मोदी जी, बिखरे बेरों का अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा

Saturday, Jul 30, 2016 - 01:30 AM (IST)

(हरि जयसिंह): दक्षिण भारत में सुपरस्टार रजनीकांत की ब्लाकबस्टर फिल्म ‘कबाली’ द्वारा सृजित ‘चढ़दी कला’ के वातावरण के बावजूद भारतीय राष्ट्र आज सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से  पीछे की ओर फिसल रहा लगता है। कश्मीर घाटी आतंकी बुरहान मुजफ्फर वानी को सुरक्षा बलों द्वारा मुकाबले में मार गिराए जाने के बाद बेचैनी और हिंसा की गिरफ्त में है। कश्मीरी केवल इसलिए आंदोलित हो गए हैं कि हिजबुल मुजाहिद्दीन का यह युवा ‘कमांडर’ उन्हीं में से एक है जो पुलवामा जिले के एक गांव से संबंधित है। आप ठीक समझें या गलत, वे महसूस करते हैं कि यह ‘धरतीपुत्र’ बेशक आतंकवादी ही क्यों न हो, उसे  मारा नहीं जाना चाहिए था। ईमानदारी से कहूं तो मैं भी यह मानता हूं कि अमरनाथ यात्रा के मद्देनजर मुठभेड़  का यह समयगलत था। गुप्तचर एजैंसियां और राजनीतिक कर्णधार दोनों ही जमीनी हकीकतों के संकेत पढऩे में विफल रहे। 

 
वास्तव में जिस प्रकार घाटी में अभूतपूर्व बेचैनी फैली और जिस प्रकार दलित मोर्चे पर गुजरात और उत्तर प्रदेश में अचानक आंदोलन भड़क उठा वह प्रादेशिक और केन्द्र स्तर पर भाजपा नेतृत्व की गवर्नैंस की घटिया गुणवत्ता का प्रमाण है। यह घटनाक्रम किसी साजिश का परिणाम नहीं जैसा कि भाजपा के कुछ लोग दावा कर रहे हैं बल्कि नेतृत्व की कमजोरीहै कि वह दक्षतापूर्ण ढंग से स्थिति को नहीं संभाल पाया। इस मामले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपाध्यक्ष अमित शाह को भी बरी नहीं किया जा सकता। उनसे तो अधिक सजग रहने की उम्मीद की जाती है। 
 
प्रधानमंत्री लोकतांत्रिक भारत  की जटिलताओं पर अभी तक सही पकड़ हासिल नहीं पाए और घरेलू मुद्दों पर ध्यान एकाग्र करने की बजाय अक्सर  विदेशी यात्राओं पर रवाना रहते हैं। शायद उन्हें विदेशों में एन.आर.आई. और विदेशी नेताओं की तालियों की गडगड़़ाहट से अधिक सुखद अनुभूति होती है। लेकिन यदि उन्होंने गरीब किसानों, मुस्लिमों, दलितों और आदिवासियों का दुख-दर्द बांटा होता तो उन्हें अमरीकी कांग्रेस द्वारा खड़े होकर तालियां बजाय जाने की तुलना में कहीं अधिक चुनावी लाभ हुआ होता। मेरे पास इस सवाल का कोई तैयारशुदा उत्तर नहीं कि प्रधानमंत्री की मानसिकता और वरीयताएं इस तरह की क्यों हैं? मैं तो सदा यह महसूस करता हूं कि जितना भारी-भरकम बहुमत प्रधानमंत्री को मिला है उसके बूते वह भारत के आम लोगों के मन में अपने लिए स्थायी स्थान बना सकते हैं। 
 
योग शक्ति के बावजूद मोदी के पूर्वाग्रह उनके लिए समस्या  बने हुए हैं। सर्वप्रथम तो उन्होंने 75 वर्ष की आयु सीमा की लक्ष्मण रेखा खींच कर  पार्टी के अनुभवी लोगों को हाशिए पर धकेल दिया। दूसरे नम्बर पर वैश्विक स्तर पर ‘डिजीटल इंडिया’ की वकालत करते हुए उन्होंने राष्ट्रीय मुद्दों और समस्याओं पर विश्वसनीय विपक्षी नेताओं एवं गैर भाजपा व्यक्तियों की भागीदारी के लिए महत्वपूर्ण क्षेत्रों में संवाद रचाने की अनदेखी की है। आलोचकों को कैसे प्रभावित करना है और लोगों को दोस्त कैसे बनाना है, इस मामले में वह अटल बिहारी  वाजपेयी और यहां तक कि इंदिरा गांधी से भी एक-दो सबक सीख सकते थे। 
 
हमारे जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रधानमंत्री से यह उम्मीद नहीं की जाती कि वे व्यक्तिगत खुशफहमियों  तथा स्वप्रशीलता के आधार पर काम करें। उनकी वरीयता यह होनी चाहिए कि विपक्षी नेताओं और राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सहकारी संघवाद की भावना में साथ लेते हुए महत्वपूर्ण नीतियों और कार्यक्रमों के विषय पर राष्ट्रीय आम सहमति कैसे पैदा करनी है? वास्तव में गवर्नैंस और राजनीतिक मैनेजमैंट की कला में दक्षता हासिल करने के अलावा मोदी को उन लोगों  तक पहुंच बनानी चाहिए जिन्हें मुख्य रूप में भारत और इसके लोगों की समस्याओं की ङ्क्षचता है। मोदी की समस्या यह है कि उन्होंने पहले ही अपनी छवि वास्तविक जीवन से कहीं अधिक बड़ी बना ली है और वह इस तरह व्यवहार करते हैं जैसे वह सर्वज्ञ हैं। 
 
गुजरात के  उना कस्बे की ही घटना को लें जहां एक दलित परिवार को  कथित स्वयंभू गौरक्षकों द्वारा 11 जुलाई को सार्वजनिक रूप में पीटा गया था लेकिन हमारे सोशल मीडिया के दीवाने प्रधानमंत्री ने उना जाने की कोई जरूरत नहीं समझी। यहां तक कि गुजरात  की मुख्यमंत्री आनंदीबेन भी इस जघन्य घटना के 9 दिन बाद वहां पहुुंचीं, जबकि राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल और तृणमूल कांग्रेस के नेता लोगों  की विपदाओं की आंच पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए पहले ही पहुंच चुके थे। 
 
प्रधानमंत्री के सामने असली चुनौती तो यह है कि राजनीतिक सरपरस्ती प्राप्त स्वयंभू और गौरक्षकों की बर्बरता  पर किस प्रकार सख्ती से अंकुश लगाया जाए। दलितों और मुस्लिमों के विरुद्ध हिंसा की बढ़ती घटनाएं किसी न किसी रूप में गौमांस भक्षण और संबंधित विषयों पर संघ परिवार के आदेशों का ही नतीजा हैं। लोगों ने कौन सा काम करना है और क्या भोजन खाना है, इसका निर्णय करने के बहाने राजनीतिक, सामाजिक और आॢथक ध्रुवीकरण को भारत  गंवारा नहीं कर सकता। 
 
नरेन्द्र मोदी की परेशानी का एक कारण यह है कि उनके विश्वस्त और अनुभवी साथी अमित शाह भाजपा में अवांछित और अभद्र लोगों की पीठ थपथपा रहे हैं। इसी कारण के चलते यू.पी. में अगले वर्ष होने वाले चुनाव से पहले अभी से स्थिति बिगडऩी शुरू हो गई है। पंजाब में नवजोत सिद्धू का अचानक भाजपा को अलविदा कहना भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है। सिद्धू पंजाब के दमदार नेता हैं और यह शर्म की बात है कि भाजपा नेतृत्व ने उनके साथ बहुत घटिया किस्म का सलूक किया है। वैसे अभी भी बिखरे हुए बेरों का कुछ नहीं बिगड़ा और मोदी जनता की नजरों में अपनी विश्वसनीयता फिर से बहाल कर सकते हैं। 
 
Advertising