कई वादे अधूरे या आंशिक रूप से छोड़ दिए जाते हैं
punjabkesari.in Tuesday, Aug 30, 2022 - 04:11 AM (IST)

मार्च 2021 में, तमिलनाडु के मदुरै दक्षिण विधानसभा के निर्वाचन क्षेत्र के उम्मीदवार थुलम सरवनन ने जनता के सामने असाधारण चुनावी भेंट की पेशकश की। मसलन, हर घर के लिए 1 करोड़ रुपए, घर की सफाई के लिए हर गृहिणी को एक रोबोट, नया कारोबार शुरू कर रहे युवाओं को एक करोड़ रुपए, हर घर-परिवार को कार खरीदने के लिए 20 लाख रुपए, चांद की 100 दिन की यात्रा, लोगों को सैर-सपाटे और मनोरंजन के लिए 300 फुट का कृत्रिम ग्लेशियर आदि।
वैसे इतने सारे मैगा वादों के बावजूद वह चुनाव हार गए। वैसे उनके वादे सत्ता में आने की होड़ में लगे प्रमुख राजनीतिक दलों के वादों से बहुत दूर या अलग भी नहीं थे। मुफ्त उपहारों के पैरोडी संस्करण तेजी के साथ नई चुनावी वास्तविकताओं के साथ जुड़ गए हैं।
आज तमाम राजनीतिक दल मुफ्त रेवड़ी की बात कर रहे हैं। 1967 में डी.एम.के. के संस्थापक सी.एन. अन्नादुरई ने वादा किया था कि अगर उनकी पार्टी चुनी जाती है तो लोगों को एक रुपए में 4.5 किलो चावल का बैग मिलेगा। उनके अभियान ने पार्टी को जीत दिलाई। विडंबना यह रही कि पार्टी अपना वादा निभाने में नाकाम रही और नतीजतन एक रुपए में एक किलो चावल देने की योजना भी समाप्त हो गई।
प्रधानमंत्री गरीब किसान कल्याण योजना एक बार लांच होने के बाद आगे बढ़ती रही। जुलाई 2020 में इसके लिए 146 करोड़ रुपए आबंटित किए गए। इसके तहत तमिलनाडु में इस योजना से जुड़े सभी कार्डधारकों को प्रति व्यक्ति 5 किलो मुफ्त चावल उपलब्ध कराया गया। समय के साथ इसका विस्तार हुआ और यह चावल से आगे मुफ्त गैस स्टोव, रंगीन टी.वी., लैपटॉप, घरेलू काम के लिए भुगतान आदि देने तक आगे बढ़ा। धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति तमिलनाडु से आगे बढ़ते हुए अन्य राज्यों तक भी पहुंच गई है।
दिल्ली प्रदेश की सरकार ने शहर के मतदाताओं के लिए एक तय सीमा तक पानी और बिजली मुफ्त देने की पेशकश की। हिमाचल की सरकार स्थानीय लोगों को 150 यूनिट तक मुफ्त बिजली, गांवों में मुफ्त पानी और महिलाओं के लिए बस किराए में 50 फीसदी की छूट दे रही है।
असम में राज्य सरकार ने 6,000 करोड़ रुपए की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नकद लाभ योजनाओं की घोषणा की है। इनके तहत 9 लाख लाभाॢथयों को दो महीने के लिए 30 यूनिट तक मुफ्त बिजली, 17 लाख सीमांत आय वाले परिवारों को 830 रुपए के प्रत्यक्ष हस्तांतरण से लेकर 2 लाख युवाओं को अपना कारोबार शुरू करने के लिए 50-50 हजार रुपए प्रदान करने जैसी योजनाएं हैं। क्या इस तरह की मानसिकता से कल्याणकारी राज्य की स्थापना का मकसद खतरे में नहीं आ जाएगा? अलबत्ता बात चाहे पश्चिम की करें या आजादी के बाद से भारत की, इसमें कोई संदेह नहीं कि एक राजनीतिक दर्शन के रूप में कल्याणवाद की जड़ें खासी गहरी हैं।
हमारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था ऐसी योजनाओं से भरी है-चाहे कोई उन्हें मुफ्त की रेवड़ी, कर्ज माफी या रियायत कहे या कि प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण। हर साल, केंद्र और राज्य की सरकारें आम नागरिकों को एल.पी.जी. सिलैंडर जैसे निजी उपयोग के सामान के वितरण का विस्तार करती हैं। इनके लिए सबसिडी दी जाती है और कुछ मामलों में पूरी लागत को सरकार कवर करती है। क्या ऐसी नीतियों की ओर मुडऩे का आशय यह है कि भारतीय नीति निर्माताओं ने गरीबी और असमानता से निपटना छोड़ दिया है?
दरअसल, सार्वजनिक संपत्ति, सामाजिक क्षमता निर्माण पर जोर देने की बजाय, भारत के नीति निर्माताओं ने प्रत्यक्ष हस्तांतरण की ओर रुख करते हुए कल्याणवाद की राह पकड़ी है। ऐसे में सवाल है कि क्या सरकार की निष्क्रियता और अच्छी सार्वजनिक सेवाएं देने पर ध्यान न देने के बदले राज्य का मॉडल केवल भविष्य में प्रतिपूरक प्रकृति का होने जा रहा है? समय के साथ इस तरह के वादों के बड़े आर्थिक नतीजे भी सामने आए हैं। आंध्र प्रदेश सालाना ऐसी विभिन्न योजनाओं पर 1.62 लाख करोड़ रुपए खर्च करता है।
पंजाब में 51 लाख घरों को मुफ्त बिजली देने का दबाव अनिवार्य रूप से पंजाब स्टेट पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड के बकाए को और बढ़ा देगा। दिलचस्प है कि इस साल अगस्त तक यह बकाया 7117 करोड़ रुपए तक पहुंच चुका था। पांच राज्यों-उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश और पंजाब ने सार्वजनिक संपत्तियों को गिरवी रखकर इस साल मार्च तक 2 साल की अवधि में 47,316 करोड़ रुपए जुटाए हैं।
कई राज्यों को हाल ही में घोषित मुफ्त के आश्वासनों को पूरा करने के लिए धन जुटाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। मसलन, आंध्र प्रदेश ने मौजूदा वित्त वर्ष में जिन मुफ्त उपहारों की घोषणा की उनके लिए उसे अपने कर राजस्व का 30.3 फीसदी खर्च करना होगा। मध्य प्रदेश के लिए यह आंकड़ा 28.8, पंजाब के लिए 45.4 और पश्चिम बंगाल के लिए 23.8 फीसदी है। पिछले 5 वर्षों में बैंकों ने 10 लाख करोड़ रुपए के ऋण को बट्टे खाते में डाल दिया है, ऐसे एन.पी.ए. राइट-ऑफ में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की हिस्सेदारी आमतौर पर पिछले एक दशक में 60-80 फीसदी के बीच है।
कई वादे अधूरे या आंशिक रूप से छोड़ दिए जाते हैं, ऐसे में यह मतदाताओं का अपमान भी है। वैसे जो वादे समय के साथ पूरे भी कर लिए जाते हैं, उनसे सामान्य मतदाताओं पर उच्च करों का या तो बोझ बढ़ता है या फिर इससे विकास की संभावना सिकुड़ जाती है। इस राजनीतिक संस्कृति को बदलने के लिए सरकारों को राजकोषीय ईमानदारी पर टिके रहने और विश्वसनीय नीतियां बनाने की आवश्यकता होगी, जो हमारी राजनीतिक मर्यादा और नैतिकता से कब की बाहर हो चुकी हैं।-वरुण गांधी
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