बच्चों को मोबाइल की लत और माता-पिता की जिम्मेदारी

punjabkesari.in Wednesday, Aug 14, 2024 - 06:29 AM (IST)

गत  वर्ष की बात है। दिल्ली में एयरपोर्ट पर बैठी थी। बहुत भीड़-भाड़ थी। सामने एक युवा जोड़ा बैठा था। उनकी एक 3-4 साल की बच्ची थी, जो इधर-उधर दौड़ रही थी, खेल रही थी। एक 7-8  महीने का बच्चा प्रैम में बैठा था। बच्चे के हाथ में स्मार्ट फोन था। बच्चा उस पर कार्टून देख रहा था। बहुत देर तक ऐसा ही होता रहा। भाई को कार्टून देखते हुए, खेलती बच्ची भी मचलने लगी। उसने भी मोबाइल की मांग शुरू कर दी। तब पिता ने उसे भी मोबाइल पकड़ा दिया। वह भी उस पर कार्टून देखने लगी। थोड़ी देर में प्रैम में बैठा बच्चा रोने लगा। उसका कार्टून प्रोग्राम खत्म हो गया था। बस मां ने उसके हाथ से मोबाइल लिया और दूसरा प्रोग्राम लगा दिया। बच्चा रोना बंद करके फिर से देखने लगा। यह सब इस लेखिका ने 2 घंटे तक देखा। एक बार भी माता-पिता ने बच्चों के हाथों से मोबाइल्स नहीं लिए। फ्लाइट का समय हो गया था तो सब अपने-अपने रास्ते चले गए। इन बच्चों ने कितने घंटे स्क्रीन पर बिताए होंगे। पूरे महीने वे कितना समय देते होंगे, पूरे साल कितना, इसका आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। 

यह तो एक परिवार की बात हुई। ऐसी खबरें आती रहती हैं कि माता-पिता बच्चों के प्रश्नों और उनकी शैतानियों से बचने के लिए उनके हाथों में मोबाइल थमा देते हैं। डाक्टर भले ही कहते रहें कि बच्चों के हाथ में मोबाइल नहीं देना चाहिए इससे उनकी आंखों पर प्रभाव पड़ता है। हर समय बैठे रहने से वे अस्वस्थ हो जाते हैं। उनका चिड़चिड़ापन भी बढ़ता है। उन्हें खेलने-कूदने, अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने का अवसर देना चाहिए। मैट्रो में भी ऐसा ही होते देखती हूं। यहां तक कि माता-पिता जब अपने किसी मित्र के घर जाते हैं तो वे बच्चों को मोबाइल पकड़ा देते हैं और खुद बातचीत में मशगूल हो जाते हैं। यहां तक कि बच्चे खाते-खाते भी मोबाइल नहीं छोड़ते। बच्चे जिज्ञासाओं के कारण सवाल पूछते हैं। उन्हें जवाब मिलता है तो वे आगे की बात खुद सोचते हैं। उनकी कल्पना शक्ति बढ़ती है। छोटे बच्चे सोचने में बहुत प्रवीण होते हैं। मोबाइल उनकी जिज्ञासाओं का कोई समाधान नहीं करता। न जाने क्यों बार-बार चेताने के बाद भी घर वाले इस तरफ ध्यान नहीं देते हैं। बहुत से स्कूलों में मोबाइल पर पाबंदी है लेकिन फिर भी कई बच्चे चुपके-चुपके इसे लाते हैं। माता-पिता कहते हैं कि बच्चे के पास मोबाइल हो तो वे उसकी सुरक्षा को लेकर निश्चिंत हो जाते हैं कि कोई बात होगी तो बच्चा तत्काल बता सकेगा। 

कोरोना के दौर में हमने जब आन लाइन क्लासेज को मोबाइल के जरिए होते देखा था तो बहुत से बच्चे घंटों मोबाइल पर क्लास अटैंड करते थे। क्लास न हो तो वे गेम खेलते थे। कुछ बड़े बच्चे पोर्न देखने से भी परहेज नहीं करते थे। उस समय ऐसी रिपोर्ट्स आई थीं कि माता-पिता कहते हैं कि वे क्या करें। चौबीस घंटे बच्चों पर किस तरह से नजर रखें। बच्चे घर में बंद हैं, बाहर जाकर खेल नहीं सकते तो हम क्या करें। हमें भी तो बहुत से घर और दफ्तर के काम हैं। यही बात अध्यापक कहते हैं कि वे हर रोज बीसियों बच्चों को पढ़ाते हैं। अगर यही देखते रहें कि किस बच्चे के पास मोबाइल है और किस के पास नहीं तो पढ़ाएं कब। हाल ही में एक छह वर्ष के बच्चे के बारे में पढ़ा था कि उसके माता-पिता ने 3 वर्ष की आयु में उसे मोबाइल दिया था। 6 वर्ष का होते-होते मोबाइल देखने की आदत एक बुरी लत में बदल गई। बच्चा न किसी से बोलता था न कुछ और करता था। यहां तक कि उसे दो शब्द जोड़कर बोलने में भी कठिनाई होने लगी। इसी खबर में कहा गया था कि एक अस्पताल में छोटे-छोटे बच्चे न बोल पाने के कारण इलाज कराने के लिए लाए जा रहे हैं। इनमें ज्यादा बच्चे 5 से 7 वर्ष तक के हैं। छह माह में उनके पास 110 बच्चे आ चुके हैं जिनमें से 100 को स्पीच थैरेपी दी गई। 

माता-पिता से पूछने पर यही पता चला कि उनके बच्चों को 10-10 घंटे मोबाइल देखने की आदत है। मोबाइल लेने पर वे नाराज हो जाते हैं। रोने लगते हैं। जब तक वापस न मिले कोई बात नहीं मानते। उन्हें भूख लगी है या कुछ और करना है इस बारे में भी नहीं बताते। इससे उनका भाषा ज्ञान भी कम होता है। कब किस बात के लिए क्या कहना है यह भी पता नहीं चलता। बड़े शहरों में तो इस तरह के इलाज की सुविधा है। छोटे शहर और गांव के बच्चे और उनके माता-पिता क्या करेंगे। कायदे से तो माता-पिता को शिक्षित करने का अभियान तमाम प्रचार माध्यमों द्वारा चलाया जाना चाहिए। उन्हें बताया जाए कि छोटे बच्चों के हाथों में मोबाइल थमाने के नुकसान उन्हें जीवन भर भुगतने पड़ सकते हैं।-क्षमा शर्मा
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Related News