अधिकतर क्या दुनिया को ट्रम्प के आगे झुक जाना चाहिए

Friday, Jun 14, 2019 - 01:08 AM (IST)

अमरीकी राष्ट्रपतियों ने अमरीकी विशेषताओं को रेखांकित किया है। हां, अमरीका में कई अलग विशेषताएं हैं, जिन्होंने देश की सीमाओं, जातियों, धर्मों तथा राजनीतिक प्रणालियों, लोकतंत्र हो या कानून का शासन, बहुजातीय, बहुधार्मिक, बहुभाषीय सीमाओं से पार विश्वभर में करोड़ों लोगों को प्रेरित किया। कोई भी तार्किक व्यक्ति इन वैश्विक मूल्यों में खामी नहीं ढूंढ सकता, यदि अमरीकी रिवायतें अन्यों पर जबरदस्ती थोपने की बजाय दुनिया को इनकी अपनी स्वाभाविक शक्तियों से प्रभावित करें।

कोई भी ट्रम्प के बहुप्रचारित नारे ‘अमेरिका फर्स्ट’ पर आपत्ति नहीं जता सकता जब तक वह अन्यों के नारों-इंडिया फर्स्ट, चाइना फस्र्ट, रशिया फर्स्ट, जापान फर्स्ट आदि को सहन करते रहते हैं। छोटा हो या बड़ा, अपने देश के राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना सभी नेताओं का परम कर्तव्य बना रहता है। फिर भी परिपक्व, जिम्मेदार तथा व्यावहारिक नेता पारस्परिक लाभकारी संबंध स्थापित करने के लिए अपने समकक्षों के साथ सांझी जमीनों तथा एकसूत्रता की तलाश में रहते हैं। इसी तरह से एक अंतनिर्भरर तथा आपस में जुड़ा हुआ विश्व तरक्की तथा समृद्धि हासिल करता है। यह सत्य भारतीय प्रधानमंत्री के विचार ‘सबका साथ, सबका विकास’ में प्रतिबिंबित होता है।

आदर्शों बारे दावे सही नहीं
अपने मूल्यों के संवर्धन तथा उनको सांझा करने के लिए अमरीका को अन्यों के साथ गर्मजोशी भरे संबंधों को सार्थक करना चाहिए, भारत तथा अमरीका करीबी मित्र होने चाहिए थे। हालांकि मामला ऐसा नहीं है। उच्च आदर्शों का दावा करते हुए अमरीका ने कभी भी ऐसे अधिनायकवादी शासनों के निरंकुश शासकों को आमंत्रित तथा उनसे लाभ उठाने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई, जो प्रत्येक मानवाधिकार का हनन करते हैं और उनमें लोकतंत्र के लिए कोई प्रेम नहीं। इस्तांबुल स्थित सऊदी अरब के दूतावास में सऊदी असंतुष्ट एवं वाशिंगटन पोस्ट के पत्रकार जमाल खाशोगी की कथित हत्या को लेकर अंतर्राष्ट्रीय आलोचना के बावजूद सऊदी क्राऊन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान का व्हाइट हाऊस में शानदार सम्मान किया गया। 

मिस्र के राष्ट्रपति हुसनी मुबारक मध्य-पूर्व में दशकों तक अमरीका के करीबी सहयोगी थे, यद्यपि उन्होंने 85000 से अधिक लोगों को राजनीतिक बंदी बना रखा था। 9 वर्ष लम्बे ईराक-ईरान संघर्ष के दौरान अमरीका ने सद्दाम हुसैन का समर्थन किया और जब सद्दाम ने कुर्दों के खिलाफ रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल किया, तो उस तरफ से आंखें मूंद लीं। हाल ही में ईराक, अफगानिस्तान, लीबिया तथा सीरिया में अमरीका के हस्तक्षेप ने लोकतांत्रिक शक्तियों को मजबूत नहीं किया बल्कि जीवन तथा सम्पत्ति को बहुत बड़ा नुक्सान पहुंचाया और अराजकता, अव्यवस्था, हिंसा तथा सामान्य नागरिकों के रोजमर्रा के जीवन में व्यवधान पैदा किया।

अमरीका के उत्पीडऩ का रोना
अरबपति से अमरीका के राष्ट्रपति बने ट्रम्प उत्पीडऩ का दावा करते नहीं थकते कि सभी देश अमरीका का शोषण कर रहे हैं, अमरीका की व्यापार नीतियों का फायदा उठा रहे हैं, वे अमरीका को अपने उत्पादों का निर्यात बिल्कुल नहीं या बहुत कम निर्यात शुल्कों के साथ कर रहे हैं, मगर शुल्क अवरोधों के चलते अपने बाजारों में अमरीकी उत्पादों की पहुंच से इंकार करते हैं, जिस कारण उन्हें बहुत बड़े व्यापार अधिशेष का लाभ हो रहा है और वह इसे अपने अपारम्परिक तथा अलोकतांत्रिक तरीकों से रोकने का प्रण करते हैं।

वैश्वीकरण : बेहतर रिटन्र्स के लिए पूंजी, तकनीक, सेवाओं तथा मनुष्यों का विभिन्न स्थानों के लिए मुक्त प्रवाह अमरीका द्वारा प्रचारित आर्थिक मंत्र था, चीन तथा भारत वैश्वीकरण के दो सबसे बड़े लाभार्थी रहे हैं। दुर्भाग्य से जहां दावोस में विश्व आर्थिक मंच पर वैश्वीकरण के पक्ष में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग तथा भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मजबूत आधार तैयार किया, वहीं अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प विदेशी वस्तुओं के खिलाफ संरक्षणवाद की दीवारें खड़ी कर रहे हैं, वैश्वीकरण को अपनाने से इंकार करते हुए विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) पर हमला कर रहे हैं, जिसकी स्थापना बिना किसी भेदभाव के नि:शुल्क तथा निष्पक्ष अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सुनिश्चित करने के लिए की गई थी।

मैक्सिको तथा कनाडा दोनों ही शिकार बने हैं: नाफ्टा की जगह नए द्विपक्षीय समझौतों ने ले ली। इस्पात तथा एल्युमिनियम के आयात पर पाबंदियां लगाने का ट्रम्प का निर्णय न केवल चीन तथा भारत पर असर डाल रहा है बल्कि यूरोपियन यूनियन तथा अमरीका के सहयोगियों जापान तथा दक्षिण कोरिया पर भी। अमरीका तथा चीन के बीच भीषण शुल्क युद्ध छिड़ा हुआ है, जिसमें अमरीका ने चीन से होने वाले 200 अरब डालर कीमत के निर्यातों पर 25 प्रतिशत शुल्क लगा दिया और चीन ने इसके बदले में कंडोम्स तथा परफ्यूम्स सहित 60 अरब डालर कीमत की वस्तुओं (पहले घोषित 50 अरब डालर की वस्तुओं के अतिरिक्त) पर शुल्क लगा दिया और दुर्लभ मृदा धातु के निर्यात पर रोक लगाने की धमकी दी, जो अमरीका के आई.टी. उद्योग को पंगु बना सकता है।

गत वर्ष संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण में उत्तर कोरिया को तबाह करने की सार्वजनिक धमकी देने के बाद उन्होंने सिंगापुर में उत्तर कोरिया के राष्ट्रपति किम जोंग उन से मुलाकात की। चीन के साथ अपने व्यापार युद्ध में भी उन्होंने दोहरा मार्ग अपनाया-बातचीत से किनारा भी न करो और शुल्कों की तलवार भी लटकाए रखो। इसने मिश्रित परिणाम दिए। ट्रम्प ने इस माह जापान में होने वाली जी-20 सम्मिट से पहले यह कह कर चीन पर गोले दागे कि यदि शी उनसे नहीं मिले और सम्मिट का परिणाम किसी समझौते के रूप में नहीं निकला तो 300 अरब डालर कीमत की चीनी वस्तुओं पर शुल्क बढ़ा दिए जाएंगे। कड़ा सत्य यह है कि चीन के साथ अमरीका का व्यापार युद्ध केवल व्यापार संतुलन को लेकर नहीं है, यह चीन के उभार को रोकने और उसके आगामी सुपर पावर बनने से यदि रोकने के लिए नहीं तो उसमें देरी के लिए है।

कूटनीति नहीं, दादागिरी
ट्रम्प जोर-शोर से दावे कर रहे हैं कि ऊंचे शुल्कों की उनकी धमकी के कारण मैक्सिको ने एक नए सौदे पर हस्ताक्षर किए हैं। यह कूटनीति नहीं, यह दादागिरी है। भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बदले भारत की क्षमता का एहसास करते हुए तथा हालिया वर्षों के दौरान 17 अरब डालर कीमत के रक्षा उपकरणों का निर्यात करने के बावजूद ट्रम्प ने सार्वजनिक रूप से भारत को ‘टैरिफ किंग’ बताते हुए जी.एस.पी. की सुविधा वापस ले ली है, जिसका लाभ भारत 1975 से उठा रहा था, जिस कारण अमरीका को 5.6 अरब डालर का नुक्सान हुआ है। अमरीका ने धमकी दी है कि यदि भारत ईरान से तेल का आयात जारी रखता है और रूस से एस.ए.-400 रक्षा प्रणाली खरीदने के लिए कदम आगे बढ़ाता है तो उस पर प्रतिबंध लगा दिए जाएंगे। इसने हार्ट स्टैंट, नी इम्प्लांट आदि जैसी चिकित्सा वस्तुओं की कीमतों से नियंत्रण हटाने की भी भारत से मांग की है, जिनके सामाजिक आयाम हैं। अत: भारत को एक रणनीतिक सांझेदार, प्रमुख रक्षा सहयोगी बताने तथा रणनीतिक व वाणिज्यिक वार्ताएं करने और 30 से अधिक अभियानों तथा 300 से अधिक सैन्य अभ्यासों का क्या अर्थ रह जाता है।

 क्या काटसा (काऊंटरिंग अमेरिकास एडवर्सरीज थ्रू सैंक्शन्स एक्ट) लागू करना तथा प्रतिबंध लगाने की धमकी भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति अमरीका की असंवेदनशीलता को प्रतिबिम्बित नहीं करता? अन्य हस्ताक्षरकर्ता (पी-4 देश, जर्मनी व यूरोपियन यूनियन) ईरान परमाणु सौदे से निकलने के ट्रम्प के तर्कों से सहमत नहीं हैं मगर कुछ कर नहीं सकते। ट्रम्प के लिए नेतन्याहू के आरोपों का अधिक वजन है। अंतर्राष्ट्रीय लेन-देन के लिए अमरीकी डालर्स का जरूरत से अधिक इस्तेमाल अमरीका को अपने विरोधियों को धमकाने की अवांछित ताकत प्रदान करता है। ट्रम्प के हमले के शिकार देशों को द्विपक्षीय मुद्राओं में व्यापार की सम्भावनाएं तलाशनी चाहिएं। यदि चीन, रूस, भारत, जापान तथा ईरान एक-दूसरे की मुद्राओं के साथ लेन-देन पर सहमत हो जाएं तो क्या अमरीकी डंक के दर्द को न्यूनतम नहीं किया जा सकता? क्या भारत तथा यूरोपियन यूनियन एक-दूसरे के उत्पादों के लिए रुपयों तथा यूरो में भुगतान शुरू कर सकते हैं? क्या यह कहना आसान लेकिन करना कठिन नहीं? एफ.टी.ए. (फ्री ट्रेड एग्रीमैंट) कहां है? क्या रुपया पूरी तरह से परिवर्तनीय है?

यदि आप डर जाएं तो धमकाने वाला और धमकाएगा, यदि आप सामने डट जाएं तो वह आमतौर पर पीछे हट जाता है। भारत को ट्रम्प से कहना चाहिए कि जब तक अमरीका तकनीक का हस्तांतरण नहीं करता, जैसा कि रूस ने ब्रह्मोस के मामले में किया, व शुल्कों की धमकी नहीं देता और जी.एस.टी. बहाल नहीं करता तब तक रक्षा उपकरणों का और आयात नहीं होगा। अमरीका के साथ अच्छे संबंध भारत के हित में हैं लेकिन इसे अमरीकी मांगों के आगे कभी नहीं झुकना चाहिए। हमारे दृढ़निश्चयी नेता के लिए यही समय हिम्मत दिखाने तथा डोनाल्ड ट्रम्प के सामने खड़ा होने का है। क्या इंदिरा गांधी रिचर्ड निक्सन के सामने नहीं डट गई थीं?   - सुरेंद्र

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