संगीत, साड़ी और संस्कृत देश को एक करते हैं

punjabkesari.in Monday, Nov 21, 2022 - 07:05 AM (IST)

मेरा लम्बे समय से मानना रहा है कि संगीत, साड़ी और संस्कृत देश को इस तरह एक करते हैं जैसा कोई और नहीं कर सकता। संस्कृत पर मुझे कड़ी चुनौती दी गई है। एक उल्लेखनीय कार्टूनिस्ट और मेरे दोस्त अबू अब्राहम ने संस्कृतनिष्ट हिंदी के बारे में मुखर होने के लिए मुझे फटकार लगाई। दिवंगत फिल्म अभिनेता बलराज साहनी, जिन्होंने इंडियन पीपल्स थिएटर (आई.पी.टी.ए.) से स्नातक किया था, को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के पहले दीक्षांत समारोह को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था। अपने संबोधन के दौरान बलराज साहनी ने अपने दोस्त जॉनी वॉकर के बारे में एक चुटकुला सुनाया।

जॉनी वॉकर कहते हैं, ‘‘इन दिनों समाचार पढऩे वालों को ‘हिंदी में समाचार सुनें’ नहीं कहना चाहिए। उन्हें तो कहना चाहिए कि ‘न्यूज’ में हिंदी सुनिए।’’ अबू अब्राहम भड़क गए जैसे कि उनका कार्टून उखड़ गया हो। उन्होंने गुस्से में कहा, ‘‘आप उत्तर भारतीय अंध राष्ट्रवादी इसे कभी नहीं समझ पाएंगे।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘जितनी अधिक संस्कृतनिष्ट ङ्क्षहदी बनती है, मेरे जैसे मलयाली के लिए उतनी ही अधिक सुगम बनती है।’’ जिस जुनून के साथ अबू ने बयान दिया था वह मेरे साथ तब तक रहा जब मैं इंडियन एक्सप्रैस के दक्षिणी संस्करण के संपादक के रूप में चेन्नई में तैनात था।

चूंकि चेन्नई, बेंगलुरु, विजयवाड़ा, हैदराबाद, कोच्चि और 4 दक्षिणी राज्यों के ब्यूरो मेरे इलाके का हिस्सा थे इसलिए मैं बड़े पैमाने पर यात्रा करने में सक्षम था। अबू के मंत्र प्रस्थान का एक निरंतर ङ्क्षबदू बन गए। मैं अपने आप को विशिष्ट रूप से सौभाग्यशाली मानता हूं कि मुझे चेन्नई का कार्यभार सौंपा गया। रायबरेली के पास मुस्तफाबाद के एक मुसलमान की कल्पना करें, जो सागौन की एक बड़ी मेज के पीछे बैठा था। वह कभी इंडियन एक्सप्रैस के संस्थापक, प्रकाशक राम नाथ गोयंका की थी।

मैं एक ऐसे कार्यालय की देख-रेख कर रहा था जहां हर कक्ष और डैस्क पर पुरुषों और महिलाओं का कब्जा था जो या तो अपने माथे पर भभूत की कई धारियों को लगाते थे या एक सिंदूर की लकीर उस जगह तक ले जाते थे जहां नाक शुरू होती है। एक्सप्रैस साम्राज्य, पेशेवर, बहुत पुरातन और सामंती था। समाचार संपादक एक लम्बा, बड़ा आदमी था जिसे ‘मास्टर’  कह कर संबोधित किया जाता था। वह कभी रामनाथ जी के इकलौते पुत्र भगवान दास का शिक्षक था। ‘मास्टर’ बाद में आर.एन.जी. के माडल समाचार संपादक, समयनिष्ठ और श्रमसाध्य के रूप में उत्परिवर्तित हुए। वह चमके तो नहीं मगर स्थिर और भरोसेमंद थे। एक दिन मैं पूरे प्रवाह में कार्य में जुटा था और अपने विचारों के साथ तालमेल बिठाने के लिए मैंने हिंदी में बड़े पैमाने पर चूक की। मैंने देखा कि मास्टर जी मेरी ओर घूरते हुए देखते हैं।

उन्होंने अपनी पीठ मेरी ओर घुमाई और चुपचाप अपनी सीट पर एक लम्बी मेज के सिरहाने बैठ गए जिसके चारों ओर मेहनती उप-संपादक कच्ची कापी को देखते थे। उनमें से एक मेरे पास चला आया और मुझसे बोला कि, ‘‘कृपया मास्टर के नखरों पर ध्यान न दें। जब कोई उनसे ङ्क्षहदी में बात करता है तो उन्हें संरक्षण मिलता है।’’ ‘द हिंदू’ के एन. राम के साथ मेरा अनुभव और भी बदतर रहा। जैसे ही मैं अनजाने में हिंदी में फिसल गया, राम ने इशारा किया कि मैं रुक जाऊं और सभ्य भाषा का उपयोग करूं।

मास्टर और राम अकेले नहीं थे जिन्होंने मुझे उस समय अपनी पटरियों पर रोका जब मैं आदतन हिंदी में चूक गया। वे दोनों शुद्ध आयंगर ब्राह्मण हैं। उत्तरी इलाके में एक गलत धारणा यह है कि हिंदी का विरोध केवल द्रविड़ समुदायों में से होता है जिसके तमिलनाडु के वित्त मंत्री पलानीवेल त्यागराजन सबसे मुखर प्रतिनिधि हैं। मैंने दक्षिण में अपने 5 वर्षों के दौरान सीखा है वह यह कि तमिल को छोड़ कर सभी दक्षिण भारतीय भाषाओं में संस्कृत का एक बड़ा घटक है। यह 65 से 75 प्रतिशत के बीच का है।
 

वास्तव में सभी प्रमुख क्षेत्रीय भाषाएं जैसे कि बंगाली, अस्मिया, उडिय़ा इत्यादि संस्कृत शब्दों से भरी पड़ी हैं। दूसरे शब्दों में यदि हिंदी में संस्कृत की मात्रा बढ़ा दी जाए तो यह क्षेत्रों के लिए और अधिक सुगम हो जाए। यह सच्चाई एक और वास्तविकता का खंडन करती प्रतीत होगी जिसे हमने आजादी के बाद से जीना सीखा है। कम से कम उत्तर क्षेत्र में हिंदी की व्यापक स्वीकृति का एकमात्र श्रेय बॉलीवुड को ही जाना चाहिए। यह साधारण हिंदुस्तानी भाषा है जिसे नजीर अकबरावादी की उर्दू से अलग नहीं किया जा सकता।

हिंदी को संस्कृतकृत करें और यह उन क्षेत्रों के लिए और अधिक सुलभ हो जाएगी जहां संस्कृत पहले से ही स्थानीय भाषा में मौजूद है। इस आधार पर सिनेमा देखने वाले औसत लोगों के लिए यह और भी मुश्किल हो जाएगी। यदि इतनी सारी क्षेत्रीय भाषाएं पर्याप्त मात्रा में संस्कृत के लिए वाहन हैं तो क्या संस्कृत राष्ट्रीय भाषा के रूप में एक बेहतर शर्त होगी? जाति को बाधक बताया गया है।

यह पुरोहितों और उच्च जाति के संतों की भाषा थी। मनु के नियमों ने इसे नीचे की ओर बहने से रोक लिया। संस्कृत विषय-वस्तु को ‘खड़ी बोली’ से बढ़ाकर इसे क्षेत्रीय भाषाओं के अनुरूप लाने के फार्मूले पर दिल्ली के राजनेता विचार करें लेकिन यह जरूरी नहीं है कि इसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार्य बनाया जाए। बॉलीवुड का धीमा विकासवादी दृष्टिकोण ङ्क्षहदी को विकसित होते देखने का सबसे सुरक्षित मार्ग बना हुआ है।-सईद नकवी


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