नोटबंदी पर मनमोहन सिंह के तर्क सच्चाई से कोसों दूर

Thursday, Dec 01, 2016 - 02:00 AM (IST)

(डा. सुभाष शर्मा): नोटबंदी पर सड़क से लेकर संसद तक बहस जारी है इसीलिए जब पूर्व  प्रधानमंत्री और विख्यात अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह राज्यसभा में बोलने के लिए खड़े हुए तो पूरे देश की नजर उन पर थी कि वह इस पर क्या बोलेंगे? अपने 7 मिनट के भाषण में उन्होंने नोटबंदी के विरोध में अनेकों तर्क देकर सरकार को घेरने की भरपूर कोशिश की। 

वैसे तो मनमोहन सिंह को संसद में बोलते हुए सुनना प्रसन्नता ही देता है क्योंकि महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनका मौन हमेशा अखरता रहा है परन्तु नोटबंदी पर उनके इस भाषण ने मेरे समेत देश के बहुत बड़े वर्ग को निराश ही किया। मैं यह इसलिए नहीं कह रहा हूं कि वह मेरे मत के विरोध में बोल रहे थे बल्कि इसलिए क्योंकि वह अर्थशास्त्री के नाते नहीं बल्कि एक हताश राजनीतिज्ञ के नाते बोल रहे थे। 

डा. मनमोहन सिंह ने अपने भाषण में सरकार और देश को चेतावनी देते हुए दावा किया कि नोटबंदी के इस निर्णय से देश की विकास दर 2 प्रतिशत तक कम हो सकती है हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि कैसे कम होगी। निश्चित ही मुझे यह बहुत गंभीर चिंता वाली बात लगी और मन में विचार आया कि इस पर गहराई से ङ्क्षचतन होना चाहिए। अर्थशास्त्र की जानकारी रखने वाले बहुत से मित्रों के साथ चर्चा की, जिनमें कैपिटलिस्ट और वामपंथी दोनों थे, पर सबका यही मत था कि मनमोहन सिंह का यह दावा व्यावहारिक प्रतीत नहीं होता। इसको थोड़ा और विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं। 

जी.डी.पी. के तीन महत्वपूर्ण घटक माने जाते हैं उपभोग, बचत एवं निर्यात। अब बचत तो बढ़ रही है यह स्पष्ट दिखता है, बैंकों में अब तक लगभग 7 लाख करोड़ रुपया आ चुका है। यहां तक कि गरीबों के लिए खोले गए जनधन खातों में भी लगभग 66 हजार करोड़ रुपए अब तक जमा हुए हैं और एक अनुमान के अनुसार यह राशि डेढ़ लाख करोड़ रुपए तक जा सकती है। हालांकि यह भी सच्चाई है कि निकासी की शर्त ढीली होते ही यह पैसा बैंकों से निकलेगा भी, पर इसके बावजूद बैंकों में कुल जमा पूंजी पिछले सालों के मुकाबले कहीं ज्यादा होना निश्चित है। 

निर्यात में किसी प्रकार की कमी अब तक नहीं देखी गई है। अब अगर यह मान भी लिया जाए कि नकदी की कमी से सामान्य उपभोग में कमी आई है तो भी जी.डी.पी. को 2 प्रतिशत कम होने के लिए 50 प्रतिशत कमी उपभोग में होनी चाहिए। योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार भारत में शहरी क्षेत्रों में 52 प्रतिशत तथा ग्रामीण क्षेत्रों में 57 प्रतिशत खर्च सिर्फ भोजन पर होता है और अगर इसमें हम जीवन उपयोगी अन्य आवश्यकताओं पर खर्च भी शामिल कर लें तो यह 80 प्रतिशत से भी ज्यादा है। 

ऐसे में उपभोग में 50 प्रतिशत की कमी नामुमकिन है। इसका एक और पहलू जो आलोचक शायद  देखना नहीं चाहते कि नकदी खपाने में उपभोग के लिए कई चीजें ज्यादा भी खरीदी जा रही हैं, जिससे कुल उपभोग में ज्यादा कमी नहीं होगी। इसलिए विकास दर कम होने की बजाय बढऩे की संभावना है। जो लोग मेरे इस तर्क और निष्कर्ष से सहमत नहीं होंगे, मेरा उनसे निवेदन है कि 2 अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों गोल्डमैन  साक्स और मूडीज की इस विषय पर आई रिपोटर्स जरूर देखें जो इंगित करती हैं कि आने वाले समय में भारत की विकास दर बढ़ेगी। 

मनमोहन सिंह जी के भाषण के एक और पहलू का विश्लेषण करना बड़ा जरूरी है, उन्होंने कीन्स के अधूरे वाक्य ‘इन द लॉन्ग रन वी ऑल आर डैड’ का प्रयोग करते हुए सरकार पर हमला बोला। हालांकि यह वाक्य इस परिस्थिति में बिल्कुल ही अप्रासंगिक है पर मैं इस बहस में नहीं पड़ूंगा। मैं ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा उठाना चाहता हूं कि क्या आज कीन्स भारत के लिए किसी भी प्रकार से उपयोगी हैं? 

ब्रिटेन ने जान मेनार्ड कीन्स के मॉडल को 1977 के बाद से त्याग दिया था, अब विश्व भी इसे नकार चुका है परन्तु मनमोहन जी का कीन्स के प्रति प्यार अभी तक कायम है। मुझे याद है कि 2008 की मंदी के समय उन्होंने अमरीका सहित पूरे विश्व को कीन्स के मॉडल पर चलने की सलाह दी थी। परिणाम सबके सामने है आर्थिक मंदी और बेरोजगारी के चलते बराक ओबामा की पार्टी की ऐतिहासिक हार हुई है। भारत में भी मनमोहन सिंह इसी मॉडल को लागू करते दिखे। सिर्फ एक उदाहरण देना चाहता हूं, पूरी दुनिया में अवसंरचना और पावर में निवेश बांड के माध्यम से होता है जबकि भारत में यू.पी.ए. सरकार ने बैंकों के माध्यम से निवेश करवाए जिसका परिणाम बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और डूबते हुए कर्ज (एन.पी.ए.) के रूप में निकला। 

2009 में एन.पी.ए. 66,686 करोड़ रुपए थे जो 5 साल में बढ़कर 2014 में 2,40,947 करोड़ रुपए तक पहुंच गए। यदि मनमोहन सिंह की नीतियों से उपजे क्रोनी कैपिटलिज्म ने देश में काले धन के अम्बार न खड़े किए होते तो शायद आज नोटबंदी की आवश्यकता ही न पड़ी होती। 

वैसे तो नोटबंदी विशुद्ध रूप से आर्थिक निर्णय है लेकिन अपने देश का दुर्भाग्य यह है कि जो बहस हो रही है वह राजनीतिक हितों से प्रेरित है। दरअसल बहस इस बात पर होनी चाहिए कि पिछले 70 वर्षों में जो भी आर्थिक मॉडल हम विदेशों से लेकर आए उसने देश का कितना फायदा या नुक्सान किया। 

समय आ गया है कि हमें महालानोबिस और कीन्स जैसे विदेशी मॉडल्स के मोह को त्याग कर देश के अनुरूप आर्थिक मॉडल खड़ा करना होगा। हमें एक ऐसी अर्थव्यवस्था बनानी है जिस में अमीर-गरीब की खाई कम हो, युवाओं के लिए रोजगार के भरपूर अवसर हों तथा पर्यावरण की भी रक्षा हो। नोटबंदी का यह निर्णय इस दिशा में उठाया पहला कदम साबित हो सकता है। 

यह कदम कालाधन और भ्रष्टाचार जैसे कई कंकर-पत्थर जो इस देश की भूमि को बंजर बनाने में लगे थे, को हटाकर धरातल को समतल करने जैसा है। इसके बाद ही शक्तिशाली और समृद्ध भारत का निर्माण संभव है। पर इस सबके लिए ऐसा नेता चाहिए जो एक दीर्घकालिक योजना बना सके और राजनीतिक जोखिम उठा कर भी उसे लागू कर सके। 
 

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