मायावती ‘मनुवाद’ का अंधा विरोध करना छोड़े

punjabkesari.in Friday, Mar 24, 2017 - 11:18 PM (IST)

कोई एक जाति के भरोसे सत्ता हासिल नहीं कर सकता है। एक समूह के बीच उफान पैदा कर व रक्तरंजित घृणा फैला कर भी कोई सत्ता हासिल नहीं कर सकता है। सत्ता हासिल करने के लिए दूसरी जाति और दूसरे समूहों के बीच से समर्थन हासिल करना जरूरी है। यह बात और यह समीकरण बार-बार चुनावों में साबित हो रहे हैं पर भारतीय राजनीति में अभी कुछ ऐसे राजनीतिज्ञ और कुछ ऐसी राजनीतिक पार्टियां हैं जो बार-बार मात खाने के बाद भी समझने के लिए तैयार नहीं है।उदाहरण के लिए मायावती को इस कसौटी पर देखा जा सकता है। 

अभी-अभी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मायावती को भारी हार मिली है और उनकी सारी खुशफहमियां जमींदोज हो गईं, दलित और मुस्लिम वोट बैंक के सहारे सत्ता फिर हासिल करने के उसके सपने टूट गए हैं। फिर भी मायावती वास्तविकता को समझने और अपनी राजनीतिक प्रवृत्तियों को बदलने के लिए तैयार नहीं है। सर्वजन शक्ति को वह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। भड़काऊ बयान देना, जनमत की कसौटी को नकारना उसकी एक ऐसी प्रवृत्ति है जो कभी रुकती नहीं है बल्कि आत्मघाती बन कर मायावती पर ही कहर बरपाती है। 

क्या यह सही नहीं है कि मायावती अपनी हार को स्वीकार करने की जगह ई.वी.एम. पर दोष मढ़ रही है। क्या यह सही नहीं है कि ई.वी.एम. आधारित वोट पर ही मायावती ने 2007 में सत्ता हासिल की थी। लोकतंत्र में हार को भी शालीनता के साथ स्वीकार करने की परम्परा रही है। पिछला लोकसभा चुनाव परिणाम भी एक सबक था फिर भी मायावती ने उस संदेश की अनदेखी करने और इसे न समझने की गलती दोहराई। आपको याद होना चाहिए कि पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में मायावती को एक भी सीट नहीं मिली थी। लोकसभा में मायावती की पार्टी का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। अगर मायावती लोकसभा चुनावों के परिणामों को देख कर नई रणनीतियां बनाती और मनुवाद विरोध का झुनझुना बजाने की जगह वास्तविक रूप से दलितों की भलाई करने वाली रणनीतियां आगे रखती तो शायद वह चुनौतीपूर्ण राजनीतिक शक्ति निर्मित कर सकती थी। 

समाज में वैमनस्य पैदा करना आसान है। समाज में वैचारिक आग लगाना आसान है, हिंसक बनाना आसान है, घृणा पैदा करना आसान है पर निर्णायक और अपराजेय शक्ति नहीं बनाई जा सकती है। यह सही है कि दलितों का जितना उत्पीडऩ हुआ है, जितना अत्याचार हुआ है, जितना अपमान हुआ है उसकी कोई सीमा नहीं बताई जा सकती है, दलित आज भी किसी न किसी रूप में अपमानित हो रहे हैं और हाशिए पर ही खड़े हैं। पर यह कहना भी सही नहीं है कि भारतीय समाज बदला नहीं है, दलितों के प्रति सोच नहीं बदली है। भारतीय समाज बदला है, दलितों के प्रति सोच में बदलाव आया है। पुरानी रूढिय़ां टूट रही हैं।

आर्थिक शक्ति भी एक यक्ष प्रश्न रहा है। आरक्षण और राजनीतिक शक्ति के कारण दलितों के प्रति सोच बदली है। आरक्षण के कारण दलित भी संपन्न हुए हैं, ताकतवर हुए हैं और राजनीतिक शक्ति निर्मित होने के कारण भी दलित ताकतवर हुए हैं, दलितों के खिलाफ होने वाले अपराधों में इसी दृष्टिकोण से कमी आई है, इस सच्चाई को स्वीकार किया जाना चाहिए पर मायावती जैसी मानसिकता इस सच्चाई को कभी स्वीकार करती ही नहीं है।

यह भी सही है कि राजनीतिक शक्ति से और आरक्षण की शक्ति से सभी दलितों को लाभ नहीं हुआ है, दलितों का बहुत बड़ा भाग आरक्षण और राजनीतिक शक्ति से मिलने वाले लाभ से वंचित है। बहस इस बात पर हो सकती है लेकिन होती नहीं। अगर बहस होगी तो दलितों का एक हिस्सा जो अधिकतर दलितों पर कुंडली मार कर बैठा है वह बेपर्द हो जाएगा।

प्रमाणित और निर्णायक तौर पर मायावती न तो कांशी राम हैं और न ही भीमराव अम्बेदकर हैं। कांशी राम और भीम राव अम्बेदकर को दौलत नहीं चाहिए थी, सम्पत्ति से इन्हें कोई मोह नहीं था। इनकी केवल इच्छा दलितों की उन्नति और उत्थान था, जिनके लिए ये लड़े। कांशी राम पार्टी और संगठन में आए पैसे कार्यकत्र्ताओं के बीच वितरित करते थे इसलिए कांशी राम के प्रति दलितों का सम्मान जारी है।

अम्बेदकर कहा करते थे कि सिर्फ उफान पैदा करने से और गाली देने मात्र से दलितों का उत्थान नहीं होगा, उन्नति नहीं होगी। वे रचनात्मक कार्य पर ज्यादा केन्द्रित थे। पढऩे-लिखने और योग्य बनने की शिक्षा अम्बेदकर देते थे। सिर्फ  इतना ही नहीं बल्कि दलितों के अंदर की रूढिय़ों पर भी अम्बेदकर चोट करते थे। 

दलित में सिर्फ मायावती की ही जाति नहीं है, दलितों के अंदर में कई जातियां हैं। निर्णायक और प्रमाणित तौर कहा जा सकता है कि दलित की सभी जातियों में कोई विशेष परस्पर संबंध नहीं है, शादियां तक नहीं होती हैं। दलित की कई जातियां एक-दूसरे को कमतर और अछूत मानती हैं। ये विसंगतियां और असमानता राजनीतिक शक्ति से दूर नहीं हो सकती है बल्कि इसके लिए अम्बेदकर जैसी रचनात्मक सक्रियता से दूर हो सकती है। दलितों के बीच आज रचनात्मक कार्य कहां हो रहा है। सिर्फ और सिर्फ दलितों को उकसा कर राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं। दलितों को अगड़ों और पिछड़ों से लड़ाने का राजनीतिक कार्य जारी है। बदले की भावना कितना मूर्खतापूर्ण कार्य है यह कौन नहीं जानता है। 

मात्र मनुवाद के रक्तरंजित विरोध से मायावती को कभी सत्ता हासिल नहीं हो सकती है। मायावती ने खुद यह स्वीकार कर लिया है पर फिर भी वह मनुवाद विरोध पर अडिग रहती है। 2007 में मायावती को जो सत्ता मिली थी वह सर्वजन सुखाय और सर्वजन हिताय के सिद्धांत पर मिली थी। विकल्प का भी अभाव था। मुलायम की सत्ता तब अराजक थी और भाजपा खुद कमजोर थी। तब मायावती ने मुस्लिम, दलित और ब्राह्मण गठजोड़ के बल पर सत्ता हासिल की थी। 

उस समय मायावती के पास पूरा बहुमत था। उसकी सरकार 5 सालों तक चली थी। उसकी कोई लंगड़ी सरकार नहीं थी। इसलिए कोई बहाना नहीं था कि उसके पास पूर्ण बहुमत नहीं था और उसकी सरकार लगड़ी थी इसलिए काम करने का अवसर नहीं मिला। वह चाहती तो दलितों की तस्वीर बदल सकती थी। दलित अपना उत्थान कर सकते थे और अपने आप को शक्तिशाली बना सकते थे। दलितों के नाम और दलितों की शक्ति पर राजनीति करने वाली और सत्ता में बैठने वाली मायावती ने अपने 5 साल के शासनकाल में कुछ विशेष नहीं किया था।  


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