मुसलमानों के प्रति बदलता मोदी का नजरिया

Saturday, Apr 27, 2024 - 05:06 AM (IST)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 22 अप्रैल को अलीगढ़ में एक रैली में मुस्लिम महिलाओं और अल्पसंख्यक समूह के भीतर हाशिए पर रहने वाले समुदायों का समर्थन करने के अपने प्रयासों पर ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने मुसलमानों के जीवन में महत्वपूर्ण सुधार किए बिना कुछ समूहों का पक्ष लेने की उनकी नीति के लिए कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की आलोचना की। मोदी ने मुस्लिम महिलाओं के कल्याण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हुए तत्काल 3 तलाक के खिलाफ कानून पारित करने में अपनी भूमिका पर प्रकाश डाला। उन्होंने सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के साथ अपनी दोस्ती का भी जिक्र किया, जिससे मुस्लिम महिलाओं को पुरुष साथी के बिना हज यात्रा पर जाने के अधिक अवसर मिले हैं। 

मोदी ने कांग्रेस पर नागरिकों की संपत्ति जब्त करने का इरादा रखने का आरोप लगाया, उनकी विचारधारा की तुलना माओवादी और कम्युनिस्ट मान्यताओं से की। उन्होंने धन पुनॢवतरण की कथित कम्युनिस्ट धारणा के खिलाफ चेतावनी दी और सुझाव दिया कि इससे आर्थिक गिरावट आएगी। उन्होंने अपने शासन में सुरक्षित माहौल पर जोर देते हुए बम विस्फोट जैसी घटनाओं को कम करने के लिए खुद को और योगी आदित्यनाथ को श्रेय दिया। ये बयान अत्यधिक आरोपपूर्ण हैं और भारत में मुसलमानों के प्रति भाजपा के दृष्टिकोण के एक अलग दृष्टिकोण को प्रकट करते हैं। जहां मोदी ने कांग्रेस पर मुसलमानों के प्रति पक्षपात दिखाने और कुछ समूहों के बीच धन के पुनॢवतरण की योजना बनाने का आरोप लगाया, वहीं उन्होंने मुस्लिम महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए अपनी सरकार के प्रयासों पर भी जोर दिया। एक महत्वपूर्ण कदम में, उसी दिन, नईमा खातून को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की उप कुलपति नियुक्त किया गया, जो 123 वर्षों में यह पद संभालने वाली पहली महिला थीं। चुनाव नियमों के कारण चुनाव आयोग से अनुमोदन की आवश्यकता के बावजूद, उनकी नियुक्ति पर व्यापक ध्यान गया। 

ये घटनाएं भारत में भाजपा और मुस्लिम समुदाय के बीच जटिल संबंधों को उजागर करती हैं, जिसमें राजनीतिक बयानों और नियुक्तियों से अलग-अलग दृष्टिकोण सामने आते हैं। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा को उस समय झटका लगा जब उसके एकमात्र मुस्लिम सांसद चौधरी महबूब अली कैसर पार्टी छोड़कर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) में शामिल हो गए। मोदी ऐसे बयानों और कार्यों का सहारा क्यों ले रहे हैं जो उनकी पार्टी के रुख में असंगति को उजागर करते हैं? ये मिश्रित संकेत मतदाताओं की धारणाओं को प्रभावित करने और उनकी पार्टी के लिए समर्थन जुटाने के अनाड़ी प्रयास हो सकते हैं, जो इस बात को लेकर कुछ बेचैनी का संकेत देते हैं कि पार्टी कितना अच्छा प्रदर्शन कर रही है।

प्रधानमंत्री मोदी ने लंबे समय से भारत को एक प्रमुख आर्थिक खिलाड़ी के रूप में प्रचारित किया है, जिससे वैश्विक स्तर पर उनकी छवि और उनकी सरकार की विश्वसनीयता बढ़ी है। हालांकि, डाटा हेरफेर, आय असमानता, बेरोजगारी और धीमे व्यापार निवेश के बारे में चिंताएं इस पर संदेह पैदा करती हैं। आलोचकों ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि मोदी के आर्थिक वादों में स्थायी विकास के लिए आवश्यक सुधारों का अभाव है, अन्य एशियाई सफलता की कहानियों के विपरीत जो प्रगति के लिए व्यापार, उद्योग और सामाजिक नीतियों को संतुलित करती हैं। 

वास्तव में, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) ने इस महीने की शुरूआत में स्पष्ट किया था कि आई.एम.एफ. में भारत के प्रतिनिधि कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यन द्वारा किए गए हालिया विकास अनुमान फंड के विचारों को प्रतिबिंबित नहीं किया। सुब्रमण्यन ने हालिया नीतियों और सुधारों के आधार पर 2047 तक भारत के लिए 8 प्रतिशत विकास दर का सुझाव दिया था। हालांकि, आई.एम.एफ. के प्रवक्ता ने जोर देकर कहा कि फंड देश के लिए 6.5 प्रतिशत का अनुमान रखता है। 

राजनीति 100 मीटर की दौड़ नहीं है
पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने एक बार कहा था, ‘‘मेरे लिए राजनीति 100 मीटर की दौड़ नहीं है। यह एक मैराथन दौड़ है।’’ उन्होंने राजनीति में सफल होने के लिए निश्चितता और निरंतर प्रगति के महत्व पर जोर दिया।
सिंह को उनकी चतुराई के लिए जाना जाता था, खासकर 80 के दशक के दौरान जब उन्होंने मंडल मंत्र के साथ राजनीति को कट्टरपंथी बना दिया था। अपने एकबारगी आक्रामक मूड में उन्होंने कहा, ‘‘अगर वी.पी. सिंह शैतान हैं तो उन्हें फांसी पर लटका दो। लेकिन देश को फांसी मत दो।’’ वे साहसी शब्द थे। किसने, कब और किस उद्देश्य से फांसी दी, यह भारत की राजनीतिक कहानी का हिस्सा है। दया की बात है कि देश वर्षों से छोटे राजनेताओं के हमलों से बचा हुआ है। 

हिंदी पट्टी में कई मिनी-वी.पी. सिंह ने अपने कार्यों की गंभीरता को समझे बिना वही खेल खेला है। परिणामस्वरूप, राष्ट्र सिद्धांतहीन राजनेताओं के चंगुल में फंसा हुआ है। आज भारतीय नेता वैचारिक प्रतिबद्धताओं के लिए नहीं जाने जाते। वे मुख्यत: अवसरवादी लोग हैं। फिर भी वे शहीद बनने की कोशिश करते हैं। भारतीय राजनीतिक परिदृश्य के समझदार पर्यवेक्षक आम तौर पर ऐसे शहीदों को संदेह की नजर से देखते हैं, खासकर वे जो ‘शहादत के बाद भी जीवित रहते हैं।’ शहादत हो या न हो, हमारे पास ऐसे मिनी-वी.पी. के बारे में चिंतित होने का कारण होना चाहिए। सिंह जो शायद ही अपने लोकलुभावन रुख के निहितार्थ को समझते हैं। वैसे भी, राजनीति सत्ताधारियों और वोट-बैंक कार्ड खेलने वालों की बुद्धिमत्ता की प्रेरक शक्ति है। हमारे सामने असली चुनौती यह है कि अल्पसंख्यकों के मुद्दे को कैसे राजनीतिकरण से मुक्त और तर्कसंगत बनाया जाए ताकि यह कमजोर वर्गों की वैध आशाओं और आकांक्षाओं को पूरा कर सके, जिन्हें सामाजिक-आॢथक सीढ़ी पर आगे बढऩे के लिए विशेष सहायता की आवश्यकता है।

‘हरिजन आय से, जाति से नहीं।’ पंजाब के मुख्यमंत्री के रूप में सरदार प्रताप सिंह कैरों ने एक बार यह सुझाव दिया था। यदि हम सभी समुदायों में आॢथक सशक्तिकरण का लक्ष्य रखते हैं तो यह प्रस्ताव प्रासंगिक है। यह संभावना नहीं है कि अल्पसंख्यक या हाशिए पर रहने वाले समूह केवल सहायता के संकेत के लिए समझौता करके, पिछड़ेपन का लेबल अपनाने की इच्छा रखते हैं। उन्हें भी देश और विदेश में गौरवान्वित भारतीय के रूप में उभरना चाहिए। वास्तविक चुनौती यह है कि हमारी जैसी विकासशील राजनीति योग्यता और सामाजिक-आॢथक न्याय की तत्काल आवश्यकता को कैसे संतुलित करती है।-हरि जयसिंह
    

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