मॉब लिंचिंग : केवल ‘न्यायपालिका’ का ही सहारा, लेकिन...

Wednesday, Jul 24, 2019 - 03:06 AM (IST)

तबरेज, पहलू खान, जुनैद, अखलाक और दर्जनों अन्य मारे गए। मूल कारण : घर में या टिफिन में या साइकिल पर या ट्रक में गौवंश या गौमांस होने का शक। अन्य कारण:‘वन्दे मातरम्’ या ‘भारत माता की जय’ बुलवाने पर उनका नए  ‘राष्ट्र भक्ति टैस्ट’ में फेल होना या कई बार महज पोशाक या चेहरे पर दाढ़ी के आधार पर हमला कर राष्ट्रवाद की सीख देना अथवा शक करना (कई बार हकीकत भी) कि पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगा रहा था या आदमी का बच्चा या कई बार बकरी का बच्चा चुरा रहा था। 

तरीका :भीड़ में उन्माद पैदा करना और फिर इन्हें पीट-पीट कर मार देना। आदत बढ़ती गई तो अब ये सामान्य चोर या चोरी के शक में भी मारने लगे हैं जैसे बिहार के छपरा और वैशाली में। ‘राष्ट्रवाद’ इन दिनों गौमाता या गौमांस, वन्दे मातरम् और भारत माता से फिसलता हुआ आदतन ‘भीड़ न्याय’ में बदल चुका है। भारत के संविधान की प्रस्तावना के प्रथम वाक्य ‘हम भारत के लोग’ का स्थान शायद ‘हम भीड़ तंत्र के लोग’ लेता जा रहा है। 

2014 के आम चुनाव के एक साल पहले उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुए दंगों, जिनमें 65 लोग मारे गए थे और बलात्कार की कई घटनाएं हुई थीं, के 41 मामलों में से 40 में अभियुक्तों को ट्रायल कोर्ट ने बरी कर दिया और जिस एक मामले में आजीवन कारावास की सजा हुई उन सात अभियुक्तों के नाम हैं- मुजम्मिल, मुजस्सिम, फुरकान, नदीम, जनन्गिर, अफजल और इकबाल, जिन पर आरोप था कि पहले इनकी बहनों से छेडख़ानी की और फिर विरोध करने पर गौरव और सचिन को मार डाला। उसके बाद जो हमला मुसलमानों पर किया गया, आगजनी और बलात्कार की घटनाएं हुईं उनके आरोपी साक्ष्य के अभाव, कमजोर साक्ष्य, गवाहों, यहां तक कि पुलिसवालों के मुकर जाने के कारण छूट गए। बलात्कार के एक मामले में पीड़िता ने अदालत में बताया कि पुलिस ने 3 महीने बाद मैडीकल जांच करवाई। 

अखिलेश यादव की सरकार का समय भी था और 2017 से भारतीय जनता पार्टी की योगी सरकार है। हमला करने वालों में अधिकांश आसपास के गांवों के जाति-विशेष के लोग  थे। अखिलेश यादव ने इस जाति के नेता से 2017 के चुनाव में हाथ मिलाया था जबकि भाजपा ने भी इस वोट बैंक पर पूरी नजर रखी थी। अफसोस की बात यह है कि भारत की अपराध प्रक्रिया संहिता के सैक्शन 176 और 190 अदालत को अधिकार देते हैं कि वह पूरी जांच फिर से करा सके लेकिन उसका उपयोग शायद ही होता हो। 

न्यायालय की भूमिका
एक विज्ञापन में आता है ‘सब कुछ आंधी में उड़ गया पर परफ्यूम बच गया’। आज केवल न्यायपालिका ही जन-विश्वास के सहारे के रूप में बची है। यह सही है कि भारत में एक्युजिटोरियल न्याय व्यवस्था है, जिसमें अभियोग पक्ष आरोप लगाता है, अभियोग पत्र दाखिल करता है, गवाह खड़े करता है और दूसरी तरफ से अपने बचाव में अभियुक्त भी यही सब करता है।

अदालत क्रिकेट के उस अम्पायर की मानिंद है जो गेंद बगैर फील्ड टप्पा पड़े बाऊंड्री के पार जाए तो दोनों हाथ उठा कर और टप्पा पड़ कर जाए तो समानान्तर हाथ हिला कर फैसला देता है, साक्ष्य के अभाव में बरी करती है, पुलिस साक्ष्य ले आए तो सजा कर देती है, बगैर यह सोचे कि साक्ष्य कैसे बनाए या पलटाए जाते हैं या आखिर मुजफ्फरनगर दंगों में 65 लोग कैसे ‘मर’ (या मारे) जाते हैं और कैसे दर्जनों घरों में आग लगा दी जाती है या कैसे गांव की महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है और फिर भी कोई अपराधी नहीं होता। कुछ देशों, जैसे फ्रांस में इन्क्वीजिटोरियल सिस्टम है, जिसमें अदालत सत्य जानने के प्रति आग्रह रखती है, लिहाजा सत्य जानने के लिए जांच में भी भूमिका निभाती है। 

घर में गौ-मांस के शक पर अखलाक को मार दिया गया, पर आरोपी नोएडा में मुख्यमंत्री के आने पर पहली पंक्ति में बैठता है। रकबर खान को अलवर में जब मारा जा रहा था तो पीटने वालों में अग्रणी भूमिका निभाते हुए कुछ लोगों ने बुलंद आवाज में कहा ‘‘एम.एल.ए. साहब हमारे साथ हैं, हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।’’ इसमें भले ही ‘एम.एल.ए. साहब’ की कोई गलती हो या न हो, कानून को हाथ में लेने वाली भीड़ को यह मालूम था कि इस (कुकृत्य) की कोई सजा नहीं होती, अगर एम.एल.ए. साहब साथ हैं या ऐसा कह कर सिस्टम को (जिसमें कानून प्रक्रिया भी है) डरवाया जा सकता है अर्थात ऐसा भरोसा कि कानून व्यवस्था को एक विधायक पंगु बना सकता है। और यह भरोसा हो भी क्यों न।  उन्नाव के एक विधायक ने न केवल बलात्कार किया, बल्कि शिकायत करने पर सरेआम लड़की के बाप को पीट-पीट कर मरवा दिया और पुलिस ने गिरफ्तार भी किया तो लड़की के परिजनों को। 

संविधान के लिए खतरा  
और फिर जब उसी भाव को प्रश्रय देने वाले अगुवा लोग यह बयान देते हैं कि ‘लोग गौ मांस खाना छोड़ दें तो भीड़ न्याय बंद हो जाएगा यानी पहलू खान, रकबर,जुनैद या अखलाक सड़कों पर पीट-पीट कर नहीं मारे  जाएंगे तो यह सलाह से ज्यादा धमकी लगती है, एक ऐसी धमकी जो संविधान के लिए खतरा बनती जा रही है। बयान देने वाले ने यह नहीं कहा कि संसद गौ हत्या या गौमांस के खिलाफ सख्त कानून बनाए क्योंकि इससे जनोन्माद-जनित वोट का कोई रिश्ता नहीं होता और फिर उसे यह भरोसा नहीं है कि कानून का पालन हो सकेगा। और संभवत: इसी भाव का विस्तार आगे होता रहा तो एक दिन यह बयान भी आ सकता है कि ‘महिलाएं विरोध न करें तो बलात्कार होगा ही नहीं’ और तब भारत एक आदिम सभ्यता में फिर वापस चला जाएगा जिससे निकलने में हजारों साल लगे। ये सब तब होता है जब कानून प्रत्यक्ष रूप से काम नहीं करता है, न्यायपालिका दशकों तक फैसले नहीं करती और फिर अगर करती भी है तो धमकी के कारण गवाह मुकर चुके होते हैं, लिहाजा न्याय मूकदर्शक बन जाता है।

पिछले हफ्ते सर्वोच्च न्यायालय ने ‘भीड़ न्याय’ के खिलाफ सख्त रुख तो दिखाया लेकिन घटनाएं बढ़ गईं क्योंकि चेतावनी यह होनी चाहिए थी कि अगर भीड़ न्याय की घटना हुई तो यह मान कर कि प्रशासन जिले में असफल रहा, लिहाजा एस.पी. और डी.एम. को अगले 10 साल तक प्रोन्नति नहीं मिलेगी तो न तो विधायक का जोर चलेगा, न ही संविधानेत्तर दुष्प्रयास होंगे और न ही कानून व्यवस्था का ‘भीड़ न्याय’ रूपी खतरनाक विकल्प तैयार होगा।-एन.के. सिंह 
 

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