‘वाजपेयी और अडवानी की तुलना में मोदी-शाह विपक्षियों के लिए ज्यादा क्रूर’

Sunday, Dec 13, 2020 - 03:31 AM (IST)

आज हम भारतीय जनता पार्टी की पहचान नरेन्द्र मोदी और अमित शाह से करते हैं। बहुत समय पहले यह दो अलग-अलग पुरुषों से संबंध रखती थी जो अटल बिहारी वाजपेयी तथा लालकृष्ण अडवानी थे। लगभग 4 दशकों तक उन्होंने हमारी राजनीतिक चेतना को छीना था। मेरी पीढ़ी के लोगों के लिए वे या तो नायक या फिर खलनायक थे। लेकिन कभी भी वे दोनों गैर-संस्थाएं नहीं थीं। उनके रिश्तों पर विनय सीतापति की किताब जिसे ‘जुगलबंदी’ के नाम से पुकारा जाता है, उनके रिश्तों के पहलुओं और उनके व्यक्तिगत व्यक्तित्व को प्रकट करती है जो मोहभंग और संभवत: विवादास्पद हैं। 

सत्ता में उनके वर्षों के दौरान हमने उन्हें बराबरी के करीब माना। वाजपेयी को बतौर प्रधानमंत्री तथा अडवानी को उनका डिप्टी माना। सीतापति सुझाते हैं कि बेशक गृहमंत्री तथा उप प्रधानमंत्री अडवानी ने विदेश या फिर आर्थिक नीति में बहुत कम योगदान दिया। उन्होंने विनिवेश का समर्थन नहीं किया लेकिन उसे खारिज कर दिया।

उन्होंने ईराक में सेना भेजने का पक्ष लिया लेकिन इस बात की अनदेखी की गई। पाकिस्तान के साथ संबंधों पर वाजपेयी सरकार ने किसी भी पूर्ववर्तियों या उत्तराधिकारी की तुलना में ज्यादा प्रयोग किया। मुझे हमेशा लगा कि अडवानी की महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन सीतापति का कहना है कि वाजपेयी इस्लामाबाद के साथ संबंध सुधारने के लिए और भी प्रतिबद्ध थे। अडवानी की सलाह को बड़े पैमाने पर स्वीकार किया गया क्योंकि यह वाजपेयी के अनुकूल थी। 

हालांकि सीतापति उनके व्यक्तिगत व्यक्तित्व के बारे में कहते हैं जो मुझे विशेष रूप से आकर्षक लगता है। उन पंक्तियों को पढ़ कर आप यह महसूस नहीं कर सकते कि वह अडवानी की प्रशंसा करते हैं लेकिन वाजपेयी से कुछ हद तक असहमत हैं। अडवानी के बारे में सीतापति ने लिखा है कि उन्होंने जितना वास्तव में दिखता था उससे कहीं अधिक बड़ा काम किया। वह कहते हैं कि ‘‘अडवानी वाजपेयी से अधिक सिद्धांत के व्यक्ति थे। एक कांग्रेसी को कोट करते हुए वह उद्धृत करते हैं कि अडवानी की समस्या यह थी कि वह एक अच्छे अभिनेता नहीं थे। कभी-कभी राजनीति  में आपको एक अच्छा अभिनेता बनने की आवश्यकता होती है।’’ 

वाजपेयी के लिए सीतापति की धारणा एक ऐसे व्यक्ति की है जो अक्सर अपने सिद्धांतों के लिए खड़ा नहीं होता। आखिरी क्षणों में वाजपेयी दबाव में झुक गए। बाबरी मस्जिद के विध्वंस तथा 2002 में गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी का इस्तीफा देना विरोध के उनके दो उदाहरण हैं।  सीतापति कहते हैं कि वह शुरू में अपनी पार्टी का विरोध करते रहे। फिर जब अपनी स्थिति को हिलता महसूस किया तो उन्होंने उसे खत्म कर दिया। वाजपेयी की पहली उदार प्रतिक्रिया के बाद यह एहसास हुआ कि उन्होंने अपनी पार्टी से अलग होने का जोखिम उठाया था। फिर अपनी पार्टी की रक्षा के लिए उन्होंने छलांग लगाई। 

इस अंतिम टिप्पणी के साथ मेरी पीढ़ी झगड़ा नहीं करेगी। वाजपेयी के साथ प्यार करना आसान है जो एक आकर्षण और महाकाव्य नजर आते हैं। गंधहीन अडवानी को महसूस करना कठिन है मगर लगता है कि भावनाएं भ्रामक हो सकती हैं। अंत में सीतापति वाजपेयी-अडवानी की जुगलबंदी और मोदी और शाह के बीच कुछ तुलनात्मक तुलना करते हैं। मोदी मास्टर हैं और शाह उनके अनुयायी। फिर भी सीतापति के संकेत गुणों की ओर ध्यान दिलाते हैं। मोदी शाह के अंतर्गत भाजपा पुरानी भाजपा की तुलना में कम उच्च जाति की है। यह मुस्लिम विरोधी भी ज्यादा है जबकि वाजपेयी और अडवानी उदारवादियों तथा रूढि़वादियों दोनों को ही अच्छे लगते हैं। 

यदि सीतापति का यह निष्कर्ष है तो बहुत से लोग इससे सहमत होंगे।  नतीजा यह है कि मोदी और शाह वाजपेयी और अडवानी की तुलना में राजनीतिक विपक्षियों के लिए ज्यादा क्रूर हैं। अपने प्वाइंट को बताने के लिए सीतापति अडवानी के ब्लॉग का सहारा लेते हैं। ‘‘भारतीय राष्ट्रवाद की हमारी धारणा के अनुसार हमने कभी भी उन लोगों को राष्ट्र विरोधी नहीं समझा जिनके साथ हम राजनीतिक तौर पर असहमत थे।’’ दूसरी ओर सीतापति के अनुसार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सबसे बड़ी शक्ति वोटरों के साथ लगभग एक रहस्यमय संबंध रखने की है। उनके विरोधी विपक्ष में शायद इस बात को पसंद नहीं करते होंगे।-करण थापर 
 

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