म्यांमार : भारत मूकदर्शक क्यों बना हुआ है

Thursday, Apr 08, 2021 - 04:28 AM (IST)

ऐसा माना जाता है कि मुगल सम्राट बाबर ने अपने प्यारे बेटे हुमायूं के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया। बाबर के दो और बेटे भी थे। जब बाबर मृत्युशैय्या पर था तब उसने हुमायूं को एक शपथ लेने के लिए कहा कि हिंदुस्तान का सम्राट बनने के बाद वह अपने भाइयों की हत्या नहीं करेगा। हुमायूं ने बाबर को दिए इस वचन को निभाया। 

यह बात शाहजहां से पहले तक मुगल वंश में व्याप्त रही जिसने अपने दो भाइयों और एक सौतेले भाई की हत्या कर दी जो मुगल ताज के दावेदार थे। औरंगजेब के दो बड़े भाई थे दारा शिकोह तथा शाहशुजा और एक उससे छोटा मुराद था। दारा शिकोह शाहजहां का अभिषिक्त वारिस था। हम में से सभी लोग जानते हैं कि औरंगजेब ने दारा शिकोह के साथ कैसा बर्ताव किया। 

कुछ लोगों को ही पता होगा कि औरंगजेब ने शाहशुजा के साथ कैसा सलूक किया। वह बंगाल प्रांत का गवर्नर था मगर औरंगजेब का उसको डर था। अपने तीन हजार सहयोगियों के साथ वह अराकान के जंगलों में भाग गया। (जिसे बाद में बर्मा और अब म्यांमार के नाम से जाना जाता है।) शाहशुजा तथा उसके सभी सहयोगी अराकान के जंगली जानवरों के शिकार हो गए। शुजा के बाद अराकान में भारतीय नैन-नक्श वाला कोई भी व्यक्ति नहीं मिला। अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर जो पूरी तरह से भारतीय था, उसे ब्रिटिश सरकार ने बर्मा के लिए देश निकाला दे दिया जहां उसे अकेले मरने के लिए छोड़ दिया गया। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल के दौरान म्यांमार की यात्रा की और बहादुर शाह जफर की मजार पर चादर भी भेंट की। 

मई 1994 में मेरे पिता कामरेड जनरल बी.सी. जोशी जो भारत के सेना प्रमुख थे, ने म्यांमार की एक आधिकारिक यात्रा की और वहां पर उन्होंने मिलिट्री जुंटा के साथ मुलाकात की। जनवरी 2000 में तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल वी.पी. मलिक ने भी दोनों देशों के बीच सैन्य रिश्ते बढ़ाने के लिए इस देश की यात्रा की। भारत ने निर्णय लिया कि वह म्यांमार की लोकतांत्रिक नेता आंग सान सू की को नकार देगा तथा म्यांमार में चीनी प्रभाव से निपटने के लिए जुंटा का साथ देगा। इसके अलावा भारत यह भी चाहता था कि वह म्यांमार के प्राकृतिक संसाधनों से लाभ उठाए। 

म्यांमार के जनरल मांग आई ने भी भारत की यात्रा की जहां भारत ने उनके देश को बड़ी गिनती में सैन्य हार्डवेयर की आपूॢत शुरू की। सेना से सेना तक की भारतीय नीति विवादास्पद थी। भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा गया है मगर आज यह दमनकारी तानाशाहों की चापलूसी कर रहा है। नवम्बर 2010 में सू की को नजरबंदी से रिहा किया गया मगर 2 वर्षों के बाद 2012 में उन्होंने भारत की यात्रा की। उन्होंने 60 के दशक में दिल्ली में कालेज में पढ़ाई की और भारत को अपना घर कह कर बुलाया। 

जुंटा का साथ देने के लिए सू की ने भारत को कभी माफ नहीं किया। जुंटा ने सू की को जीवन के एक बड़े हिस्से के लिए हिरासत में रखा। भारतीय विदेश नीति का यह शानदार पतन था।  भारत वही देश था जिसने 27 वर्षों तक रंग भेद की नीति का विरोध करने वाले जेल में रहे नेल्सन मंडेला का समर्थन किया। मगर जब बात सू की की आती है तो भारत ने अपने फायदे के लिए उनका तिरस्कार किया। आज सू की फिर से नजरबंद हैं और उनके लोगों का बुरी तरह से जुंटा द्वारा कत्लेआम किया जा रहा है। सू की को नोबेल शांति पुरस्कार मिला। मगर उसके बाद से वह पश्चिम में अपनी चमक खोती गईं क्योंकि उन्होंने मुस्लिम रोङ्क्षहग्या अल्पसंख्यकों का विरोध किया। 

इस मामले को लेकर पश्चिम पाखंडी नजर आया। अमरीका के नेतृत्व में पश्चिम ने लाखों की तादाद में हाल ही के वर्षों में मुसलमानों की हत्या तथा उन्हें विस्थापित किया। मगर जब रोहिंग्या की बात आती है तो पश्चिम के देश सू की को स्वीकार करने को तैयार नहीं। सू की की कुछ अपनी मजबूरियां हो सकती हैं। जुंटा ने उन्हें चेतावनी दी होगी कि यदि रोहिंग्या का उन्होंने समर्थन किया तो वह उन्हें तबाह कर देंगे। अपने देश में लोकतंत्र को बरकरार रखने की खातिर सू की जुंटा की रोहिंग्या नीति के खिलाफ नहीं गईं। जुंटा द्वारा हजारों की तादाद में म्यांमार के नागरिकों की हत्या की जा चुकी है। मगर भारत यह सब देखते हुए भी मूकदर्शक बना हुआ है। 

भारत ने नि:संदेह म्यांमार के सैन्य जनरलों के साथ सेना से सेना तक एक महत्वपूर्ण रिश्ते कायम किए हैं। अब समय है कि भारतीय सेना को वहां के जनरलों को चेतावनी देनी चाहिए कि यदि यह कत्लेआम बंद नहीं हुआ  और सू की को तत्काल ही रिहा नहीं किया गया तो भारत म्यांमार के साथ अपने सभी रिश्तों को खत्म कर देगा। म्यांमार के लिए भारतीय हृदय से खून निकलना चाहिए।-सुनील शरण

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