मनमोहन सिंह न केवल विनम्र थे, बल्कि उनकी विश्वसनीयता भी बहुत अधिक थी
punjabkesari.in Friday, Jan 10, 2025 - 05:25 AM (IST)
क्रिसमस की छुट्टी के बाद अपने कॉलम को फिर से शुरू करते हुए, मैं पिछले 15 दिनों में हमारे देश में हुई घटनाओं पर नजर डालता हूं। भारत में जड़ें जमा रहे लोकतंत्र का विशिष्ट ब्रांड नए संसद भवन और उसके बाहर प्रदर्शित हुआ। हमारी संसद में पहली बार इसके निर्वाचित सदस्यों के बीच हाथापाई हुई, जो सुदूर पूर्व की कुछ संसदों की विशेषता है। भवन परिसर के बाहर राहुल गांधी ने क्रिकेट के मैदान पर विराट कोहली की तरह एक भाजपा के बुजुर्ग नेता को धक्का देने की कोशिश की। राहुल ने मुठभेड़ के बाद अपनी पारी फिर से शुरू की। राहुल के प्रतिद्वंद्वी ने खुद को एक अस्पताल में पाया, जहां उनके खिलाफ खड़े युवा की ताकत के बारे में बात की जा रही थी।
जबकि देश हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों की हरकतों को देख रहा था, उनकी पार्टी के नेता दिल्ली में, जहां 5 फरवरी को चुनाव होने वाले हैं, एक-दूसरे पर जुबानी हमला कर रहे थे। मौखिक द्वंद्व भाजपा और ‘आप’ के बीच पोस्टर युद्ध में बदल गया है, जहां दोनों प्रतिद्वंद्वी प्रिंट में एक-दूसरे को बदनाम कर रहे हैं। हम एक साथ और समान रूप से खुश और निराश हैं। शुक्र है कि कहावत के अनुसार एक उम्मीद की किरण भी थी। प्रियंका गांधी वाड्रा ने लोकसभा में अपना पहला भाषण दिया। वास्तव में, उन्होंने संविधान के अनादर पर विपक्ष के तर्कों की शुरूआत की, जहां उन्होंने अपने परनाना जवाहरलाल नेहरू पर किए गए अपमानजनक हमलों का भी उल्लेख किया, जो वर्तमान व्यवस्था के दुश्मन हैं। उन्होंने समझदारी से बात की। उन्होंने पंडित नेहरू के समय की तरह संसद की कार्रवाई में शालीनता और सार की वापसी की उम्मीद की किरण जगाई।
एक बेहद सभ्य इंसान स. मनमोहन सिंह, जो 2004 से 2014 तक एक दशक तक हमारे प्रधानमंत्री रहे, ने दिल्ली के एक अस्पताल में अंतिम सांस ली। स. मनमोहन सिंह का न केवल पंजाब और उत्तर में, जहां से वे आते थे, बल्कि देश के दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में भी वास्तव में सम्मान किया जाता था, जहां समझदार नागरिक ऐसी दुर्लभ मिसाल के अस्तित्व को देखते ही सभ्य और विश्वसनीय नेताओं को खोज निकालते हैं। यह एक सिख के रूप में नहीं, बल्कि एक कांग्रेस पार्टी के नेता और देश के प्रधानमंत्री के रूप में था कि मनमोहन सिंह ने 1984 में इंदिरा गांधी की उनके ही एक सिख गार्ड द्वारा हत्या के बाद सिखों पर हुए अन्याय के लिए एक समुदाय के रूप में उनसे माफी मांगी।
विनम्रता और पश्चाताप का ऐसा कोई संकेत महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार द्वारा 1993 में मुंबई में मुसलमानों के कत्लेआम के बाद या गुजरात में 2002 में भाजपा द्वारा नहीं दिखाया गया था। मुझे अपनी नौकरी के दौरान और बाद में भी कई बार मनमोहन सिंह से बातचीत करने का मौका मिला। ऐसे 2 मौके मेरी यादों में हमेशा के लिए अंकित हो गए हैं। पहला मौका तब आया जब आई.पी.एस. ऑफिसर्स एसोसिएशन ने मुझसे प्रधानमंत्री से मिलकर अपना पक्ष रखने के लिए कहा, जबकि वेतन आयोग की सिफारिशों पर केंद्र सरकार विचार कर रही थी। मैं तब तक रिटायर हो चुका था और अपने जन्म स्थान मुंबई में घर बना लिया था।
मैंने उस अधिकारी से पूछा जिसने मुझसे फोन पर बात की थी कि ऐसा करना क्यों जरूरी है, जबकि प्रधानमंत्री के खुद के दामाद हमारी सेवा के सदस्य हैं। अधिकारी ने जवाब दिया कि दामाद प्रधानमंत्री के सामने इस विषय पर बात करने की हिम्मत नहीं कर सकते। ऐसे देश में जहां भाई-भतीजावाद एक स्वीकार्य बुराई है, यह सोचना कि प्रधानमंत्री ऐसी कमजोरियों से परे हैं, निश्चित रूप से उत्साहजनक था। 26 नवंबर 2008 को मुंबई पर पाकिस्तानी आतंकवादी हमले के बाद प्रसिद्ध फिल्मी हस्ती जावेद अख्तर और प्रभावशाली मराठी पत्रकार कुमार केतकर ने मुझे प्रधानमंत्री से मिलने के लिए दिल्ली आने को कहा ताकि शहर पर आतंकवादी हमले और राजनीति पर इसके प्रभाव पर चर्चा की जा सके। मनमोहन सिंह ने हम सभी की बात ध्यान से सुनी। मैंने अंतर-सामुदायिक संबंधों और मेरे शहर में नागरिक समाज द्वारा स्वीकार्य समाधान खोजने में शामिल होने के बारे में बात की। जाहिर है कि प्रधानमंत्री ने मेरे सुझावों को गंभीरता से लिया क्योंकि जब मैं मुंबई के हवाई अड्डे पर वापस आया तो राज्य के मुख्यमंत्री ने एक दूत भेजकर मुझसे सीधे उनके आवास पर जाने का अनुरोध किया ताकि मैं प्रधानमंत्री को दिए गए सुझावों पर उनसे चर्चा कर सकूं।
मनमोहन सिंह ध्यान से सुनते थे। अगर उन्हें किसी विचार में कुछ गुण नजर आते तो वे उस पर अमल करते थे। वे न केवल विनम्र थे, बल्कि उनकी विश्वसनीयता भी बहुत अधिक थी। यह सच है कि उनकी शालीनता कभी-कभी उनके खिलाफ काम करती थी। उनके दूसरे कार्यकाल के दौरान जिन घोटालों की रिपोर्ट की गई, वे सहयोगियों, खासकर गठबंधन सरकार बनाने वाले अन्य राजनीतिक दलों के सहयोगियों को अनुशासित करने में उनकी अनिच्छा का परिणाम थे। गठबंधन सहयोगियों को संभालने की क्षमता के मामले में नरेंद्र मोदी उनसे कहीं बेहतर हैं। देश और लोगों के लिए पूर्व प्रधानमंत्री के योगदान को सम्मानित करने के लिए समाधि स्थल के स्थान को लेकर कांग्रेस और भाजपा के बीच एक अनुचित विवाद छिड़ गया है। मनमोहन सिंह इस पद पर पहुंचने वाले एकमात्र गैर-राजनेता थे।
महाराष्ट्र में भाजपा के नेतृत्व वाला गठबंधन ‘लाडली बहन योजना’ के वित्तीय नुकसान से जूझ रहा है, जिसने हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनावों में उन्हें सचमुच में अंतिम पंक्ति में पहुंचा दिया। करोड़ों आवेदकों की पात्रता की जांच करने के लिए एक व्यापक अभ्यास चल रहा है, जिन्हें इस योजना के दायरे में नहीं लाया जाना चाहिए था। जब राज्य के मंत्रिमंडल का गठन होना था, तब ‘बड़बड़ाहट’ शब्द सबसे अधिक स्पष्ट था। मंत्री पद के लिए इच्छुक लोगों की संख्या कानून द्वारा अनुमानित संख्या से अधिक थी। एन.सी.पी. के अजित पवार गुट के 41 निर्वाचित विधायकों और शिवसेना के शिंदे गुट के 56 विधायकों को यह तय करने में मुश्किल हो रही थी कि किसे शामिल किया जाए और किसे बाहर रखा जाए।
40 मंत्रियों को सुरक्षा (वास्तव में दर्जा) प्रदान करने के लिए पुलिस प्रतिष्ठान को कई और निकायों को छोडऩे के लिए मजबूर होना पड़ेगा। दर्जा और महत्व ही वह चीज है जिसकी वे सभी लालसा रखते हैं।-जूलियो रिबैरो
(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)