बार-बार होने वाले चुनावों से मुक्ति आवश्यक

Wednesday, Jun 15, 2022 - 04:37 AM (IST)

एक ओर जहां देश गर्मी से त्रस्त है, तो दूसरी ओर फिर से चुनाव सिर पर आ गए हैं, विशेषकर हमारे देश में, जो निरंतर चुनावों की बीमारी से ग्रस्त है। इन चुनावों में फिजूलखर्ची, शोर-शराबापूूर्ण चुनाव प्रचार, चुनावी रैलियों के कारण सड़कों पर बाधाएं और हमारे जीवन को अस्त-व्यस्त किया जाता है और शासन व्यवस्था भी अस्त व्यस्त हो जाती है क्योंकि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री अपनी-अपनी पार्टियों के लिए चुनाव प्रचार में व्यस्त रहते हैं। सप्ताह दर सप्ताह, माह दर माह और वर्ष दर वर्ष ऐसा चलता रहता है। 

6 राज्यों में राज्यसभा के चुनावों की मारामारी समाप्त भी नहीं हुई थी कि अब राजनीतिक दल राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति पद के लिए जुलाई-अगस्त में होने वाले चुनावों की तैयारी में व्यस्त हो गए हैं।  इसके बाद अक्तूबर-नवम्बर में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में और फिर अगले वर्ष 9 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। 

मेघालय, नागालैंड और त्रिपुरा में मार्च में, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम में नवम्बर में, राजस्थान और तेलंगाना में दिसम्बर 2023 में चुनाव होने हैं। 2024 में मई में लोकसभा चुनावों के साथ-साथ आंध्र प्रदेश, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम विधानसभा तथा अक्तूबर में महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में विधानसभा चुनाव होंगे। फरवरी 2025 में दिल्ली विधानसभा और नवम्बर-दिसम्बर में बिहार विधानसभा के लिए चुनाव होंगे। 

देश में राज्य दर राज्य हर वर्ष चुनाव होते हैं जिसके चलते केंद्र और राज्य सरकारें चलाना चुनौतीपूर्ण बन गया है। इन चुनावों में भारी धनराशि खर्च होती है और भारत की निरंतर चुनावों की इस बीमारी का एकमात्र इलाज शायद प्रत्येक 5 वर्ष में एक बड़ा चुनाव करवाना है। नि:संदेह चुनाव अक्षम और उदासीन सरकार से मुक्ति पाने का एक उपाय है। 

एक राष्ट्र, एक चुनाव के विचार पर सभी स्तरों पर गहनता से विचार किया जाना चाहिए। अंतिम निर्णय पर पहुंचने से पूर्व इसके लाभ हानि पर विचार किया जाना चाहिए क्योंकि बदलाव के लिए संविधान के बुनियादी ढांचे में संशोधन करना होगा। प्रश्न उठता है कि क्या संसद, राज्य विधानमंडल और पंचायतों के लिए एक साथ चुनाव करवाए जा सकते हैं और यदि हां तो क्या यह सर्वोत्तम राष्ट्रीय हित में होगा। 

भाजपा संसद, राज्य विधानमंडलों और पंचायतों के लिए एक साथ चुनाव का समर्थन करती है, जबकि कांग्रेस, वामपंथी दल और तृणमूल का मानना है कि यह अव्यावहारिक और लोकतंत्र विरोधी है। इस विचार के पक्षधर लोगों का मानना है कि यदि एक बार कोई पार्टी चुनावों में विजयी होती है और सरकार बनाती है तो वह जनहित में कठोर निर्णय ले सकती है और अपने वोट बैंक की ङ्क्षचता किए बिना सुशासन प्रदान करने पर ध्यान केन्द्रित कर सकती है। 

संसद और राज्य विधानमंडलों तथा पंचायतों के एक साथ चुनाव कराने का एक बड़ा लाभ पैसों की बचत भी है क्योंकि गत वर्षों में चुनावों की लागत आसमान छूने लगी है। आंकड़े सब कुछ स्पष्ट कर देते हैं। वर्ष 1952 में लोकसभा और विधानसभाओं के पहले चुनावों पर मात्र 10 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। 1957 और 1962 के चुनावों में यह लागत कम होकर कमश: 6 करोड़ और 7.5 करोड़ रह गई थी। एक साथ चुनाव करवाने के बाद भी यदि कोई राज्य सरकार गिर जाती है तो केन्द्र उस राज्य में नए चुनाव होने तक राष्ट्रपति शासन लगा सकता है। 

प्रधानमंत्री मोदी वर्ष 2016 से इस विचार को आगे बढ़ा रहे हैं। इससे न केवल नेताओं और पार्टी कार्यकत्र्ताओं को जनोन्मुखी योजनाओं को जनता तक पहुंचाने का समय मिलेगा, अपितु इससे राजकोष और पार्टियों के कोष की बचत भी होगी। अगस्त 2018 में इस विचार को विधि आयोग ने भी समर्थन दिया था क्योंकि इससे प्रशासनिक मशीनरी पर बोझ कम होगा, जो चुनावों पर ध्यान केन्द्रित करने की बजाय विकास कार्यों पर ध्यान केन्द्रित करेगी साथ ही सुरक्षा बलों का बोझ भी कम करेगी। इसके अलावा यदि किसी वर्ष में लोकसभा और किन्हीं राज्यों के चुनाव होने हैं तो उन्हें आगे-पीछे कर एक साथ कराया जा सकता है। वर्ष 1952, 1957, 1962 और 1967 में संसद और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे। 

वर्ष 1971 में जब इंदिरा गांधी ने लोकसभा को भंग किया और उसके चुनाव एक वर्ष पहले कराए तो यह क्रम टूट गया। इसके चलते केन्द्र और राज्यों में अनेक अस्थिर सरकारें बनीं फलत: लोकसभा या विधानसभाओं को भंग करना पड़ा। चुनाव व्यय में निरंतर वृद्धि होती रही है। 1980 में इसकी लागत 23 करोड़, 1984 में 54 करोड़, 1989 में 154 करोड़ तक पहुंची। 1991 में यह लागत 359 करोड़, 1999 में 880 करोड़, 2004 में 1300 करोड़ और 2014 के लोकसभा चुनावों में 4500 करोड़ तक पहुंची। हालांकि सैंटर फॉर मीडिया स्टडीज का कहना है कि यह लागत वास्तव में 30,000 करोड़ से अधिक थी और वर्ष 2019 में उसके अनुसार यह लागत 60,000 करोड़ तक पहुंची। 

तथापि कुछ लोगों का मानना है कि संसद और राज्य विधान मंडलों का चुनाव एक साथ कराना उचित नहीं है क्योंकि इसके राजनीतिक कारण हो सकते हैं। जब दोनों के एक साथ चुनाव कराए जाते हैं तो मतदाता एक ही पार्टी को वोट देते हैं। इसके अलावा केन्द्र और राज्यों में चुनावी मुद्दे अलग-अलग होते हैं। किसी पार्टी का राष्ट्रीय स्तर पर उसकी नीतियों और कार्य प्रदर्शन के कारण केन्द्र में सत्ता में पहुंचना उचित होता है, किंतु उसी पार्टी को राज्य स्तर पर मतदाता दंडित करना भी चाहते हैं। 

इसके अलावा लोकसभा और राज्य विधानमंडलों का एक निश्चित कार्यकाल संसदीय लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के विरुद्ध भी है। माना यदि जनादेश प्राप्त कोई सरकार अल्पमत में आ जाती है तो या तो वह सत्ता में बनी रहेगी या उसके स्थान पर नई सरकार बनेगी, जिसे जरूरी नहीं कि जनादेश प्राप्त हो। अर्थात ऐसी सरकार लोगों पर थोपी जाएगी, जिसे सदन का विश्वास प्राप्त न हो। 

कुछ लोगों का सुझाव है कि हमारे देश में चुनाव स्वीडन, दक्षिण अफ्रीका और बैल्जियम के मॉडल पर कराए जा सकते हैं। स्वीडन में राष्ट्रीय चुनाव और नगर परिषदों के चुनाव एक साथ प्रत्येक 4 वर्ष के अंतराल पर होते हैं। दक्षिण अफ्रीका में प्रत्येक 5  वर्ष पर सभी चुनाव एक साथ होते हैं। बैल्जियम में संघीय संसद के चुनाव प्रत्येक 5 वर्ष के बाद यूरोपीय संसद के चुनावों के साथ कराए जाते हैं। इसी तरह की प्रणाली स्पेन, हंगरी, पोलैंड, स्लोवेनिया, ग्वाटेमाला, इंडोनेशिया, इसराईल, बोलीविया, अल्बानिया, लेसोथो, फिलीपींस, कोस्टारिका आदि में भी अपनाई गई है। 

हम अमरीकी मॉडल पर भी विचार कर सकते हैं जहां पर राष्ट्रपति और राज्यों के गवर्नर को 4 वर्ष के निर्धारित अंतराल में एक साथ चुना जाता है और वे अपनी अपनी टीम चुनते हैं। राष्ट्रपति प्रतिनिधि सभा और सीनेट के प्रति उत्तरदायी होता है किंतु उसे उनका विश्वास मत प्राप्त करना नहीं होता। इससे सुशासन, स्थिरता और निरंतरता बनी रहती है जिसके चलते वह सत्ता को खोने के डर के बिना कठोर निर्णय ले सकता है। 

कुल मिलाकर चुनाव हमारे लोकतंत्र की आधारशिला है, किंतु हमें बार-बार चुनावों से बचना चाहिए। राज्यों में प्रति वर्ष चुनाव होते रहते हैं, इसलिए शासन चलाना कठिन हो जाता है। भारत के लोकतंत्र को हर समय राजनीतिक दलों के बीच तू-तू, मैं-मैं नहीं बदला जाना चाहिए।-पूनम आई. कौशिश
 

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