कई सवाल खड़े कर गया पठानकोट एयरबेस पर हुआ आतंकी हमला

punjabkesari.in Sunday, Jan 10, 2016 - 12:40 AM (IST)

(बी.के. चम): जब आत्ममंथन किया जाता है तो यथार्थवाद का मार्ग प्रशस्त होता है। पठानकोट एयरबेस पर आतंकी हमले से निपटने में शामिल सैन्य और सिविल सुरक्षा बलों के लिए अब आत्ममंथन की कवायद का समय आ गया है। इससे उन्हें अंधेरी सुरंग के दूसरे छोर पर रोशनी की किरण तक पहुंचने में सहायता मिलेगी। फिर भी यह कवायद अतीत की और बिल्कुल ताजा तरीन घटनाओं का लेखा-जोखा किए बगैर शुरू नहीं हो सकती। इसके लिए जरूरी है कि इन घटनाक्रमों के प्रमुख खिलाडिय़ों की भूमिका की गहराई से छानबीन की जाए।

पठानकोट एयरबेस हमले में प्रमुख भूमिका निभाने वाले 6 पाकिस्तानी आतंकी थे। बेशक वे भारतीय वायु सेना की कीमती सम्पत्तियों को तबाह करने का अपना मिशन पूरा करने में विफल रहे तो भी इस सवाल का अभी संतोषजनक उत्तर ढूंढा जाना बाकी है कि सिर से पांव तक हथियारों से लैस 6 आतंकवादी सीमा के अंदर कैसे घुस आए जबकि दावा किया जाता है कि इसकी बहुत मुस्तैदी से रखवाली की जाती है। बेशक बी.एस.एफ. ने  सीमा की संतोषजनक रखवाली न होने के आरोपों को रद्द कर दिया है, फिर भी सत्तारूढ़ अकाली नेतृत्व ने केन्द्र सरकार को अधिक बी.एस.एफ. जवान तैनात करने को कहा है ताकि सीमा को पूरी तरह सील किया जा सके।
 
पंजाब सरकार की यह मांग स्पष्ट तौर पर प्रादेशिक पुलिस की इस नाकामी पर पर्दापोशी करने का प्रयास है कि वह सीमा पार से घुसपैठ करके 30 किलोमीटर दूर पठानकोट एयरबेस तक चल कर पहुंचे सशस्त्र आतंकियों को काबू क्यों नहीं कर सकी। उदाहरण के तौर पर सीमा का 1 किलोमीटर भाग भौगोलिक समस्याओं के कारण बाड़मुक्त है। पुलिस-राजनीतिज्ञों-स्मगलरों की सांठ-गांठ पर आधारित गिरोहों द्वारा देश में नशीले पदार्थ और हथियार स्मगल करने के लिए सीमा के इस बाडऱहित हिस्से को ही प्रयुक्त किया जाता है। पंजाब सरकार इस प्रकार की गैर-कानूनी गतिविधियों को पूरी तरह रोकने में सफल नहीं हो सकी क्योंकि इसमें कुछ राजनीतिज्ञ (जिनमें कथित तौर पर अकाली नेता भी हैं) शामिल हैं। घुसपैठियों और उनके स्थानीय कारिंदों द्वारा सीमा के आर-पार गतिविधियां जारी रखने को रोकने में पुलिस की विफलता के बारे में जितना कम कहा जाए, उतना ही बेहतर है।
 
पाकिस्तानी आतंकियों का पठानकोट पर हमला 3 महत्वपूर्ण सवाल खड़े करता है जो भारत की गृह और विदेशी नीतियों को प्रभावित कर सकते हैं : (1) पठानकोट स्थित भारतीय वायु सेना के एयरबेस पर बहुत अधिक कीमती सम्पत्तियों को तबाह करने के लिए पाकिस्तानी आतंकियों द्वारा किए गए हमले ने क्या आतंकवाद के समक्ष पंजाब पुलिस की कमजोरी को उजागर नहीं कर दिया? (2) सत्तारूढ़ अकाली नेतृत्व की गतिविधियां क्या पंजाब में सुप्तावस्था में जी रहे आतंकवादी तत्वों को फिर से नवजीवन प्रदान नहीं कर रहीं? (3) क्या क्रिसमस दिवस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की औचक पाक यात्रा के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच मधुर संबंधों के पैदा होने को रोकने के लिए ही पठानकोट पर हमला करवाया गया था? प्रथम दो प्रश्नों का उत्तर है ‘हां’।
 
तुलनाएं करना कोई आसान काम नहीं परन्तु यह अक्सर प्रासंगिकता हासिल कर लेती हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य  में हम 1980 के बाद के वर्षों में हजारों निर्दोष सिखों और हिन्दुओं की बलि लेने वाले तथा एक दशक तक पंजाब में चले आतंकवाद और जनवरी 2016 में पठानकोट एयरबेस पर हुए उस पाकिस्तानी हमले से तुलना करने जा रहे हैं जिससे पूर्व जुलाई में दीनानगर पर भी ऐसा हमला हो चुका है।
 
1980 के दशक और 2016 की घटनाओं में कुछ उल्लेखनीय समानताएं व असमानताएं हैं। दोनों ने ही भारतीय राजनीतिक तंत्र को अस्थिर बनाने के कुछ विशेष विदेशी सरकारी और गैर-सरकारी तत्वों के संदिग्ध प्रयासों को उजागर कर दिया। दोनों से संबंधित घटनाओं ने अकाली-भाजपा सरकार की गवर्नैंस के घटिया स्तर और भारतीय शासन तंत्र के कुछ अंगों तथा अकाली दल सहित राष्ट्रीय राजनीतिक पाॢटयों की इस विघटनकारी भूमिका को रेखांकित किया कि कैसे वे सत्ता पर काबिज होने और कुर्सी पर बने रहने के लिए मजहब का निर्लज्जतापूर्ण दुरुपयोग करते हैं।
 
चूंकि आतंकवाद से संबंधित दूसरा और तीसरा प्रश्न एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं इसलिए 80 के दौर की आतंकी घटनाओं और वर्तमान में पंजाब में उग्रवाद को पुन: सुरजीत करने के लिए  सृजित किए जा रहे साजगार माहौल के बीच तुलना किए बगैर इनका उत्तर नहीं दिया जा सकता। शायद यह मात्र संयोग ही है कि दोनों ही दौरों में बादल नीत सरकार को सत्तासीन होने का मौका मिला।
 
पंजाब और मोदी सरकार दोनों के लिए पठानकोट हमले के संभावी परिणामों के बारे में मंथन करने से पूर्व उन कारणों और शक्तियों का संक्षिप्त वर्णन जरूरी है जो 80 के दौर की उन त्रासद घटनाओं के लिए जिम्मेदार थे जिनके बारे में 21वीं शताब्दी की वर्तमान पीढ़ी पूरी तरह जानकार नहीं है।
 
इस सारे प्रकरण की शुरूआत तब हुई थी जब जरनैल सिंह भिंडरांवाले के नेतृत्व वाली दमदमी टकसाल सहित मूलवादी संगठनों ने प्रकाश सिंह बादल नीत सरकार के शासनकाल में 13 अप्रैल, 1978 को अमृतसर में निरंकारियों द्वारा किए जाने वाले सम्मेलन को रोकने के लिए प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन ने जिस टकराव को जन्म दिया उसमें 16 प्रदर्शनकारी मारे गए। बस इसी दिन से पंजाब में त्रासद घटनाओं की शुरूआत हो गई।
 
भिंडरांवाले को कांग्रेसी नेताओं संजय गांधी और ज्ञानी जैल सिंह द्वारा उभारा गया था ताकि उनके माध्यम से अकाली वोट बैंक में सेंध लगाई जा सके। बाद में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष गुरचरण सिंह टोहड़ा ने श्री अकाल तख्त साहिब के तत्कालीन जत्थेदार ज्ञानी कृपाल सिंह के एतराजों को दरकिनार करते हुए 15 दिसम्बर, 1983 को भिंडरांवाला को दरबार साहिब परिसर में प्रविष्ट होने की अनुमति दे दी।
 
अब 2016 की घटनाओं की ओर रुख करते हैं जो इन अर्थों में ध्यानाकर्षण की मांग करती हैं कि बादल बाप-बेटा सामान्य की तरह अब फिर अपने राजनीतिक और चुनावी उद्देश्यों को हासिल करने हेतु मजहब का दुरुपयोग कर रहे हैं। अब की बार यह समस्या तब शुरू हुई जब मुख्यमंत्री ने श्री गुरु गोबिन्द जैसा परिधान धारण करने की 2007 में हिमाकत करने पर अकाल तख्त द्वारा दंडित डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह को राजनीतिक जोड़-तोड़ करके क्षमादान दिला दिया। बादल बाप-बेटे को स्पष्ट तौर पर जो उम्मीद थी कि अकाली दल के गढ़ मालवा पट्टी में अनुयायियों की बड़ी संख्या वाले डेरा प्रमुख का तुष्टीकरण करके वे 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी के लिए अच्छे खासे वोट बटोर लेंगे।
 
लेकिन क्षमादान पर तो वावेला उठना ही था, ऊपर से श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की घटनाएं होनी शुरू हो गईं। इसी पृष्ठभूमि में आयोजित सरबत खालसा में भारी संख्या में लोगों ने हिस्सा लिया। इसके अलावा कुछ प्रमुख अकालियों और मंत्रियों के विरुद्ध ग्रामीण लोगों ने रोष धरने लगाए। इन सबसे जहां अकाली दल के शीर्ष नेताओं की नींद हराम हो गई, वहीं न केवल पार्टी के अंदर बल्कि अकालियों के नियंत्रण वाले सिख धार्मिक निकायों में भी फूट पैदा हो गई। 2016 की घटनाओं ने प्रधानमंत्री का भारत-पाक रिश्तों को सामान्य बनाने के बारे में अब तक का ढिलमुल रवैया स्पष्ट तौर पर बदल दिया है। 
 
अपने वैचारिक मार्गदर्शक आर.एस.एस. के दबाव में पाकिस्तान के साथ वार्तालाप फिर से शुरू करने के प्रयास शायद पठानकोट एयरबेस पर हल्ला बोलने वाले आतंकियों के बारे में भारत द्वारा उपलब्ध करवाए गए साक्ष्यों पर पाकिस्तान द्वारा विश्वसनीय कार्रवाई किए जाने के मद्देनजर फलीभूत होंगे।
 
पाकिस्तान आधारित आतंकियों द्वारा 1980 के दौर में की गई हिंसा और 2016 में पठानकोट पर बोले गए हल्ले में सबसे महत्वपूर्ण समानता है अमरीकी सत्तातंत्र का रवैया। 1980 के दौर में भिंडरांवाले के नेतृत्व में अलगाववादी आंदोलन की योजना के पीछे दिमाग सी.आई.ए. का काम करता था जबकि इसका कार्यान्वयन आई.एस.आई. द्वारा किया जाता था क्योंकि अमरीकी सत्तातंत्र इंदिरा गांधी की सरकार को अस्थिर करना चाहता था। 2016 में अमरीका चाहता है कि भारत और पाकिस्तान आपस में हाथ मिलाएं व ग्लोबल इस्लामी आतंकवादियों का मुकाबला करें जिनकी बढ़ती जा रही विश्वव्यापी गतिविधियां न केवल भारत और पाकिस्तान बल्कि अन्य देशों के लिए भी चिंता का विषय बन गई हैं।
 

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