बहुत कुछ कहती हैं मायावती-सोनिया व दुल्लट-दुर्रानी की पुस्तक विमोचन की तस्वीरें

punjabkesari.in Tuesday, May 29, 2018 - 03:14 AM (IST)

गत सप्ताह दो ऐसी तस्वीरें मीडिया में छाई रहीं जो एक-दूसरी को बल प्रदान करने वाली हैं और शायद यही तस्वीरें राष्ट्रीय मामलों के अगले दौर को परिभाषित करेंगी। हालांकि इन दोनों छवियों को ‘गेम चेंजर’ कहना अभी काफी समय पूर्व की बात होगी फिर भी इनमें काफी बड़ी संभावनाएं छिपी हुई हैं। एच.डी. कुमारस्वामी के मुख्यमंत्री शपथ ग्रहण समारोह के मौके पर विपक्षी नेताओं का अब तक का सर्वग्राही और इंद्रधनुषीय जमावड़ा लगभग एक रिकार्ड था। 

इसका सबसे महत्वपूर्ण पहलू तो यह है कि अपने अंतॢनहित विरोधों के बावजूद इतनी भारी संख्या में विपक्षीय पाॢटयों के दिग्गज नेता बेंगलूर में एक मंच पर प्रस्तुत हुए। इस अप्रतिम मौके ने जिस एक व्यक्ति का अभ्युदय किया बेहतर होगा कि हम भी उसका संज्ञान लें, वह व्यक्ति है जामिया मिलिया इस्लामिया का पढ़ा हुआ जद (एस.) का प्रवक्ता कुंवर दानिश अली। इस व्यक्ति को कांग्रेस और जद (एस.) दोनों ही खेमों में काफी अधिक विश्वसनीयता हासिल है और इसी कारण वह इन दोनों को कर्नाटक में गठबंधन का रूप दे सका। उसका यही प्रयास एक ऐसा मंच बन गया जिस पर भारत के हर रंग के भाजपा विरोधी तत्व मिल-बैठे। इस व्यापक गठबंधन का जुगाड़ करने के लिए दानिश अली को उन सभी लोगों से प्रशंसा मिल रही है जो उनके बारे में जानते हैं। 

वैसे राजनीति में जितने भी मुस्लिम हैं या तो जीवन के अनेक रंग देख चुके अनुभवी लेकिन थके-मांदे लोग हैं या फिर इतने अधिक इस्लामी रंगत में रंगे हुए हैं कि अलग-अलग विचारों वाले लोगों में खुद को सहज महसूस नहीं करते। मेरे विचार में दानिश अली एक ऐसे राजनीतिक प्राणी हैं जिनकी पहुंच बहुत दूर-दूर तक है, इसके बावजूद वह अपनी धार्मिक मान्यताओं को पूरी तरह निजी जीवन की सीमाओं में बांधे रखते हैं। यदि कर्नाटक का राजनीतिक प्रयोग सफल रहता है तो हमें दानिश अली के बारे में बहुत-सी अन्य बातें भी सुनने को मिलेंगी। 

बेंगलूर में विपक्षी राजनीतिज्ञों के जमावड़े की तस्वीर जैसी ही एक अन्य और काफी जिज्ञासापूर्ण छवि थी एक पुस्तक का विमोचन। यह विमोचन कार्यक्रम निश्चय ही राष्ट्र के लिए कुछ घंटों का गंभीर खतरा रहा होगा क्योंकि क्लैरिजिस होटल के सभागार में सभी लोग पूर्व आमंत्रित थे इसके बावजूद वह पूरी तरह भरा हुआ था। वहां पर वर्तमान और गुजरे जमाने के जासूसों का जमावड़ा था। पुस्तक का नाम भी बहुत हिमाकत और दिलेरी भरा है और इस कारण से भी काफी रोचक है- ‘‘स्पाई क्रॉनिकल्स, रॉ, आई.एस.आई. एंड इल्यूजन आफ पीस (जासूसीनामा, रॉ, आई.एस.आई. और शांति की मृगतृष्णा)।’’ 

लेकिन जैसे ही पुस्तक के लेखकों के बारे में आपको पता चलता है तो आपकी सांसें भी थम जाती हैं। दोनों लेखकों के एक साथ आने की तो कल्पना तक करना मुश्किल है। एक हैं रॉ के पूर्व प्रमुख ए.एस. दुल्लट और दूसरे हैं पाकिस्तानी आई.एस.आई. के पूर्व प्रमुख असद दुर्रानी। दोनों ने अपने-अपने पद की वफादारियों से कोई समझौता किए बिना 320 पृष्ठों का एक ऐसा दस्तावेज तैयार किया है जो आने वाले समय में उन लोगों के लिए जानकारी और मार्गदर्शन का अनिवार्य स्रोत होगा जो कश्मीर और भारत-पाक रिश्तों की नीतियों का निर्धारण करते हैं। बेंगलूर में अति शक्तिशाली पदों पर बैठे लोगों का यह जमावड़ा और दुल्लट-दुर्रानी का दिलेराना प्रयास दोनों एक ही राष्ट्रीय प्रश्र का जवाब ढूंढते हैं कि उपमहाद्वीप को अधिक मानवीय एवं सुखद कैसे बनाया जाए। खेद की बात है कि उपमहाद्वीपीय हकीकतों से टूट कर भारत का अपने आप में अधिक शांत बनना संभव ही नहीं और इसी तरह पाकिस्तान के मामले में भी यह संभव नहीं। 

1947 में जो कुछ हुआ वह वरदान और अभिशाप दोनों ही था। हम अलग-अलग राष्ट्रों को अपनी जानकारी और ज्ञान के अनुसार परिभाषित कर सकते हैं। लेकिन इन घटनाओं के संग-संग हम दोनों राष्ट्र एक साथ भूगोल की जंजीरों में भी जकड़े हुए हैं। इन्हीं जंजीरों से वे ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय धाराएं फूटती हैं जो न केवल भविष्य की ओर अग्रसर होती हैं बल्कि अतीत की ओर भी गडग़ड़ाहट के साथ लौटती हैं। उपमहाद्वीप के गुरुत्व केंद्र से मुक्त होने का सबसे पहला सटीक प्रयास पूर्व पाकिस्तानी तानाशाह जनरल जिया उल हक द्वारा किया गया था। पाकिस्तान में ‘निजाम-ए-मुस्तफा’ स्थापित करने के उनके प्रयास से इस्लाम से भयभीत होने के एक नए रुझान का सृजन हुआ जो कालांतर में आधुनिक आतंकवाद के दैत्य के रूप में अवतरित हुआ। जब भारत-पाक संबंधों में आ रहे उतार-चढ़ाव कभी न समाप्त होने वाली दुश्मनी के आगे दम तोड़ते हुए लग रहे हैं, ऐन उस समय दुल्लट-दुर्रानी का प्रवेश होता है जो एक दमघोटू और उमस भरे माहौल में ठंडी-ताजी हवा की खिड़की खोलने जैसा है। 

यह पुस्तक अनिवार्य रूप में उसी मुद्दे को छूती है जो भारत-पाक संबंधों का सार-तत्व है। भारत-पाक के बीच जो भी पहलकदमी होती है वह उस दस्तावेज की बलिवेदी पर दम तोड़ जाती है जिस पर लिखा होता है ‘केवल प्रधानमंत्री के लिए।’ यदि दोनों देशों में ‘डीप स्टेट’ (यानी सरकार के पीछे की वास्तविक शक्तियां) इन पहलकदमियों के रास्ते में रुकावट बनती हैं तो क्यों न दोनों देशों के प्रमुख जासूसों को ही इस मकडज़ाल को सुलझाने की जिम्मेदारी सौंप दी जाए और वे उन समस्याओं का समाधान कर सकें जो प्रधानमंत्रियों को गच्चा देती आई हैं? देश विभाजन की जूठन के रूप में कश्मीर, पाकिस्तान, हिंदू-मुस्लिम टकराव जैसी समस्याएं आज भी बनी हुई हैं।

यदि हिंदू वोट बैंक को एकजुट करने के लिए तनावग्रस्त साम्प्रदायिक संबंध एक बुनियादी जरूरत है तो इसका सीधा अर्थ है कि दिन के बाद रात भी आती है। यानी कि कश्मीर और भारत-पाक संबंध हर हालत में अनंतकाल तक सुलगते रहेंगे। हमारे हाथों में यह समस्या किसी स्वचलित यंत्र की तरह अपने आप ही आग भड़काती रहेगी। यदि हम चाहते हैं कि चुनावी राजनीति के लिए साम्प्रदायिकवाद एक बुनियादी जरूरत न रहे तो यह जरूरी है कि बेंगलूर के मंच पर जो रंग-बिरंगी राजनीतिक भीड़ जुटी थी वह भारतीय राजनीतिक परिदृश्य का एक नियमित घटनाक्रम बन जाए। 

बहुत से समाजों में ऐसे घटनाक्रमों को ‘इंद्रधनुषीय गठबंधन’ का नाम दिया जाता है। बेंगलूर में हुए प्रयोग की पूर्व शर्त और इसका परिणाम सटीक अर्थों में इस तरह बयान किया जा सकता है: साम्प्रदायिकवाद जिस सामाजिक स्वरभंगता को बढ़ावा देता है हमें उसी को ठंडा करना है। यदि दुल्लट-दुर्रानी की पहलकदमी और परिकल्पना फलीभूत होने की ओर नहीं बढ़ती तो इस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता। सामाजिक स्वरभंगता एक ऐसी बीमारी है जिसके बढऩे के साथ-साथ ही साम्प्रदायिकवाद का बोलबाला होता है। यही कारण है कि बेंगलूर में एक समारोह दौरान मायावती और सोनिया गांधी की जो तस्वीर मीडिया में चॢचत हुई है वह युग बदलने वाली है। 

ऐसे समय पर उर्दू शायरी का स्मरण करना बेशक अटपटा-सा लगे लेकिन मीर अनीस का एक मिसरा राजनीतिक ब्रह्मांड में आई उथल-पुथल को बहुत सटीक रूप में बयान करता है : ‘शाहीन-ओ-कब्क छुप गए एक जा मिला के सर’ (यानी खतरा भांपते हुए बाज और कबूतर एक ही झाड़ी में छिप गए हैं)यदि हम यह स्मरण रखें कि यू.पी. में फूलपुर और गोरखपुर लोकसभा उपचुनावों में कांग्रेसी उम्मीदवारों की जमानत ही जब्त हो गई थी तो यह समझ आ जाएगा कि सोनिया गांधी को बसपा सुप्रीमो मायावती की कितनी बुरी तरह जरूरत है। मायावती स्वयं बेशक विजयी न हुई हों लेकिन उन्हीं की सहायता से अखिलेश यादव की सपा दोनों सीटों पर जीत हासिल कर पाई थी। 

ऐसी स्थिति में हम मध्यप्रदेश में कांग्रेस के चुनावी प्रमुख दिग्विजय सिंह के उस बयान का क्या अर्थ लगाएं जिसमें उन्होंने बसपा के साथ किसी तरह के गठबंधन को सिरे से नकारा था। सोनिया गांधी ने मायावती के साथ तस्वीर खिंचवाते हुए किसी गठबंधन की घोषणा नहीं की और न ही दिग्विजय सिंह के बयान से इस गठबंधन की संभावना समाप्त होती है। यानी कि गठबंधन बनाने की प्रक्रिया आंशिक रूप में दिग्गज हस्तियों के हाथ में होगी। प्रमुख रूप में यह प्रक्रिया चारों ओर व्याप्त शोर-शराबे और हंगामे से निर्धारित होगी जोकि दो सेनाओं के बीच अंधाधुंध चलती गोलियों जैसी स्थिति पैदा कर देता है।-सईद नकवी


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Pardeep

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