मोदी के वादों और इरादों ने विश्वसनीयता खो दी है

punjabkesari.in Thursday, Nov 25, 2021 - 03:39 AM (IST)

चंद धन्ना सेठों की ड्योढ़ी पर खेत खलिहान बेचने वाले तीन कृषि विरोधी काले कानूनों के अंत की घोषणा तो बारह महीने चले अन्नदाताओं के संघर्ष ने कर दी और अब संसद में उनका अंतिम संस्कार होना बाकी है। काले कानूनों के अंतिम खात्मे तक संशय इसलिए है कि इन काले कानूनों की जन्मदात्री ‘मायावी मोदी सरकार’ पर से लोगों का भरोसा उठ गया है। संशय इसलिए भी है कि भाजपा-आर.एस.एस. के चहेते सांसद, साक्षी महाराज व भाजपा के वरिष्ठ नेता और राज्यपाल, कलराज मिश्र ने यू.पी. चुनाव के बाद इन्हीं काले कानूनों को दूसरी शक्ल में फिर लाने की बात कही है। 

किसान आंदोलन ने भारत के प्रजातंत्र को एक गहरा संदेश दिया है, सत्ता में बैठे निरंकुश शासकों के लिए भी और जनता के लिए भी। सत्ता के लिए संदेश है कि प्रचंड बहुमत की मनमानी अगर संसद में जबरन चला भी ली गई तो सड़क पर उसे जनता सबक सिखा देगी। और जनता के लिए यह कि अगर सतत मुखरता से तानाशाही फैसलों के खिलाफ निरंतर आवाज बुलंद की जाए तो कितना भी बड़ा अहंकारी शासक हो, उसे जनहित में झुकाया जा सकता है। 

आज मोदी सरकार के वादों और इरादों ने पूरी तरह अपनी विश्वसनीयता खो दी है। लगातार 7 सालों से देश के विश्वास में विष घोला गया है। किसानों की बात करें तो मोदी जी ने सत्ता संभालते ही किसानों के धान और गेहूं पर बोनस बंद करने का आदेश दे दिया। फिर किसानों की जमीन हड़पने के लिए एक के बाद एक, तीन अध्यादेश लाए गए तथा भूमि का उचित मुआवजा कानून खत्म करने की साजिश की गई। इसके बाद सुप्रीमकोर्ट में शपथ पत्र देकर कह दिया कि लागत+50 प्रतिशत मुनाफे पर समर्थन मूल्य यानी एम.एस.पी. नहीं दिया जा सकता। 

फिर प्राईवेट बीमा कंपनियों को हजारों करोड़ का मुनाफा देने के लिए फसल बीमा योजना ले आए और इसके बाद, कृषि के 3 क्रूर काले कानून। जब इन कानूनों के खिलाफ किसानों ने अपना मुखर विरोध दर्ज कराया तो उन्हें बर्बरता से लहूलुहान किया गया। उनकी राह में कील और कांटे बिछाए गए। उन्हें आतंकी, उग्रवादी और नक्सलवादी कहा गया। इन सब यातनाओं के बाद बेरहमी से किसानों को मोदी सरकार के मंत्रियों की गाड़ी से रौंदकर मार डाला गया। पर आखिर में जीत किसान की हुई। 

इस निष्ठुर भाजपा सरकार की साख का संकट सिर्फ किसानों में ही नहीं है, इस सरकार ने युवाओं से रोजगार छीन कर 45 वर्षों की भीषणतम बेरोजगारी परोसी। मुठ्ठीभर पूंजीपतियों के हित साधने के लिए नोटबंदी लागू की। क्रूरता से असंगठित क्षेत्र, छोटे दुकानदार, छोटे व्यवसाय और अर्थव्यवस्था को तहस नहस कर दिया। गलत जी.एस.टी. से देश के व्यापार व उद्योग जगत को आघात पहुंचाया। जब कोरोना महामारी में लोगों पर आपदा पड़ी तो महामारी की आड़ में उसे अपने पूंजीपति दोस्तों को लाभ पहुंचाने के अवसर में तबदील कर गुपचुप तरीके से न सिर्फ मजदूरों के खिलाफ काले कानून लाए गए, बल्कि महामारी की विभीषिका में उनको दरबदर की ठोकरें खाने को मजबूर किया गया। 

कठिन समय में सरकारें परीक्षा की कसौटी पर परखी जाती हैं। जब कोरोना महामारी ने देश को अपनी आगोश में ले लिया, तब भी सरकार अपनी सत्ता की भूख मिटा रही थी। प्रधानमंत्री जी ने तो सब कुछ जानते हुए भी जनवरी 2021 को वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम में महामारी की समाप्ति की घोषणा कर दी क्योंकि राज्यों के चुनावों में उन्हें रैलियों को संबोधित करना था, लोगों की जान जाए तो जाए। परिणाम यह हुआ कि लोगों ने तिल-तिल कर अपनी जान गंवाई। न उन्हें ऑक्सीजन मिली न दवाई। अर्थात सरकार ने प्रचंड बहुमत का बाहुबली की तरह दुरुपयोग किया और भारत के भविष्य को रौंद दिया। 

मगर हमारे सम्मुख उदाहरण है। जब जमीन हड़पने के 3 अध्यादेश लाए गए, तब राहुल गांधी जी ने दृढ़ता से किसान भाइयों की आवाज बुलंद की और पूंजीपतियों को समर्पित सरकार को किसानों के सम्मुख आत्मसमर्पण करने को मजबूर कर दिया। आज भी कृषि विरोधी काले कानूनों के खिलाफ किसान भाइयों ने निर्णायक लड़ाई लड़ी और कांग्रेस सहित समूचे विपक्ष ने चट्टान की तरह किसानों व मजदूरों का साथ दिया। आखिरकार, पूंजीपतियों को पूजने वाली सरकार को किसानों के आगे सिर झुकाना पड़ा। 

मगर आज भी समूचे देश को महंगाई की आग में झोंका जा रहा है। किसान खाद की लाइनों में दम तोड़ता जा रहा है। फसलों की एम.एस.पी. पर सरकारी खरीद न होने से उसमें आग लगा रहा है। मध्यम वर्ग पैट्रोल, डीजल और रसोई गैस के बोझ के नीचे दबा जा रहा है। युवा बेरोजगारी से दरबदर की ठोकर खा रहा है। इन सब विडंबनाओं के बीच सरकार को जनहित में झुकाने का एक और रास्ता जनता को मिल गया है। इस निर्मम सत्ता की जान चुनावी हार के डर में छिपी है। देश कह रहा है ‘भाजपा की हार के डर के आगे जनहित की जीत है’।अब राज्य-दर-राज्य भाजपा सरकार को स्वार्थ व चंद धन्नासेठों की तिजोरी भरने की अभिलाषा और लोकहित के बीच फैसला करना पड़ेगा। यही देश की जीत है।-रणदीप सुरजेवाला(राष्ट्रीय महासचिव, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस)


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