मां सिर्फ एक शब्द नहीं, जीवन की भावना है

Sunday, Jun 19, 2022 - 03:47 AM (IST)

मां, यह सिर्फ एक शब्द नहीं, जीवन की वह भावना है जिसमें स्नेह, धैर्य, विश्वास, कितना कुछ समाया होता है। दुनिया का कोई भी कोना, कोई भी देश हो, हर संतान के मन में सबसे अनमोल स्नेह मां के लिए होता है। मां सिर्फ हमारा शरीर ही नहीं गढ़ती, बल्कि हमारा मन, हमारा व्यक्तित्व, हमारा आत्मविश्वास भी गढ़ती है और अपनी संतान के लिए ऐसा करते हुए वह खुद को खपा देती है, खुद को भुला देती है। 

आज मैं अपनी खुशी, अपना सौभाग्य, आप सबसे सांझा करना चाहता हूं। मेरी मां, हीराबा 18 जून को अपने 100वें वर्ष में प्रवेश कर गईं। यानी उनका जन्म शताब्दी वर्ष प्रारंभ हो रहा है। पिताजी आज होते, तो पिछले सप्ताह वह भी 100 वर्ष के हो गए होते। यानी 2022 एक ऐसा वर्ष है जब मेरी मां का जन्मशताब्दी वर्ष प्रारंभ हो रहा है और इसी साल मेरे पिताजी का जन्मशताब्दी वर्ष पूर्ण हुआ है। 

आज मेरे जीवन में, मेरे व्यक्तित्व में जो कुछ भी अच्छा है, वह मां और पिताजी की ही देन है। मेरी मां जितनी सामान्य हैं, उतनी ही असाधारण भी। ठीक वैसे ही, जैसे हर मां होती है। मां की तपस्या उसकी संतान को सही इंसान बनाती है। मां की ममता उसकी संतान को मानवीय संवेदनाओं से भरती है। मां एक व्यक्ति नहीं, एक व्यक्तित्व नहीं, एक स्वरूप है। अपने मन के भाव के अनुसार हम मां के स्वरूप को अनुभव कर सकते हैं। 

मेरी मां का जन्म मेहसाणा जिले के विसनगर में हुआ था। वडनगर से ये बहुत दूर नहीं है। मेरी मां को अपनी मां यानी मेरी नानी का प्यार नसीब नहीं हुआ था। एक शताब्दी पहले आई वैश्विक महामारी ने मेरी नानी को भी मेरी मां से छीन लिया था। मां तब कुछ ही दिनों की रही होंगी। आप सोचिए, मेरी मां का बचपन मां के बिना ही बीता, वह अपनी मां से जिद नहीं कर पाईं, उनके आंचल में सिर नहीं छिपा पाईं। मां को अक्षर ज्ञान भी नसीब नहीं हुआ, उन्होंने स्कूल का दरवाजा भी नहीं देखा। उन्होंने देखी तो सिर्फ गरीबी और घर में हर तरफ अभाव। 

बचपन के संघर्षों ने मेरी मां को उम्र से बहुत पहले बड़ा कर दिया था। वह अपने परिवार में सबसे बड़ी थीं और जब शादी हुई तो भी सबसे बड़ी बहू बनीं। बचपन में जिस तरह वह अपने घर में सभी की ङ्क्षचता करती थीं, सारे कामकाज की जिम्मेदारी उठाती थीं, वैसी ही जिम्मेदारियां उन्हें ससुराल में उठानी पड़ीं, लेकिन मां हमेशा शांत मन से, हर स्थिति में परिवार को संभाले रहीं।
वडनगर के जिस घर में हम लोग रहा करते थे वो बहुत ही छोटा था। उस घर में कोई खिड़की, कोई बाथरूम, कोई शौचालय नहीं था। कुल मिलाकर मिट्टी की दीवारों और खपरैल की छत से बना वह एक-डेढ़ कमरे का ढांचा ही हमारा घर था, जिसमें मां-पिताजी, हम सब भाई-बहन रहा करते थे। 

मेरे माता-पिता की विशेषता रही कि अभाव के बीच भी उन्होंने घर में कभी तनाव को हावी नहीं होने दिया। दोनों ने ही अपनी-अपनी जिम्मेदारियां सांझा की हुई थीं। कोई भी मौसम हो, गर्मी हो, बारिश हो, पिताजी भोर में 4 बजे घर से निकल जाया करते थे। मां भी समय की उतनी ही पाबंद थीं। उन्हें भी सुबह 4 बजे उठने की आदत थी। सुबह-सुबह ही वह बहुत सारे काम निपटा लिया करती थीं। काम करते हुए मां अपने कुछ पसंदीदा भजन या प्रभातियां गुनगुनाती रहती थीं। 

मां कभी अपेक्षा नहीं करती थीं कि हम भाई-बहन अपनी पढ़ाई छोड़कर उनकी मदद करें। मां को लगातार काम करते देखकर हम भाई-बहनों को खुद ही लगता था कि काम में उनका हाथ बंटाएं। घर चलाने के लिए दो-चार पैसे ज्यादा मिल जाएं, इसके लिए मां दूसरों के घर के बर्तन भी मांजा करती थीं। समय निकालकर चरखा भी चलाया करती थीं, क्योंकि उससे भी कुछ पैसे जुट जाते थे। ये सब कुछ मां खुद ही करती थीं। उन्हें डर रहता था कि कपास के छिलकों के कांटे हमें चुभ न जाएं। 

मुझे याद है, वडनगर वाले मिट्टी के घर में बारिश के मौसम से कितनी दिक्कतें होती थीं, लेकिन मां की कोशिश रहती थी कि परेशानी कम से कम हो। इसलिए जून के महीने में, कड़ी धूप में मां घर की छत की खपरैल को ठीक करने के लिए ऊपर चढ़ जाया करती थीं। लेकिन हमारा घर इतना पुराना हो गया था कि उसकी छत तेज बारिश सह नहीं पाती थी। बारिश में हमारे घर में कभी पानी यहां से टपकता था, कभी वहां से। पूरे घर में पानी न भर जाए, घर की दीवारों को नुक्सान न पहुंचे, इसलिए मां जमीन पर बर्तन रख दिया करती थीं। आप यह जानकर हैरान रह जाएंगे कि बाद में उसी पानी को मां घर के काम के लिए अगले 2-3 दिन तक इस्तेमाल करती थीं। जल संरक्षण का इससे अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है। 

मां को घर सजाने का, घर को सुंदर बनाने का भी बहुत शौक था। घर सुंदर, साफ दिखे, इसके लिए वह दिन भर लगी रहती थीं। उनका एक और बड़ा ही निराला और अनोखा तरीका मुझे याद है। वह अक्सर पुराने कागजों को भिगोकर, उसके साथ इमली के बीज पीसकर एक पेस्ट जैसा बना लेती थीं, बिल्कुल गोंद की तरह, फिर उसकी मदद से वह दीवारों पर शीशे के टुकड़े चिपकाकर बहुत सुंदर चित्र बनाया करती थीं। 

दिल्ली से मैं जब भी गांधीनगर जाता हूं, उनसे मिलने पहुंचता हूं, तो मुझे अपने हाथ से मिठाई जरूर खिलाती हैं। और जैसे एक मां, किसी छोटे बच्चे को कुछ खिलाकर उसका मुंह पोंछती है, वैसे ही मेरी मां आज भी मुझे कुछ खिलाने के बाद किसी रुमाल से मेरा मुंह जरूर पोंछती हैं। वह अपनी साड़ी में हमेशा एक रुमाल या छोटा तौलिया खोंसकर रखती हैं। भोजन को लेकर मां का हमेशा से यह भी आग्रह रहा कि अन्न का एक भी दाना बर्बाद नहीं होना चाहिए। उन्होंने यही नियम बनाया हुआ था कि उतना ही खाना थाली में लो जितनी भूख हो। 

हमारे घर के आसपास जब भी कोई साधु-संत आते थे तो मां उन्हें घर बुलाकर भोजन अवश्य कराती थीं। जब वे जाने लगते तो मां अपने लिए नहीं, बल्कि हम भाई-बहनों के लिए आशीर्वाद मांगती थीं। मेरी मां का मुझ पर बहुत अटूट विश्वास रहा है। उन्हें अपने दिए संस्कारों पर पूरा भरोसा रहा है। आपने भी देखा होगा, मेरी मां कभी किसी सरकारी या सार्वजनिक कार्यक्रम में मेरे साथ नहीं जातीं। अब तक 2 बार ही ऐसा हुआ है जब वो किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में मेरे साथ आई हैं। एक बार मैं जब एकता यात्रा के बाद श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहरा कर लौटा था, तो अहमदाबाद में हुए नागरिक सम्मान कार्यक्रम में मां ने मंच पर आकर मेरा टीका किया था। 

मां के लिए वह बहुत भावुक पल इसलिए भी था क्योंकि एकता यात्रा के दौरान फगवाड़ा में एक हमला हुआ था, उसमें कुछ लोग मारे भी गए थे। दूसरी बार वह सार्वजनिक तौर पर मेरे साथ तब आई थीं जब मैंने पहली बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी। कई बार वह मुझे कहती हैं कि देखो भाई, पब्लिक का, ईश्वर का आशीर्वाद तुम्हारे साथ है, तुम्हें कभी कुछ नहीं होगा। वह बोलती हैं कि अपना शरीर हमेशा अच्छा रखना, क्योंकि शरीर अच्छा रहेगा तभी तुम अच्छा काम भी कर पाओगे। 

मां के नाम आज भी कोई संपत्ति नहीं है। मैंने उनके शरीर पर कभी सोना नहीं देखा। उन्हें सोने-गहने का कोई मोह नहीं है। वो पहले भी सादगी से रहती थीं और आज भी वैसे ही अपने छोटे से कमरे में पूरी सादगी से रहती हैं। ईश्वर पर मां की अगाध आस्था है, लेकिन वह अंधविश्वास से कोसों दूर रहती हैं। वह शुरू से कबीरपंथी रही हैं और आज भी उसी परंपरा से अपना पूजा-पाठ करती हैं। मां में जितनी ज्यादा संवेदनशीलता, सेवा भाव है, उतनी ही ज्यादा उनकी नजर भी पारखी रही है। मां छोटे बच्चों के उपचार के कई देसी तरीके जानती हैं। वडनगर वाले घर में तो अक्सर हमारे यहां सुबह से ही कतार लग जाती थी। लोग अपने 6-8 महीने के बच्चों को दिखाने के लिए मां के पास लाते थे। 

दूसरों की इच्छा का सम्मान करने, दूसरों पर अपनी इच्छा न थोपने की भावना मैंने मां में बचपन से ही देखी है। खासतौर पर मुझे लेकर बहुत ध्यान रखती थीं कि वह मेरे और मेरे निर्णयों के बीच कभी दीवार न बनें। मेरी दिनचर्या, मेरे तरह-तरह के प्रयोगों की वजह से कई बार मां को मेरे लिए अलग से इंतजाम भी करने पड़ते थे। लेकिन उनके चेहरे पर कभी शिकन नहीं आई, मां ने कभी इसे बोझ नहीं माना। 

मां को आभास हो रहा था कि मैं कुछ अलग ही दिशा में जा रहा हूं। मैंने जब घर छोडऩे का फैसला कर लिया, तो उसे भी मां कई दिन पहले ही समझ गई थीं। उन्होंने मेरे मन का सम्मान किया। वह जानती थीं कि अब मेरा आगे का जीवन कैसा होने जा रहा है। घर छोडऩे के बाद के वर्षों में, मैं जहां रहा, जिस हाल में रहा, मां के आशीर्वाद की अनुभूति हमेशा मेरे साथ रही। मां मुझसे गुजराती में ही बात करती हैं। 

मेरी मां ने हमेशा मुझे अपने सिद्धांत पर डटे रहने, गरीब के लिए काम करते रहने के लिए प्रेरित किया है। मुझे याद है, जब मेरा मुख्यमंत्री बनना तय हुआ तो मैं गुजरात में नहीं था। एयरपोर्ट से मैं सीधे मां से मिलने गया। खुशी से भरी हुई मां का पहला सवाल यही था कि क्या तुम अब यहीं रहा करोगे? मां मेरा उत्तर जानती थीं। फिर मुझसे बोलीं, ‘‘मुझे सरकार में तुम्हारा काम तो समझ नहीं आता, लेकिन मैं बस यही चाहती हूं कि तुम कभी रिश्वत नहीं लेना।’’ 

यहां दिल्ली आने के बाद मां से मिलना-जुलना और भी कम हो गया है। जब गांधीनगर जाता हूं तो कभी-कभार मां के घर जाना होता है। मां से मिलना होता है, बस कुछ पलों के लिए। लेकिन मां के मन में इसे लेकर कोई नाराजगी या दुख का भाव मैंने आज तक महसूस नहीं किया। मां का स्नेह, उनका आशीर्वाद मेरे लिए वैसा ही है। मां अक्सर पूछती हैं-दिल्ली में अच्छा लगता है? मन लगता है? वह मुझे बार-बार याद दिलाती हैं कि मेरी चिंता मत किया करो, तुम पर बड़ी जिम्मेदारी है। 

आज अगर मैं अपनी मां और अपने पिता के जीवन को देखूं, तो उनकी सबसे बड़ी विशेषताएं रही हैं ईमानदारी और स्वाभिमान। गरीबी से जूझते हुए परिस्थितियां कैसी भी रही हों, मेरे माता-पिता ने न कभी ईमानदारी का रास्ता छोड़ा, न ही अपने स्वाभिमान से समझौता किया। उनके पास हर मुश्किल से निकलने का एक ही तरीका था-मेहनत, दिन रात मेहनत। मेरी मां आज भी इसी प्रयास में रहती हैं कि किसी पर बोझ नहीं बनें। आज भी जब मैं मां से मिलता हूं, तो वह हमेशा कहती हैं कि ‘‘मैं मरते समय तक किसी की सेवा नहीं लेना चाहती, बस ऐसे ही चलते-फिरते चले जाने की इच्छा है।’’ 

मैं अपनी मां की इस जीवन यात्रा में देश की समूची मातृशक्ति के तप, त्याग और योगदान के दर्शन करता हूं। मैं जब अपनी मां और उनके जैसी करोड़ों नारियों के सामथ्र्य को देखता हूं, तो मुझे ऐसा कोई भी लक्ष्य नहीं दिखाई देता जो भारत की बहनों-बेटियों के लिए असंभव हो। 

अभाव की हर कथा से बहुत ऊपर, 
एक मां की गौरव गाथा होती है।
संघर्ष के हर पल से बहुत ऊपर, 
एक मां की इच्छाशक्ति होती है। 

मां, आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामनाएं। आपका जन्म शताब्दी वर्ष शुरू होने जा रहा है। सार्वजनिक रूप से कभी आपके लिए इतना लिखने, इतना कहने का साहस नहीं कर पाया। आप स्वस्थ रहें, हम सभी पर आपका आशीर्वाद बना रहे, ईश्वर से यही प्रार्थना है।-नरेन्द्र मोदी(माननीय प्रधानमंत्री, भारत)

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