1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने अच्छे की बजाय ‘नुक्सान’ अधिक किया

punjabkesari.in Friday, Jul 19, 2019 - 12:50 AM (IST)

भारतीय वित्तीय क्षेत्र में 50 वर्ष पूर्व इसी सप्ताह एक रचनात्मक बदलाव आया जब इंदिरा गांधी सरकार ने 20 जुलाई 1969 को 14 सबसे बड़े वाणिज्यिक उधारदाताओं का राष्ट्रीयकरण किया था। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के आधिकारिक इतिहास का दूसरा खंड बताता है कि 1947 के बाद किसी भी सरकार द्वारा लिया गया यह एकमात्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण आर्थिक नीति निर्णय था। केन्द्रीय बैंक के इतिहासकारों का कहना है कि इसके प्रभाव की तुलना में 1991 के आॢथक सुधार भी फीके पड़ गए थे। 

यह ऐतिहासिक निर्णय एक संकटपूर्ण दशक के अंत में आया। भारत आॢथक के साथ-साथ राजनीतिक आघातों से भी प्रभावित था। इसने दो युद्ध झेले थे, 1962 में चीन तथा 1965 में पाकिस्तान के साथ, जिससे सार्वजनिक वित्त पर भारी दबाव पड़ा। लगातार दो वर्षों के सूखे ने न केवल भोजन की कमी कर दी बल्कि भूख को दूर करने के लिए अमरीकी खाद्य शिपमैंट्स पर निर्भरता के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा से भी समझौता किया। तीन वर्षीय योजना छुट्टी के माध्यम से वित्तीय खर्चों में कमी ने कुल मांग को नुक्सान पहुंचाया क्योंकि सार्वजनिक निवेश में बहुत कमी आ गई थी। 

रुपए का अवमूल्यन
1966 में रुपए का अवमूल्यन एक आर्थिक सफलता थी लेकिन उसने राजनीतिक गुस्से को भी पैदा किया। कांग्रेस पार्टी पहले ही 1967 के चुनावों में चुनावी झटका झेल चुकी थी। यह विघटन की ओर बढ़ रही थी। नक्सलियों की ताकत बढ़ रही थी। यद्यपि अवमूल्यन ने भुगतान संतुलन में सुधार में मदद की जबकि हरित क्रांति ने खाद्य बाध्यताओं में नरमी लानी शुरू कर दी थी। भारत एक चौराहे पर खड़ा था। एशिया में कई अन्य देशों ने अधिक आगामी वर्षों में बाजार उन्मुख नीतियों का रुख किया, यहां तक कि सकल औद्योगिक नीति ढांचे के भीतर। अगले दो दशकों के दौरान उनकी विकास दर में तेजी आई। भारत में लाल बहादुर शास्त्री के छोटे से कार्यकाल के दौरान उस दिशा में कुछ प्रयोगात्मक कदम बढ़ाए गए। हालांकि वामदलों के समर्थन से इंदिरा गांधी दूसरे रास्ते पर चली गईं। बैंकों का राष्ट्रीयकरण उस समय की आर्थिक तथा राजनीतिक चुनौतियों के प्रति उनकी प्रतिक्रियाओं में से एक था। 

जमा, ऋण तथा ब्याज दरें
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के प्रभाव बारे तीन मुख्य क्षेत्रों के संदर्भ में सोचा जा सकता है: जमा, ऋण तथा ब्याज दरें। बैंकों के राष्ट्रीयकरण का एक सकारात्मक प्रभाव यह था कि वित्तीय बजट में तेजी आई क्योंकि ऋणदाताओं ने उन क्षेत्रों में नई शाखाएं खोल दीं, जो अभी तक अछूते थे। 1970 के दशक में राष्ट्रीय आय के प्रतिशत के तौर पर सकल घरेलू बचत लगभग दोगुनी हो गई। इसका एक बड़ा हिस्सा खुद सरकार द्वारा वैधानिक तरलता अनुपात में वृद्धि के माध्यम से चूस लिया गया था। पी.एन. धर ने अपने संस्मरण में लिखा है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पूर्व वी.के. कृष्णा मेनन ने शीर्ष अधिकारियों के साथ एक निजी बैठक में चौंकाने वाला दावा किया था कि एक बार बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के बाद सरकार को धन जुटाने की चिंता नहीं करनी पड़ेगी। 

बैंकों को उन क्षेत्रों में धन लगाने को कहा गया था जिन्हें सरकार विकास के लिए लक्ष्य बनाना चाहती थी। इंदिरा गांधी ने 29 जुलाई, 1969 को लोकसभा को बताया था कि ‘राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य कृषि, छोटे उद्योगों तथा निर्यात में तेज वृद्धि को बढ़ावा देना, नए उद्यमियों को प्रोत्साहित करना तथा सभी पिछड़े क्षेत्रों को विकसित करना है।’ यह एक समग्र राजनीतिक रणनीति का हिस्सा था ताकि उन बड़े व्यावसायिक घरानों को निचोड़ा जा सके जिन्होंने उनके विरोधियों का समर्थन किया था और साथ ही एक नया राजनीतिक आधार बनाया जा सके। 

क्रैडिट प्लानिंग का अर्थ यह भी था कि ब्याज दर संरचना उल्लेखनीय रूप से पेचीदा बन गई थी। विभिन्न तरह के ऋणों के लिए ब्याज की अलग-अलग दरें थीं। भारतीय केन्द्रीय बैंक ने अंतत: सैंकड़ों ब्याज दरों का प्रबंधन किया। यह दिमाग चकरा देने वाली व्यवस्था केवल 1991 के सुधारों के बाद लाई गई, जिसमें केन्द्रीय बैंक ने महत्वपूर्ण रेपो दर का प्रबंधन किया, जबकि वाणिज्यिक ऋणों की दरों बारे निर्णय खुद बैंकों ने लेना था। 

राजनीतिक अर्थव्यवस्था
इसके बाद की राजनीतिक अर्थव्यवस्था विकृत थी। इंदिरा गांधी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण पर लोकसभा में एक चर्चा में कहा था कि ‘इन सभी बैंकों को चलाने के लिए हमारा इरादा एक अखंड एजैंसी स्थापित करने का नहीं है। जहां हमें आवश्यक तौर पर केन्द्र में मशीनरी को मजबूत बनाना है, वहीं प्रत्येक बैंक के लिए स्वायत्तता होगी और बोडर््स के पास अच्छी तरह से परिभाषित शक्तियां होंगी। हम निर्देश देंगे लेकिन वे नीति तथा सामान्य मुद्दों पर होंगे न कि विशेष समूहों को खास तरह के ऋणों पर। हम अत्यधिक दखलअंदाजी के खतरों के बारे में सतर्क रहेंगे, चाहे ये राजनीतिक अथवा अन्य बाध्यताओं से प्रेरित हों।’ 

यह अनुमान लगाने के लिए कोई ईनाम नहीं है कि वह वायदा कितने लम्बे समय तक रहा। प्रसिद्ध आर.के. तलवाड़ ने राजनीतिक दबाव में झुकने की बजाय 1976 में भारतीय स्टेट बैंक के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। 1991 के सुधारों के बाद भी बैंकों के ऋण देने पर राजनीतिक नियंत्रण रहा और 2012 के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था पर खराब ऋणों के बोझ को उस ऋण बुलबुले द्वारा समझाया गया है, जो नई दिल्ली से राजनीतिक संरक्षण के तहत बढ़ा था। तथ्य यह है कि एक के बाद एक आने वाली सरकारें बैंकिंग क्षेत्र पर निरंतर पकड़ बनाए हुए हैं जिससे अर्थव्यवस्था में ऋणों पर नियंत्रण के मामले में राजनीतिक महत्व का पता चलता है। 

1970 के दशक में बैंक राष्ट्रीयकरण एक व्यापक राजनीतिक अर्थव्यवस्था रणनीति की धुरी था, एक ऐसा दशक जब आॢथक वृद्धि बमुश्किल जनसंख्या वृद्धि से आगे निकल गई थी। औसत आय स्थिर हो गई थी। यह भारत के लिए एक खोया हुआ दशक था। इसमें कोई शक नहीं कि ऊर्जा की बढ़ती कीमतों या असफल मानसून जैसे बाहरी झटकों ने ठहराव में एक भूमिका निभाई लेकिन आॢथक नीति को भी चोट पहुंची। शाखाओं के तेजी से प्रसार के कारण बैंक राष्ट्रीयकरण वित्तीय गहनता जैसे विशिष्ट क्षेत्रों में सफल रहा लेकिन आखिरकार इसने अच्छा करने की बजाय नुक्सान अधिक पहुंचाया।-एन. राजाध्यक्ष


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