मोदी और शाह ने असंभव को ‘संभव’ कर दिखाया

Wednesday, Aug 07, 2019 - 04:18 AM (IST)

संसद का वर्तमान सत्र उपलब्धियों की दृष्टि से अत्यंत सफल रहा है। दरअसल इस दौरान कई ऐतिहासिक विधेयक पारित किए गए हैं। तीन तलाक कानून, आतंक पर कठोर प्रहार करने वाले कानून और अनुच्छेद 370 पर निर्णय, ये सभी निश्चित तौर पर अप्रत्याशित हैं। 

आम धारणा कि अनुच्छेद 370 पर भाजपा द्वारा किया गया वायदा सिर्फ एक नारा है, जिसे पूरा नहीं किया जा सकता है, पूरी तरह से गलत साबित हुई है। सरकार की नई कश्मीर नीति पर आम जनता की ओर से जो जबरदस्त  समर्थन मिल रहा है, उसे देखते हुए कई विपक्षी दलों ने आम जनता के सुर में सुर मिलाना ही उचित समझा है। यही नहीं, राज्यसभा में इस निर्णय का दो तिहाई बहुमत से पारित होना निश्चित तौर पर कल्पना से परे है। मैंने इस निर्णय के असर के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को सुलझाने के अनगिनत विफल प्रयासों के इतिहास का विश्लेषण किया। 

विफल प्रयासों का इतिहास 
विलय के प्रस्ताव (इंस्ट्रूमैंट ऑफ एक्सैशन) पर अक्तूबर, 1947 में हस्ताक्षर किए गए थे। पश्चिमी पाकिस्तान से लाखों की संख्या में शरणार्थी पलायन कर भारत आ गए थे। पंडित नेहरू की सरकार ने उन्हें  जम्मू और कश्मीर में बसने की अनुमति नहीं दी थी। पिछले 72 वर्षों से कश्मीर पाकिस्तान का अपूर्ण एजैंडा रहा है। पंडित जी ने हालात का आकलन करने में भारी भूल की थी। वह जनमत संग्रह के पक्ष  में थे और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र को इस मुद्दे पर विचार-विमर्श करने की अनुमति दे दी। उन्होंने शेख मोहम्मद अब्दुल्ला पर भरोसा करके उन्हें इस राज्य की बागडोर सौंपने का निर्णय लिया। फिर इसके बाद वर्ष 1953 में उनका विश्वास शेख साहब पर से उठ गया और उन्हें जेल में बंद कर दिया। दरअसल, शेख ने इस राज्य को अपने व्यक्तिगत साम्राज्य में तबदील कर दिया था। उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य में कोई कांग्रेस पार्टी नहीं थी। कांग्रेसी दरअसल नैशनल कांफ्रैैंस के सदस्य थे। कांग्रेस की एक सरकार नैशनल कांफ्रैैंस के नाम से बना दी गई थी। इसके प्रमुख बख्शी गुलाम मोहम्मद थे। 

नैशनल कांफ्रैैंस के नेतृत्व ने ‘जनमत संग्रह मोर्चा’ के नाम से एक अलग समूह बना दिया था लेकिन नैशनल कांफ्रैंस का रूप धारण कर कांग्रेस आखिरकार चुनाव कैसे जीत पाती। वर्ष 1957, 1962 और 1967 के चुनावों में नि:संदेह धांधली हुई थी। अब्दुल खालिक नामक अधिकारी, जो श्रीनगर और डोडा दोनों के ही कलैक्टर थे, को रिटॄनग ऑफिसर बनाया गया था। इस अधिकारी ने घाटी में किसी भी विपक्षी उम्मीदवार का नामांकन नहीं होने दिया था। इन तीनों चुनावों में ज्यादातर कांग्रेसी निर्विवादित ही निर्वाचित हो गए थे। कश्मीर घाटी की जनता का केन्द्र सरकार में कोई विश्वास नहीं रह गया था। 

विशेष दर्जा देने और राज्य की बागडोर शेख साहब को सौंपने तथा बाद में कांग्रेस सरकारों के सत्तारूढ़ होने का यह प्रयोग एक ऐतिहासिक भूल साबित हुआ। पिछले सात दशकों के इतिहास से यह पता चलता है कि इस अलग दर्जे की यात्रा अलगाववाद की ओर रही है, न कि एकीकरण की ओर। इससे अलगाववादी भावना विकसित हो गई। पाकिस्तान ने इस हालात से लाभ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 

श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसके बाद शेख साहब को रिहा करने और बाहर से कांग्रेस का समर्थन सुनिश्चित कर एक बार फिर उनकी सरकार बनाने का एक प्रयोग किया। यह प्रयोग वर्ष 1975 में किया गया था। हालांकि कुछ ही महीनों के भीतर शेख साहब के सुर बदल गए और श्रीमती गांधी को यह स्पष्ट रूप से एहसास हो गया कि उन्हें नीचा दिखाया गया है। शेख साहब के निधन के बाद इसकी बागडोर नैशनल कांफ्रैंस के वरिष्ठ  नेताओं जैसे कि मिर्जा अफजल बेग को  सौंपी जानी चाहिए थी, लेकिन शेख साहब कश्मीर को अपनी पारिवारिक जागीर में तबदील करना चाहते थे। फारूक अब्दुल्ला इस तरह से शेख साहब के उत्तराधिकारी के रूप में मुख्यमंत्री बन गए। 

मुख्य धारा की पार्टी को मजबूती प्रदान करने की जगह 1984 के आरंभ में कांग्रेस ने सरकार को अस्थिर कर दिया। शेख साहब के दामाद गुल मोहम्मद की अगुवाई में नैशनल कांफ्रैंस के बागी गुट के साथ मिलकर और जोड़-तोड़ करके रातों-रात मुख्यमंत्री बदल दिया गया। शाह को मुख्यमंत्री बनाया गया। जाहिर तौर पर नया मुख्यमंत्री हालात पर काबू नहीं पा सका। उसके बाद के वक्तव्यों से सीधे तौर पर साबित होता था कि उनकी हमदर्दी अलगाववादियों के साथ है। 1987 में राजीव गांधी ने एक बार फिर से नीतियों को बदल दिया और फारूक अब्दुल्ला की नैशनल कांफ्रैंस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। चुनाव में भी धांधली हुई। कुछ उम्मीदवार जिन्हें जोड़-तोड़ करके हराया गया था, वे बाद में अलगाववादी और आतंकवादी तक बन गए। 

1989-90 तक हालात काबू से बाहर हो गए तथा अलगाववाद के साथ-साथ आतंकवाद की भावना जोर पकडऩे लगी। कश्मीरी पंडित जोकि कश्मीरियत का अनिवार्य भाग थे, उन्हें भारी अत्याचार बर्दाश्त करने पड़े। जातीय संहार किया गया और कश्मीरी पंडितों को घाटी से बाहर खदेड़ दिया गया। अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए के अंतर्गत विशेष दर्जा प्रदान करने की ऐतिहासिक भूलों की देश को राजनीतिक और वित्तीय, दोनों रूप से कीमत चुकानी पड़ी। आज जबकि इतिहास को नए सिरे से लिखा जा रहा है, उसने यह फैसला सुनाया है कि कश्मीर के बारे में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की दृष्टि सही थी और पंडित जी के सपनों का समाधान विफल साबित हुआ है। इन दोनों धाराओं का कश्मीर के विकास पर विपरीत असर पड़ा है। 

मोदी की कश्मीर नीति 
पिछले सात दशकों में समस्या को सुलझाने के लिए विभिन्न प्रयास किए गए। प्रधानमंत्री मोदी ने वैकल्पिक राह पर चलने का निर्णय लिया। सैंकड़ों की संख्या में अलगाववादी नेताओं और हथियारबंद  आतंकवादियों ने राज्य और देश को बंधक बना रखा था। देश ने हजारों नागरिकों और सुरक्षा कर्मियों को खोया। विकास पर खर्च करने की बजाय हम सुरक्षा पर खर्च कर रहे हैं। वर्तमान निर्णय यह स्पष्ट करता है कि जिस तरह देश के अन्य भागों में कानून का शासन है उसी तरह कश्मीर में कानून का शासन लागू होगा। 

सुरक्षा के कदम कड़े किए गए हैं। बड़ी संख्या में आतंकवादियों का सफाया किया गया है। उनकी संख्या में काफी कमी आई है। अलगाववादियों को दी गई सुरक्षा वापस ली गई। आयकर विभाग तथा एन.आई.ए. ने ऐसे  गैर-कानूनी संसाधनों का पता लगाया जो इन अलगाववादियों और आतंकवादियों को मिल रहे थे। इन दोनों श्रेणियों के बीच पिछले 10 महीनों में सैंकड़ों लोग पीड़ित हुए हैं लेकिन कश्मीर घाटी की बाकी आबादी ने दशकों बाद शांति का युग देखा है। अब घाटी में कश्मीरी मुस्लिम के अलावा किसी अन्य के नहीं रहने से लोग आतंकवाद के शिकार हो रहे हैं। बहुत लोग भय के कारण अन्य राज्यों में चले गए हैं। 

पी.डी.पी. तथा नैशनल कांफ्रैंस द्वारा यह दलील दी गई कि अनुच्छेद 370 तथा अनुच्छेद 35ए को खंडित करने से कश्मीर भारत से टूटकर अलग हो जाएगा क्योंकि यह देश और कश्मीर के बीच एक मात्र सशर्त संपर्क है। यह दलील स्पष्ट रूप से दोषपूर्ण है। अक्तूबर 1947 में परिग्रहण दस्तावेज (इंस्ट्रूमैंट ऑफ एक्सैशन) पर हस्ताक्षर किए गए। किसी भी व्यक्ति द्वारा एक बार भी अनुच्छेद 370 या अनुच्छेद 35ए का जिक्र नहीं किया गया। अनुच्छेद 370 संविधान में 1950 में आया। संविधान सभा में बहस 10 मिनट से भी कम हुई। सरकारी पक्ष के नेता चर्चा में शामिल नहीं हुए और एन. गोपालस्वामी आयंगर ने इस वचन के साथ प्रस्ताव रखा कि यह अस्थायी व्यवस्था है। 

इस विषय पर केवल एक सदस्य ने अपनी राय रखी। अल्पसंख्यक समुदाय के इस सदस्य ने अनुच्छेद 370 का विरोध नहीं किया। उन्होंने यह मांग की कि इसे उनके क्षेत्र में भी लागू किया जाए। आज केवल एक देश है जहां प्रत्येक नागरिक बराबर है। प्रारंभ में पंडित जी ने उच्चतम न्यायालय और चुनाव आयोग का क्षेत्राधिकार जम्मू-कश्मीर तक बढ़ाने की अनुमति नहीं दी। उन्होंने यह महसूस नहीं किया कि वे एक उपराष्ट्र  बना रहे हैं। शेख साहब को हटाने और उन्हेंं जेल में डालने के बाद ही इन संस्थानों का क्षेत्राधिकार जम्मू-कश्मीर तक हुआ। स्थिति को बदलने  के निर्णय में स्पष्टता, विजन तथा संकल्प की आवश्यकता थी। इसमें राजनीतिक साहस की भी जरूरत थी। प्रधानमंत्री ने संपूर्ण स्पष्टता और संकल्प  के साथ इतिहास बनाया है। 

दो क्षेत्रीय दलों की भूमिका 
दो क्षेत्रीय पाॢटयों के नेता भिन्न बातें बोलते हैं। अक्सर नई दिल्ली  में दिए गए उनके वक्तव्य आश्वासन देने वाले होते हैं। किन्तु श्रीनगर में वे भिन्न रूप में  बोलते हैं। उनका रवैया अलगाववादी वातावरण से प्रभावित है। यह एक ऐसा कटु सत्य है कि दोनों ने सरजमीं पर समर्थन खो दिया है। कई राष्ट्रीय पाॢटयों ने खुद को गुमराह होने के लिए छोड़ दिया है। राष्ट्रीय एकता के एक मुद्दे को धर्मनिरपेक्षता का एक मुद्दा बना दिया गया है। इन दोनों में सांझा कुछ भी नहीं है। 

इस पहल के व्यापक समर्थन ने कई विपक्षी दलों को भी पहल का समर्थन करने के लिए बाध्य कर दिया है। उन्होंने वास्तविकता का अनुभव किया है और वे लोगों की नाराजगी का सामना नहीं करना चाहते। यह एक पछतावा है कि कांग्रेस पार्टी की विरासत ने पहले तो समस्या का सृजन किया और फिर  उसे बढ़ाया, अब वह कारण ढूंढने में विफल है। 

उदाहरणस्वरूप, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में राहुल गांधी ने जब ‘टुकड़े-टुकड़े’ गैंग को समर्थन दिया था तब कांग्रेस के कार्यकत्र्ताओं की भी अलग राय थी। यह सरकार के इस फैसले के लिए लागू होता है। कांग्रेस के लोग व्यापक तौर पर इस विधेयक का समर्थन करते हैं। उनकी निजी और सार्वजनिक टिप्पणियां इस दिशा में हैं किन्तु एक दिग्भ्रमित के रूप में राष्ट्रीय पार्टी भारत की जनता से अपनी विरक्ति बढ़ा रही है। नया भारत एक बदला हुआ भारत है। केवल कांग्रेस ही इसे महसूस नहीं करती है। कांग्रेस नेतृत्व पतन की ओर अग्रसर है।-अरुण जेतली

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