात यह है कि जब सभी को पता है तो ऐसे बाजारों का विरोध क्यों? यदि ऐसे बाजार या हमारे मोहल्लों में लगने वाले साप्ताहिक बाजार गैर-कानूनी हैं तो इन्हें लगने क्यों दिया जाता है? यदि ऐसे बाजार प्रशासन द्वारा अनुमति प्रदान किए जाने के बाद ही लगते हैं तो इन्हें अनुमति देने वाले अधिकारी क्या इस बात पर ध्यान देते हैं कि इन बाजारों के लगने से वहां रहने वाले लोगों को किसी प्रकार की असुविधा तो नहीं होगी? चाहे वह समस्या कानून-व्यवस्था की हो या ट्रैफिक की। 

अक्सर देखा गया है कि जब भी ऐसे बाजार लगते हैं, तो वहां रहने वाले लोग भले ही वहां जाकर सामान जरूर खरीदते हैं लेकिन इन बाजारों का विरोध भी करते हैं। आमतौर पर साप्ताहिक बाजार हर उस इलाके में उस दिन लगते हैं जहां पर स्थानीय बाजारों की साप्ताहिक छुट्टी होती है। उसी हिसाब से उस बाजार का नाम भी पड़ता है, जैसे सोम-बाजार, बुध-बाजार या शनि-बाजार आदि। बरसों से हर शहर में ऐसे बाजार लगाने वाले किसी न किसी दिन नए मोहल्ले में निर्धारित स्थानों पर अपनी दुकान लगाते आए हैं। कई जगह तो ऐसे बाजार लोगों के घरों के बाहर लगा करते थे। 

ग्रामीण इलाकों में लगने वाले ऐसे बाजारों को ‘हाट’ के नाम से जाना जाता है, जहां आस-पास के गांव वाले अपने खेतों की सब्जियां या अनाज और कुटीर उद्योग में बने सामान आदि बेचा करते हैं। इस बिक्री से मिले पैसों से वे लोग उसी हाट से कपड़े, अनाज और अपने घर की अन्य जरूरत का सामान खरीद कर अपने गांव की ओर लौट जाते हैं। ग्रामीण इलाकों में ऐसा सदियों से होता आ रहा है। ग्रामीण और शहरी इलाकों में लगने वाले बाजारों में बस इतना फर्क है कि ग्रामीण बाजार हमेशा किसी खाली मैदान में लगते हैं और शहरी बाजार रिहायशी इलाकों में। ग्रामीण इलाकों में आज भी यह बाजार बिना किसी विरोध के लगते हैं। इन बाजारों के लगने से समस्या केवल शहरी इलाकों में ही है। 

शहरों में आधुनिकीकरण के नाम पर जिस तरह ज्यादातर सामान आपको घर बैठे ही उपलब्ध हो जाता है, इन बाजारों का औचित्य समाप्त होता जा रहा है। पर आम लोगों के लिए और पॉश इलाकों में काम करने वाले घरेलू सेवकों के लिए इनका आज भी खूब महत्व है। वहीं 2 सालों तक कोविड जैसी महामारी ने तो लोगों के घर से निकलने पर पाबंदी ही लगा डाली थी। ऐसे में इन बाजारों का होना न होना बराबर हो गया था। परंतु हमारे बचपन में जब ये साप्ताहिक बाजार लगते थे, तब शहरी इलाकों में आबादी भी कम थी और सड़क पर वाहन भी गिने-चुने होते थे। इसलिए इन बाजारों से सभी को आराम था। लेकिन जैसे-जैसे आबादी बढ़ी वैसे ही वाहनों और मकानों की संख्या भी बढ़ी। इसके चलते इन बाजार लगाने वालों को भी समझौता करना पड़ा। बाजारों में दुकानें भी कम होने लगीं और ग्राहक भी। 

विकास के नाम पर शहरों में प्रशासन द्वारा नई-नई कालोनियां बसाई जाने लगीं। वहां बड़े-बड़े टावर या आलीशान बंगले बनने लगे। जब तक इन कालोनियों में बसावट नहीं थी तब तक इन बाजारों का फायदा उस इलाके में रहने वाले पुराने लोगों को होने लगा। इसलिए किसी को भी इनसे दिक्कत नहीं थी। ज्यों-ज्यों बसावट बढ़ी, त्यों-त्यों वहां ऐसे लोग भी आए जिन्होंने इन बाजारों के खिलाफ प्रशासन में शिकायत भी की और कुछ तो कोर्ट में भी गए, लेकिन समस्या का कोई स्थायी समाधान नहीं निकल पाया। यदि दोनों पक्ष अपनी बात पर अड़े रहेंगे तो समझौता कैसे होगा? दोनों पक्षों को थोड़ा धैर्य रखने और व्यावहारिक समझ की आवश्यकता है। 

इसके साथ ही प्रशासन को भी इस बात का हल निकालना चाहिए कि यदि ऐसे बाजारों से किसी को आपत्ति है तो इनको किसी ऐसी जगह पर पुन: स्थापित किया जाए जहां सभी को सहूलियत हो। ऐसे बाजार इलाके के खाली मैदानों में लगें या उन स्थानों पर, जहां पुलिस विभाग को कानून और ट्रैफिक व्यवस्था बनाए रखने में भी आसानी हो। ऐसे बदलावों से ही इस समस्या का समाधान निकलेगा। यदि ऐसे बदलाव किए जाते हैं तो कभी भी किसी सभ्य व्यक्ति का गरीबों के प्रति ऐसा गुस्सा नहीं फूटेगा, जैसा लखनऊ में हुआ, जो कि काफी ङ्क्षनदनीय है। समय के साथ हम सभी को बदलने की जरूरत है केवल एक तबके के लोगों को नहीं।-रजनीश कपूर 
 


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