‘सौहार्द’ बनाए रखना मुसलमानों की भी जिम्मेदारी है

Friday, Sep 22, 2017 - 01:38 AM (IST)

सन् 1944 की बात है। भारत की आजादी को लेकर अंग्रेजों ने बंटवारे का पेंच फंसा दिया। महात्मा गांधी और मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना के बीच ऐतिहासिक 18 दिन लम्बी बातचीत चली पर जिन्ना को ब्रितानी हुकूमत की शह थी, लिहाजा विवेक और तार्किकता जिद पर भारी नहीं पड़ सकती थी। 

7वें दिन यानी 15 सितम्बर को गांधी ने जिन्ना को एक पत्र लिखा: ‘‘हम दोनों की बातचीत के दौरान आपने पुरजोर तरीके से कहा कि भारत में दो देश हैं-हिन्दू और मुसलमान। हम लोगों के बीच जितनी अधिक बहस आगे बढ़ रही है उतनी ही अधिक चिंताजनक मुझे आपकी तस्वीर दिखाई दे रही है...इतिहास में मुझे एक भी घटना की याद नहीं आती जब धर्मांतरण करने वाले लोग या उनके वंशज अपने मूल धर्म के लोगों से अलग उसी राष्ट्र में एक नए राष्ट्र का दावा करें। अगर भारत इस्लाम के आने के पहले एक राष्ट्र था तो इसे एक रहना होगा, भले ही उस राष्ट्र के तमाम लोगों ने अपने पंथ बदल लिए हों।’’ बहरहाल, 35 महीने बाद ही पाकिस्तान बन गया लेकिन आगे की घटना देखिए। 

बंटवारे के दौरान और बाद के कई महीनों तक लाखों हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे को मारते रहे। ङ्क्षहसा का तांडव अभी चल ही रहा था। संविधान सभा को अपना-अपना कार्य करते हुए कोई 1 वर्ष से ज्यादा हो चुका था। पूरा देश इस विभाजन से सकते की हालत में था। दिसम्बर 1947 को मुस्लिम लीग (जो बंटवारे के बाद बचे-खुचे सदस्यों से बना रह गया था) ने संविधान के प्रारूप में दो संशोधन प्रस्ताव रखे। पहला था- भारत में रहने वाले मुसलमानों के लिए अलग लोकसभा सीटों में आरक्षण लेकिन दूसरा उस संकट में मुस्लिम नेताओं की मनोदशा बताता है। यह संशोधन प्रस्ताव था-मुसलमानों को पृथक मतदाता श्रेणी में रखना (यानी सैपरेट इलैक्टोरेट-एक ऐसी मांग, जो अंततोगत्वा फिर एक अन्य देश बनाने का मार्ग प्रशस्त करती। 

इस संशोधन को देख कर पूरा देश स्तब्ध रह गया। पटेल ने बेहद भावातिरेक में कहा, ‘‘मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि इतने बड़े झंझावात में फंसे देश के अनुभव के बाद भी इनमें कोई बदलाव आया है या नहीं, जो ऐसी मांग कर रहे हैं?’’ आज 70 वर्ष बाद सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हो गया है जिसे लाखों लोगों ने देखा। बंगला टी.वी. चैनलों ने इसे दिखाया। राज्य की राजधानी कोलकाता में इसी 12 सितम्बर को पश्चिम बंगाल अल्पसंख्यक फैडरेशन के तत्वावधान में 18 संगठनों ने रोहिंग्या शरणार्थियों को भारत में रहने की अनुमति देने की मांग को लेकर एक रैली आयोजित की। रैली में एक युवा नेता मौलाना शब्बीर अली वारसी चीख-चीख कर कह रहा था ‘‘आप इस गलतफहमी में न रहें कि मुसलमान कमजोर हैं। तुम हमारी हिस्ट्री नहीं जानते। हम कर्बला वाले हैं, हम हुसैनी मुसलमान हैं। 

अगर हम 72 हैं तो भी लाखों का जनाजा निकाल सकते हैं।’’ मंच से आवाज आती है-बहुत खूब। भीड़ से अल्ला हू अकबर के नारे। इस नेता का चीखना और तेज होता है: ‘‘दिल्ली सरकार को मैं बताना चाहता हूं कि ये रोहिंग्या हमारे भाई हैं। इनका और हमारा कुरान एक है, जो इनका खुदा, वह हमारा खुदा...दुनिया में मुसलमान कहीं भी हो, हमारा भाई है...।’’ भीड़ हाथ उठाकर कहती है- नारा-ए-तकबीर, अल्ला हू अकबर। नेता आगे कहता है, ‘‘यह बंगाल है, गुजरात नहीं, असम नहीं, यू.पी. नहीं, मुजफ्फरनगर नहीं। मीडिया यहां बैठा है। मेरा चैलेंज है। अभी बंगाल में किसी मां ने वह औलाद पैदा नहीं की जो एक भी रोहिंग्या मुसलमान को निकाल सके।’’ भीड़ पागलों की तरह नारे लगाने लगती। प्रश्र इस नेता के आपत्तिजनक भाषण का नहीं है। प्रश्र उस भीड़ का है जो इसे न केवल अनुमोदित कर रही थी बल्कि इन वाक्यों से एक तादात्म्य प्रदर्शित कर रही थी, कुछ भी कर गुजरने के भाव में। 

अब जरा इस कुतर्क को समझें। यह नेता दुनिया के मुसलमानों को अपना भाई मान रहा है पर वह जिससे खून का रिश्ता रहा है या जिस मिट्टी में पला है उसी को चुनौती दे रहा है। इस्लाम से पहले इसके पूर्वज भारतवासी थे लेकिन क्या आपने कभी किसी सभा में भारत के टुकड़े करने वाले कश्मीरी नारों के खिलाफ अन्य भाग के मुसलमानों को इतने गुस्से में देखा है? खालिद और उसके लोग जे.एन.यू. में कौन-सी आजादी मांग रहे थे? और न मिलने पर ‘‘भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाल्लाह’’ का ऐलान कर रहे थे? 

यानी धार्मिक रिश्ता वैश्विक है और वह जहां की मिट्टी में सांस ली है उसके रिश्ते पर भारी पड़ती है। तर्क-वाक्य के विस्तार की प्रक्रिया के तहत यह कहा जा सकता है कि पाकिस्तान का मुसलमान हमला करे तो वह जायज है क्योंकि वह भाई है। सैमिटिक धर्मों की यह एक बड़ी समस्या है कि उनकी प्रतिबद्धता में राष्ट्र नहीं है। परा-राष्ट्रीय निष्ठा, जो मूल रूप से विश्व भर में फैले उन धर्मानुयायियों के प्रति होती है, वह उन्हें राष्ट्र की अवधारणा से दूर ले जाती है। 

ऐसे में देश क्या करे? हिन्दुओं का भाव कैसे गीता के ‘स्थितिप्रज्ञ’ सरीखा बना रहे। आज जरूरत है कि मुसलमान भी इस बात को समझें कि अगर दुनिया के मुसलमान एक हैं और वे कहीं से भी आएं तो यह बकौल इस नेता के, यह भारत की जिम्मेदारी है कि उन्हें उदार दिल के साथ आत्मसात करे तो फिर कल ये 40,000 रोङ्क्षहग्या भी तो इसी तरह चीख-चीख कर चिल्लाएंगे और चुनौती देंगे और कर्बला का इतिहास बताएंगे। यहां के मूल होंगे तो पाकिस्तान बनाएंगे या अलग मतदाता श्रेणी की बात करेंगे। हम निरपेक्ष विश्लेषक अखलाक के मारे जाने पर उग्र हिन्दुत्व को कोसने लगते हैं स्वयं को तटस्थ साबित करने की होड़ में, पर क्या कभी कट्टरता के इस पहलू पर एतराज जताया है? आतंकी घटना होती है तो हमारा तर्क होता है कि आतंकी का कोई धर्म नहीं होता। हम झूठ बोलते हैं। उसे धर्म ही वैचारिक प्रतिबद्धता देता है और धर्मानुयायी शरण और वे ही उसका महिमामंडन भी करते हैं। 

जहां एक ओर अपेक्षा की जाती है कि सत्ता किसी दल विशेष द्वारा हासिल होने का मतलब यह नहीं कि उग्र हिन्दू किसी अखलाक के घर गौमांस तलाशें और फिर उसे मार दें और न ही ट्रक से दूध के व्यापार के लिए वैध रूप से गाय ले जा रहे पहलू खान को सरेआम पीट-पीटकर मार दें, वहीं ‘उनकी मां ने वह लाल पैदा नहीं किया’ कहना भी अमनपसंद औसत मुसलमानों द्वारा एतराज का सबब होना चाहिए न कि उन्माद का कारण। स्वयं मुसलमानों को ऐसे भाषणों पर रोक लगानी होगी क्योंकि किसी ममता या अन्य राजनीतिक दलों को सिर्फ वोट से मतलब है, जानें तो आती-जाती रहती हैं।

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