अधिकतम खुदरा मूल्य की छूट, उपभोक्ताओं से लूट
punjabkesari.in Saturday, Aug 07, 2021 - 03:57 AM (IST)

कोई भी व्यापार, कारोबार करने वाले, उद्योग-कारखाना लगाने वाले व्यक्ति का सब से पहला लक्ष्य यह होता है कि मुनाफा या प्रॉफिट हो लेकिन यह कितना हो, इसकी कोई सीमा नहीं! सरकार का कोई एेसा कानून भी नहीं है और न ही कोई फार्मूला, जो तय करे कि कितना माॢजन रखा जाए। यह सब निर्माता के नियंत्रण और मर्जी पर निर्भर है कि वह अपने उत्पाद की कितनी कीमत रखे।
एम.आर.पी. का अर्थ : आपने देखा होगा कि अक्सर जब आप खरीददारी करने जाते हैं तो अन्य बातों के अतिरिक्त मूल्य पर भी नजर डालते हैं। मान लीजिए उस पर 1000 रुपए लिखा है, आपको महंगी लगती है और आप बाहर जाने को होते हैं तो दुकानदार या उसके कर्मचारी आपके पास आकर वह वस्तु कम दाम पर बेचने की पेशकश करते हैं। आप आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि वह वस्तु उस पर छपी कीमत से आधे दाम पर आपको मिल सकती है। यह मोलभाव, छपी कीमत से आधे से भी कम दाम पर वस्तु का मिल जाना बताता है कि बहुत झोल और निर्माता व दुकानदार की मिलीभगत से आपको ठगने का प्रयास है। क्या उपभोक्ता संरक्षण कानून में ऐसी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए कि इस स्थिति में आप निर्माता और दुकानदार के खिलाफ धोखाधड़ी की कार्रवाई कर सकें?
एम.आर.पी. का सामान्य अर्थ यही है कि छपी कीमत से ज्यादा नहीं वसूली जा सकती, सब जगह एक ही दाम होंगे। यहां तक तो ठीक है लेकिन इस बात की क्या गारंटी कि किराए-भाड़े के नाम पर ज्यादा दाम नहीं देने होंगे, पुराने स्टाक को नया बताकर वस्तु पर बढ़ी कीमत का एक और स्टीकर लगाकर ज्यादा दाम नहीं वसूले जाएंगे?
निर्माता, विक्रेता और ग्राहक : किसी जमाने में ग्राहक को भगवान मानकर दुकानदार द्वारा उसे पूरी तरह संतुष्ट कर चीज बेचने का चलन था, आज उपभोक्ता संरक्षण कानून होते हुए भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ठगी, बेईमानी, धोखाधड़ी नहीं होगी। इस बात का कोई मतलब नहीं रहा कि विक्रेता और खरीददार के संबंध कितने पुराने हैं और दोनों को एक-दूसरे पर कितना भरोसा है कि कोई चालबाजी नहीं होगी।
हकीकत यह है कि निर्माता हो या विक्रेता, उसकी ग्राहक से जान पहचान कितनी भी हो, कितने भी पुराने संबध हों, जब ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की बात हो, किसी का कोई मतलब नहीं होता।
एम.आर.पी. का गोरखधंधा ऐसा है कि ग्राहक समझ नहीं पाता कि किस पर विश्वास करे और इस दुविधा में वह वस्तु की क्वालिटी, उसका नापतोल, वजन और दूसरी जरूरी बातों पर ध्यान देना भूलकर केवल दाम कम कराने पर जोर देता रहता है। वह यह भी नजरंदाज कर देता है कि विशेषकर बिजली से चलने वाले उपकरणों के मामले में दाम से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि जो वस्तु वह खरीद रहा है, वह कितनी सुरक्षित है। कहीं उस पर ‘महंगा रोए एक बार और सस्ता रोए बार-बार’ की कहावत तो लागू नहीं हो रही?
एक और बात यह कि चाहे छपी हुई एम.आर.पी. से अधिक न लेने की बंदिश विक्रेता पर हो लेकिन वह उसे न मानकर बढिय़ा सॢवस देने के नाम पर आपसे बहुत अधिक कीमत वसूल करने के लिए आजाद है, खास तौर पर होटल, रेस्तरां, थिएटर, ट्रेन या हवाई यात्रा में उस पर कोई कानून लागू नहीं होता। यह अनफेयर ट्रेड प्रैक्टिस नहीं है तो और क्या है? यह उपभोक्ता अधिकारों का हनन तथाकानून का मजाक भी है जिसके बारे में न तो सरकार और न ही उपभोक्ता संगठन कोई कार्रवाई करते हैं। इस स्थिति में एम.आर.पी. का मतलब ही क्या रह जाता है? यह घोटाला है जो निर्माता और सप्लायर मिलकर करते हैं और उपभोक्ता ठगे जाने के लिए मजबूर है।
उल्लेखनीय है कि एम.आर.पी. की बदौलत सब से ज्यादा ठगी का शिकार दवाइयां, चिकित्सा उपकरण खरीदने वाले होते हैं, जिनके लिए अक्सर कीमत से ज्यादा बीमारी से छुटकारा पाना अहमियत रखता है। अस्पताल में इलाज करा रहे मरीजों की तो और भी मुसीबत है। उनसे तो मानो एक के चार वसूल करना अस्पताल का अधिकार ही है और अगर कहीं आपने बीमा पॉलिसी ली हुई है तब तो एम.आर.पी. से कई गुना रकम बिल में जोड़ दी जाती है।
हल क्या है : अगर ऐसी व्यवस्था बनाई जाए कि सरकार मूल्य नियंत्रण करते हुए कीमत तय करे तो यह एक और बुराई को जन्म देगा क्योंकि इससे इंस्पैक्टरी राज के लौटने की पूरी संभावना है। हालांकि सरकार कानून द्वारा यह सुनिश्चित कर सकती है कि कीमत तय करने का कोई फार्मूला अपनाया जाए और तय मानकों के अनुसार मूल्य निर्धारण हो लेकिन इसमें सब से बड़ा खतरा यह है कि इससे भ्रष्टाचार बढ़ सकता है क्योंकि अफसरों की मुट्ठी गरम करने से मनमानी कीमत निर्धारित कराई जा सकती है।
एक तरीका यह भी है कि विक्रेता, दुकानदार और सप्लायर पर कीमत तय करने का काम छोड़ दिया जाए और वे स्थानीय परिस्थिति, प्रतियोगिता और वस्तु को लाने पर खर्च हुए भाड़े तथा अन्य खर्चों को ध्यान में रखते हुए कीमत तय करें और ग्राहक को भी यह सुविधा हो कि वह वस्तु की गुणवत्ता के आधार पर मोलभाव कर सके।यह भी हो सकता है कि निर्माता की ओर से वस्तु का होलसेल और खुदरा मूल्य सुझाया जाए जिसके आधार पर उसका बिक्री मूल्य तय किया जा सके जो ग्राहक की खरीदने की क्षमता पर निर्भर हो। इससे होगा यह कि विक्रेता बहुत अधिक दाम रखने से बचेगा क्योंकि उसे डर रहेगा कि ग्राहक कहीं और भी खरीददारी करने जा सकता है।
एक तरीका यह भी है कि फिक्की, चैंबर ऑफ कॉमर्स और ऐसे ही संस्थान उपभोक्ता संगठनों और निर्माताओं के साथ विचार-विमर्श कर कोई फार्मूला बनाएं जिसके आधार पर खुदरा मूल्य तय किए जा सकें। ये संस्थान इस बात की भी गारंटी लें कि निर्माता द्वारा निर्माण करते समय गुणवत्ता और सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा गया है और वस्तु सभी सरकारी मानकों पर खरी है। इसी के साथ गुमराह करने वाले विज्ञापन प्रकाशित किए जाने पर कठोर कार्रवाई का प्रावधान हो। इसमें सरकार की जिम्मेदारी सब से अधिक है क्योंकि उपभोक्ता संरक्षण के लिए वही जिम्मेदार है।-पूरन चंद सरीन