मोदी सरकार घाटी में हिंसा के सही कारण को नहीं जान सकी

Wednesday, Feb 14, 2018 - 02:53 AM (IST)

घाटी में पुलिस कर्मियों पर हमले होना कोई नई बात नहीं। कश्मीर में इन हमलों में पुलिस कर्मियों के मारे जाने की घटना भी पहली बार नहीं हुई है लेकिन परेशान करने वाली बात यह है कि हत्या की घटनाएं नियमित हो रही हैं। हिंसा रोकने में नई दिल्ली सफल नहीं हो सकी है। शायद केन्द्र की मोदी सरकार कारण को पकड़ नहीं पा रही है। अगर हिंसा रोकनी है तो कारण से निपटना पड़ेगा। 

बेशक, जेल में बंद लश्कर-ए-तोएबा के पाकिस्तान से आए आतंकवादी को छुड़ाने के लिए कम से कम 2 आतंकवादियों का अस्पताल परिसर में छिप कर घुस आना एक चिंता की बात है। इसका मतलब है कि घाटी में कोई सुरक्षित स्थान नहीं है। सबसे खराब बात यह है कि आतंकवादियों को बीमारों की भी कोई परवाह नहीं है। इसके साथ ही, हमारी सुरक्षा व्यवस्था की पोल खुल गई जब डाक्टरी जांच के लिए लाया गया 22-वर्षीय मोहम्मद नावीद जट, जिसे 2014 में कश्मीर के कुलगाम में गिरफ्तार किया गया था, दिन-दिहाड़े सरकारी अस्पताल के बाहर हमलावरों के साथ फरार हो जाने में कामयाब हो गया। 

लगता है कि जट को कब और कहां ले जाया जाएगा, यह पता करने के लिए आतंकवादियों के पास घाटी में एक पक्की व्यवस्था थी और जट को कुछ अन्य कैदियों के साथ लाने पर गोली चलाने से पहले अस्पताल के पार्किंग स्थल में आतंकवादी मौजूद थे। यह माना जाता है कि कुछ नागरिकों तथा सेना के जवानों पर हमले समेत कई हमलों में जट शामिल था। वास्तव में, श्रीनगर में किसी बाहरी के आने की जानकारी देने के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों के पास कोई न कोई आदमी रहता है। आतंकवादी खतरे के अनुसार प्रतिरोध का इंतजाम करते हैं। आतंकवादियों का खुफिया तंत्र छेददार है। महबूबा मुफ्ती सरकार अपनी गलती मानती है। जाहिराना तौर पर, सद्भावना दिखाने के लिए सभी पत्थरबाजों को रिहा कर दिया गया है लेकिन उन्हें रिहा करने के पीछे असली कारण उन्हें मिलने वाला जनसमर्थन है। 

परिस्थिति ऐसी हो गई है कि यासीन मलिक या शब्बीर शाह जैसे पुराने उग्रवादी आज अप्रासंगिक हो गए हैं। नेतृत्व नौजवान कर रहे हैं और वे इस बात को छिपाते नहीं हैं कि वे अपना एक अलग इस्लामी देश चाहते हैं। वे न तो पाकिस्तान समर्थक हैं और न ही भारत समर्थक, वे खुद के समर्थक हैं और उन्होंने इस्लामाबाद को यह साफ बता दिया है कि उनका आंदोलन अपना वजूद तैयार करने के लिए है। नई दिल्ली को यह मालूम है कि उन्हें देने के लिए उनके पास कुछ नहीं है। उसे लगता है इसका जवाब सुरक्षा बल ही हैं जिन्हें ज्यादा से ज्यादा जान गंवानी पड़ रही है। हैरत की बात है कि पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने यह कह कर कि नौजवान इस्लाम की नई पहचान हैं, इसमें धर्म को घुसा दिया है। वह यह कह रहे हैं कि वे मुसलमान हैं लेकिन भगवान का शुक्र है कि वह श्रीनगर के भारत में विलय को चुनौती नहीं देते हैं।

पाकिस्तान यह समझता है कि अगर वह वजूद वाले कारण को रेखांकित करेगा तो पूरे बंटवारे पर सवालिया निशान खड़े होने लगेंगे। इसलिए वह इस बात पर जोर देता है कि दोनों देश बैठकर कोई स्वीकार होने लायक समाधान ढूंढें। वास्तव में, इस्लामाबाद सच्चाई स्वीकार नहीं करना चाहता है। वास्तविकता यही है कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को अलग इस्लामी राष्ट्र बनने की मांग करता है। नई दिल्ली ने यह साफ  कर दिया है कि वह तब तक बातचीत नहीं करेगा जब तक वह यह पक्का नहीं कर लेता है कि पाकिस्तान आतंकवादियों को पनाह नहीं देगा और न ही उग्रवाद का पक्षधर रहेगा लेकिन यह सिर्फ एक कोरी कल्पना है। 

सच है कि भाड़े के सैनिकों के रूप में छद्मयुद्ध, आई.एस.आई. के भाड़े के सैनिक और यहां तक कि सशस्त्र सेना, जिनका जिक्र पाकिस्तान यह कह कर करता है कि यह उग्रवादियों को उसका ‘‘नैतिक तथा कूटनीतिक समर्थन’’ है, ने सालों से कश्मीर में हालात सामान्य होने नहीं दिए हैं। पिछले एक दशक में सरहद पार से भारी घुसपैठ की गई है। फिर भी, साफ  कहा जाए तो भारत के पास कोई कश्मीर नीति नहीं है और इसने एक के बाद एक कई गलतियां की हैं। कश्मीर के एकमात्र नेता शेख अब्दुल्ला के दौर में जाएं तो पता लगता है कि 1952 में उन्हें इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि वह चाहते थे कि स्वायत्तता को लेकर अपने वायदे पर भारत खरा उतरे। इसका मतलब था विदेश, रक्षा और संचार छोड़कर सभी अधिकार श्रीनगर को सौंपना। या, हम 1989 के दौर में जाएं जब विधानसभा चुनावों में धांधली हुई जिसने युवकों को यह सोचने पर मजबूर किया कि मत पेटियां उन्हें सत्ता नहीं दे सकतीं, शायद गोली से यह मिल सकती है। 

पाकिस्तान सिर्फ इस ताक में था कि गुस्साए युवक हथियार और प्रशिक्षण पाने के लिए सरहद पार करें। यह स्वाभाविक ही था कि वह उनके मार्गदर्शन के लिए अपने कुछ हथियारबंद लोगों की घुसपैठ भी कराता क्योंकि घाटी में विद्रोह खड़ा करने के लिए उसने लगभग 40 साल तक इंतजार किया। इसके बाद उग्रवाद और राज्य की ओर से आए जवाब में बहुत सारे कश्मीरियों तथा सुरक्षा बलों की जानें गईं। कश्मीर के नेताओं, खासकर इसकी नौजवान पीढ़ी को असलियत का सामना करना पड़ेगा। अगर वह एक ही सदन में होते हैं तो वह राष्ट्र से मांग सकते हैं कि जो 1952 के दिल्ली समझौते हैं यानि राज्य का विशेष दर्जा होने के बावजूद उन्हें नहीं दिया गया। इस मौके को खोना उनके लिए उपयोगी नहीं होगा। चुनकर संसद में आने से कश्मीर के नेताओं को यह मौका मिलेगा कि वे इस आरोप को गलत साबित कर दें कि मुख्य तौर पर, उन्हें डर और उनकी ओर से फैलाए गए कट्टरपंथ के कारण घाटी में समर्थन मिलता है। 

उन्हें यह समझना चाहिए कि कश्मीर में अनिश्चितता की स्थिति के कारण ही नई दिल्ली वह उदार आर्थिक सहायता देने से मना कर पाया है जिसका राज्य हकदार है। अतीत में, कई पैकेज घोषित हुए थे। राजीव गांधी पहले आदमी थे जिन्होंने 2 हजार करोड़ रुपए के आबंटन का वायदा किया। उनके बाद आए प्रधानमंत्री इस राशि को बढ़ाते रहे हैं। केन्द्र ने भी लोगों की नाराजगी को पहचानने में कुछ हद तक गलती की। अगर राज्य में आर्थिक विकास हुआ होता तो कश्मीरी नौजवानों का फोकस ही कुछ और होता। यह भी देखना चहिए जब लोग सिर्फ पर्यटकों के आने का इंतजार करते थे। हिंसा के बीच गुजरने के बाद कश्मीरियों को यह एहसास हो गया है कि बड़ी संख्या में आने और पैसा खर्च करने वाले पर्यटकों से दूर भागा नहीं जा सकता। 

आज लोग हिंसा से तंग आ गए हैं। सुरक्षा बल और सरहद पार से आने वाले आतंकवादियों ने उन्हें बस किसी तरह जीने को मजबूर कर दिया है। जीवन का खराब स्तर और भी गिर गया है। वे विकास चाहते हैं, राजनीति नहीं। इसे महबूबा सरकार जोर-शोर से लोगों के पास ले जा रही है। राज्य में एक जवाबदेह, साफ-सुथरे तथा उद्देश्य वाली सरकार ने उनके और दिल्ली के सिरदर्द को कम कर दिया होता।-कुलदीप नैय्यर

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