हिंदी फिल्मों में प्रकृति चित्रण

punjabkesari.in Wednesday, Mar 31, 2021 - 04:12 AM (IST)

प्रकृति और मनुष्य में गहरा रिश्ता है। प्रकृति और मनुष्य का यह नाता अनादि है, अमर है। मनुष्य ने जो कुछ सीखा प्रकृति से सीखा। चलती हवा ने उसे मस्ती सिखाई। बहते झरनों और नदियों की रवानी ने मनुष्य को गाना सिखाया। बादलों की गरज में उसे संगीत मिला। खिलते फूलों से मनुष्य ने मुस्कुराना सीखा। वनस्पतियों से उसे शीतलता का आभास हुआ। याद रखिए जहां वनस्पति  है, वृक्ष हैं, हरियाली है वहां का मनुष्य रागात्मक होगा अर्थात उसमें प्रेम होगा। जहां मरुस्थल होगा, रेत ही रेत होगी, वृक्ष नहीं होंगे वहां का मनुष्य निर्दयी होगा। जिनकी परवरिश मरुस्थलों, रेत में हुई उनमें मारूपन ज्यादा है। उनमें प्रेम नहीं सिर्फ मारकाट है, भगदड़ है। 

प्रकृति गुरु है। इसी प्रकृति ने मनुष्य को सिखाया कि पतझड़़ जीवन का अंत नहीं अपितु नए जीवन का प्रारंभ है। फलों से लदे वृक्षों से मनुष्य ने सीखा है कि सत्ता और बड़ापन आने पर उसे कैसे विनम्र रहना है। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण ने न्यूटन को महान वैज्ञानिक बना दिया तो फिर यह प्रकृति है क्या? 

दुनिया में जो कुछ मानवेत्तर है वह प्रकृति है। अर्थात नदी-नाले, पर्वत, निर्झर, वन-उपवन, चंद्रमा-सूर्य, प्रात:-सायं, हवा-पानी, प्रकाश, ऋतुएं सब प्रकृति है। सारी नैर्गसिक छटा प्रकृति है। और सरल कर देता हूं हर वह चीज जिसे मनुष्य ने नहीं बनाया, मनुष्य के हाथों  ने जिसे नहीं संवारा, नहीं सजाया वह प्रकृति है। जो स्वयं मनुष्य को आनंदित या भयभीत करे वह प्रकृति है। इसका अवलोकन रसास्वादन, श्रवण, सुवास, ग्रहण और स्पर्श मनुष्य को अपने आप होता है। 

प्रकृति एक विशाल अनुभूति है, ईश्वर है। अथर्ववेद में प्रकृति से मनुष्य ने एक शपथ ली, ‘हे धरती मां! जो कुछ भी तुम से लूंगा, वह उतना ही होगा जितना तू पुन: पैदा कर सके। मैं तेरे मर्मस्थल या तेरी जीवनशक्ति पर कभी प्रहार नहीं करूंगा।’ मानव ने प्रकृति से की हुई अपनी प्रतिज्ञा भंग कर दी अत: मां के क्रोध से कभी भूकंप, कभी सूखा, कभी बाढ़, कभी सैलाब, कभी तूफान, कभी सुनामी आती रहेगी। प्रकृति कभी किसी से भेदभाव नहीं करती। 

विश्व में जो भी शुभ हुआ वह प्रकृति द्वारा ही हुआ। जितना भी साहित्य, काव्य, नाट्य, वेद-पुराण, उपनिषद् या महाकाव्य रचे गए वह केवल और केवल प्रकृति के सान्निध्य में रचे गए। प्रकृति कुपित हो जाए तो फिर विध्वंस ही विध्वंस है। प्रकृति का क्षेत्र ही प्रेम है और प्रेम में ही सृजन है। प्रकृति मानव को उठाती है, उसे सहारा देती है। प्रकृति मनुष्य की भावाभिव्यक्ति है। मन प्रसन्न तो फूल आनंद देंगे, मन बुझा हुआ  तो प्रकृति रोती दिखाई देगी। 

आज भी जब मेरा मन उदास होता है तो खेतों की ओर भाग जाता हूं, वृक्षों से लिपट शांत हो जाता हूं। कभी-कभार बातों में जोर-जोर से रो लेता हूं। ‘नेचर हैज ए सूदिंग-इफैक्ट अपॉन ए मैन।’ इसी कारण भारतीय सिनेमा ने फिल्मी निर्देशकों, निर्माताओं, नायक-नायिकाओं और गीतकारों ने हिंदी फिल्मों में प्रकृति को थोड़ा-बहुत स्थान अवश्य दिया है। पर्वतों, झरनों, नदियों, हवाओं, वृक्षों, वादियों, जंगलों में फिल्मों को फिल्माया गया है। कई-कई तो फिल्मों का नाम भी प्रकृति के नाम पर ही रखा गया है। विशेषकर हिंदी फिल्मों में बरखा और वह भी रिमझिम बारिश को जोरदार तरीके से फिल्माया गया है। पहाड़ों की वादियों में शूटिंग करना आम बात है। नायिका को नदी में स्नान करते तो प्राय: सिने दर्शकों ने देखा है। नासिर हुसैन तो ऐसे निर्माता थे कि उनकी फिल्म में हर वृक्ष पर एक न एक लड़की चहकती-कूकती दिखाई देती थी। 

उनकी हर फिल्म में नायक वृक्षों के बीच नायिका के पीछे गाता-बजाता नजर आता। देवानंद, शम्मी कपूर और जॉय मुखर्जी तो वृक्षों, पहाड़ों पर कूदते, भागते या फुदकते रहते। राज कपूर की हर नायिका दर्शकों को नदी में नहाती नजर आएगी। बताऊं आपको? ‘जिस देश में गंगा बहती है’ फिल्म में नायिका पद्मनी नदी में नहाती हुई कह रही है, ‘होये-होये-होये’ पद्मनी के गदराये शरीर को राजकपूर ने इस फिल्म में खूब दिखाया था। 

उन्हीं की फिल्म ‘संगम’ में वैजयंती माला को नदी में नहाते, और राजकपूर का गाना तो आपको याद होगा न? ‘बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं?’ फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ में राजकपूर ने नायिका मंदाकिनी का झरने पर नहाती हुई का सीन दिखाकर दर्शकों के मनों में सिहरन पैदा कर दी। यही हाल फिल्म ‘सत्यम, शिवम सुंदरम’ में झरने में मादकता बिखेरती नायिका जीनत अमान के साथ हुआ। फिल्म ‘मधुमती’ में दिलीप कुमार पर फिल्माए गीत में प्रकृति की अनुपम छटा देखिए, ‘यह कौन हंसता है फूलों मेंं छुप कर, बहार बेचैन है किसकी धुन पर’ प्रकृति में साक्षात भगवान के दर्शन हैं। 

गीत ही नहीं प्रकृति का सहारा लेकर कई फिल्मों के नाम भी आप याद रखते होंगे? ‘प्यार का सागर’, ‘धरती कहे पुकार के’, ‘झील के उस पार’, ‘मिट्टी और सोना’, ‘धूल का फूल’, ‘आए दिन बहार के’, ‘सावन-भादों’, ‘बैजू बावरा’, ‘बंदिनी’, ‘गाइड’, ‘शोर’, ‘मदर इंडिया’ इत्यादि फिल्में ले देकर प्रकृति के किसी न किसी रूप को सिने दर्शकों के सामने पेश करती आई हैं। प्रकृति और फिल्मी दुनिया का भी अटूट रिश्ता है। पर स्थानाभाव के कारण आज इतना ही।-मा. मोहन लाल(पूर्व परिवहन मंत्री, पंजाब)


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