ज्यादा योजनाएं, अधिक भ्रष्टाचार : सामूहिक सोच में क्रांति जरूरी

Saturday, Mar 24, 2018 - 03:14 AM (IST)

आखिर क्या वजह है कि ताजा वैश्विक भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत सन् 2016 के मुकाबले सन् 2017 में दो खाने नीचे चला गया यानी 79 से 81 पर? दरअसल यह सूचकांक भ्रष्टाचार को लेकर बनी जन-धारणा से बनता है। क्या वाकई भ्रष्टाचार बढ़ा है? 

जब भी कोई सरकार व्यापक स्तर पर जनोपदेय गरीबी-उन्मूलन या विकास के प्रोडक्ट लाती है तो यह भ्रष्ट तंत्र उसकी काट निकाल लेता है और जब जनता से पूछा जाता है कि ‘मोदी राज में कैसा चल रहा है’ तो उसके जेहन में सरकार के विकास कार्यों के प्रति तो उत्साह होता है (कि कुछ बदल रहा है) लेकिन जब भ्रष्टाचार को लेकर सवाल पूछा जाता है तो उसका जवाब उदासीन ‘‘अरे सब कुछ वैसे ही है या.... बढ़ा है’’ में होता है। 

स्थानीय साहूकार से कर्ज लेकर घूस देने के बाद उसका जवाब क्या होगा, समझना मुश्किल नहीं है। वरना जब बहुत सारे जनहित के कार्यक्रम शुरू किए गए हैं और सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों के खिलाफ  आज तक कोई छोटा आरोप भी नहीं है तो परसैप्शन क्यों खराब होगा? दरअसल जन-धारणा बनती है जमीन पर रोजमर्रा के जीवन में सामान्य नागरिकों द्वारा झेले गए भ्रष्टाचार के दंश से और वह बदस्तूर कायम है बल्कि ज्यादा फंड आने से ज्यादा बढ़ा है। आज देश में विकास व जनोत्थान की लगभग 200 योजनाएं हैं लेकिन भ्रष्ट अफसर-जनप्रतिनिधि गठजोड़ ने सरकार के डायरैक्ट बैनीफिट ट्रांसफर (प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण) जिसे डी.बी.टी. के नाम से जाना जाता है, की भी काट निकाल ली है। अब लाभार्थी से नाम की संस्तुति या चरणबद्ध पेमैंट के पहले ही पैसा ले लिया जाता है। 

चूंकि इन गरीबों के पास एडवांस पैसा देने की क्षमता नहीं होती तो ये बड़े लाभ के लिए स्थानीय महाजन से कर्जा महंगे ब्याज (100 का 20 रुपया प्रतिमाह) पर लेते हैं ताकि ब्लाक का भ्रष्ट अफसर-ग्राम प्रधान (मुखिया) गठजोड़ लाभार्थी बना कर उसे शौचालय, आवास, रोजगार के लिए सस्ता ऋण उपलब्ध करा सके। प्रशासनिक सिद्धांत है कि राज्य अभिकरणों और लाभाॢथयों के बीच अगर ज्ञान की खाई बनी रही तो वह शोषण और तज्जनित भ्रष्टाचार को जन्म देती है। यही कारण है कि जिला पंचायत अध्यक्ष या ब्लाक प्रमुख तो छोडि़ए, मुखिया जी भी चुने जाने के एक साल के भीतर एस.यू.वी. पर चलने लगते हैं। ‘घुरहू-पतवारू’ के नाम मिलने वाले उन लाभों को भी जो सामान या यन्त्र के रूप में मिलते हैं, हड़प किया जा रहा है। 

लोक-प्रशासन के मान्य सिद्धांतों के अनुसार अगर राज्य अभिकरणों में लगे लोग (अफसरशाही) और गरीब लाभार्थी के बीच ज्ञान की खाई (नॉलेज गैप) कम हो तो लाभ के उत्पादों को लाभार्थी तक पहुंचाने में मानव भूमिका को कम से कम करने की कोशिश की जानी चाहिए। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया गया। दिन-रात लग कर खाते खुलवाए गए और मोबाइल-आधार कार्ड से ङ्क्षलक करके डी.बी.टी. योजना लाई गई लेकिन चूंकि खतरा यह था कि गरीब लाभार्थी एक मुश्त पैसा मिलने पर शौचालय बनवाने की जगह फिर कहीं और खर्च कर देगा तो घूसखोर अब एडवांस में पैसे लेने लगे। 

दिल्ली से सटे एक जिले में जहां से एक केन्द्रीय मंत्री भी आते हैं, एक लाभार्थी से कहा गया कि तुम शौचालय के लिए गड्ढा खुदवाओ और तुम्हारे खाते में 2000 रुपए पहली किस्त के रूप में आ जाएंगे। वह किस्त तो आई लेकिन आगे की किस्त के लिए पैसे की मांग होने लगी। उस गरीब की बकरी एक दिन गड्ढे में गिरी और उसकी टांग टूट गई। घूस के पैसे न देने के कारण अगली किस्त में विलम्ब हुआ, गड्ढा भर गया। बकरी से होने वाली आय भी जाती रही, सरकारी कागजों में गाजियाबाद ‘ओ.डी.एफ.’(खुले में शौच से मुक्त) घोषित भी हो गया। जिला प्रशासन, नगर निगम और मंत्री ने समारोह में ताली भी बजवा ली। किस्तों में (चरणों में काम होने पर जैसे भवन के लिए नींव डालने पर एक किस्त, फिर दीवार खड़ी होने पर दूसरी) पैसा सरकार इसलिए देती है क्योंकि उसे डर रहता है कि पैसे का इस्तेमाल अन्य मद में लाभार्थी कर सकता है, यहीं पर मुखिया, लेखपाल या निम्न स्तर से ऊपर तक की अफसरशाही की भूमिका आती है और भ्रष्टाचार का रेट भी बढ़ जाता है। 

समस्या यह है कि मीडिया भी भ्रष्टाचार को तब तक वरीयता पर नहीं रखता जब तक कोई बड़ा नाम उससे न जुड़े। जन-शिक्षा जो मीडिया के मूल कार्यों में से एक है ‘‘तेरा नेता,मेरा नेता’’ हर शाम स्टूडियो के शोर में खो जाता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का राष्ट्रीय किसान उन्नति मेले में 17 मार्च, 2018 को दिया गया बेहद स्पष्ट बयान जो भारत के किसानों का भाग्य बदलने वाला है उसे दिन-रात दिखाने की बजाय शाम को फिर उसी ‘दाढ़ी-टोपी बनाम तिलक’ फार्मूले पर डिस्कशन चलता रहा क्योंकि इसमें एंकर या एडिटर के ज्ञान की जगह गले में ताकत से काम चल जाता है। भारतीय मीडिया अज्ञानी, नासमझ और तमाशेबाज है। 

भ्रष्टाचार एक सामाजिक व्याधि है। दुनिया भर में प्रशासनिक इतिहास गवाह है कि जिन देशों में भ्रष्टाचार की जड़ें बेहद गहरी थीं (सिंगापुर, मलेशिया से ब्राजील तक)और कालांतर में उनसे छुटकारा पाया जा सका उनमें सामाजिक क्रांति, सामूहिक सोच में बदलाव और वैज्ञानिक तर्क-शक्ति पहली शर्त रही। भारत में भ्रष्टाचार सन् 1970 से ‘कोएर्सिव’ से हट कर  ‘कोल्युसिव’ (समझौता) स्टेज पर पहुंच गया है जिसका खात्मा महज कानून बना कर या एक या दो संस्थाओं को अस्तित्व में ला कर नहीं किया जा सकता। मात्र योजनाएं ला कर या ‘प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण’ के जरिए इस कैंसर पर काबू पाना भी नामुमकिन है बल्कि यह देखने में आ रहा है कि ‘ज्यादा योजना, ज्यादा भ्रष्टाचार’ और ‘ज्यादा लोगों की शिरकत, बढ़े दर से भ्रष्टाचार’। इस भ्रष्टाचार से लडऩे में सभी सरकारें पिछले 70 साल से असफल रही हैं। 

अफसरशाही के हाथ से विकास को निकाल कर त्रि-स्तरीय पंचायती राज सिस्टम को दिया गया और साथ ही एन.जी.ओ. (गैर-सरकारी संगठन) को भी शामिल किया गया लेकिन दशकों बाद भी समस्या बढ़ी ही है, कम नहीं हुई। चूंकि भ्रष्टाचार एक सामाजिक व्याधि है इसलिए जब तक सामाजिक क्रांति के स्तर पर यह भाव नहीं विकसित किया जाएगा, परिणाम नकारात्मक ही रहेंगे।-एन.के. सिंह

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