महात्मा गांधी का ‘असली हत्यारा’ कौन
punjabkesari.in Monday, Dec 14, 2015 - 01:48 AM (IST)

(विनीत नारायण): दुनिया यही मानती है कि नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की। पर भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि आत्मा अजर अमर है। इसे शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती। इस दृष्टि से महात्मा गांधी की आत्मा भी अजर अमर है। असली हत्या तो उनके विचारों की की गई और यह काम आजादी मिलते ही शुरू हो गया।
जिस अखबार में आप यह लेख पढ़ रहे हैं, वह अखबार आपकी मात्र भाषा का है। अगर यह अंग्रेजी में होता तो क्या आप इसे पढ़ते? भारत के कितने लोग अंग्रेजी लिख-पढ़ सकते हैं। पर विडम्बना देखिए कि हमारी शिक्षा से लेकर न्याय पालिका तक, प्रशासन से लेकर स्वास्थ्य सेवाओं तक सब ओर अंग्रेजी का बोलबाला है। जबकि इस भाषा को समझने वाले देश में 2 फीसदी लोग भी नहीं हैं और यही 2 फीसदी लोग भारत के संसाधनों पर सबसे ज्यादा कब्जा जमाकर बैठे हैं।
सबसे ज्यादा मौज भी इन्हीं को मिल रही है। शेष भारतवासियों का हक छीनकर ये पनप रहे हैं। पर आम भारतवासियों की आवाज इनके कानों तक नहीं पहुंचती। उनका दर्द इनके सीने में नहीं उठता। इन्हें तो हर वक्त अपनी और अपने कुनबे की तरक्की की चिंता रहती है और हर तिकड़म लड़ाकर ये विकास का सारा फल हजम कर जाते हैं। इसका एकमात्र कारण यह है कि हमने गांधी जी के विचारों की हत्या कर दी। वह नहीं चाहते थे कि अंग्रेजों के जाने के बाद अंग्रेजी एक दिन भी हिन्दुस्तानियों पर हावी हो, क्योंकि वह इसे गुलाम बनाने की भाषा मानते थे।
इस लेख में आगे कुछ और बताने से ज्यादा जरूरी होगा कि हम जानें कि मातृभाषा के लिए और अंग्रेजी के विरुद्ध गांधीजी के क्या विचार थे और फिर देखें कि क्या आज उनकी भविष्यवाणी सच साबित हो रही है ? अगर हां तो फिर उस गलती को दूर करने की तरफ सोचना होगा।
अंग्रेजी शिक्षा के खिलाफ गांधीजी ने कहा, ‘‘करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी। अंग्रेजी शिक्षण स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षण से दंभ, द्वेष, अत्याचार आदि बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी। भारत को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं।’’
वे आगे कहते हैं, ‘‘यदि मैं तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा देना बंद कर देता। सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएं अपनाने को मजबूर कर देता। जो आनाकानी करते उन्हें बर्खास्त कर देता।’’
भागलपुर शहर में छात्रों के एक सम्मेलन में भाषण करते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है, ‘‘मातृभाषा का अनादर मां के अनादर के बराबर है। जो मातृभाषा का अपमान करता है, वह स्वदेश भक्त कहलाने लायक नहीं है। बहुत से लोग ऐसा कहते सुने जाते हैं कि हमारी भाषा में ऐसे शब्द नहीं जिनमें हमारे ऊंचे विचार प्रकट किए जा सकें। किन्तु यह कोई भाषा का दोष नहीं। भाषा को बनाना और बढ़ाना हमारा अपना ही कत्र्तव्य है। एक समय ऐसा था जब अंग्रेजी भाषा की भी यही हालत थी। अंग्रेजी का विकास इसलिए हुआ कि अंग्रेज आगे बढ़े और उन्होंने भाषा की उन्नति की। यदि हम मातृभाषा की उन्नति नहीं कर सके और हमारा यह सिद्धांत रहे कि अंग्रेजी के जरिए ही हम अपने ऊंचे विचार प्रकट कर सकते हैं और अपना विकास कर सकते हैं, तो इसमें जरा भी शक नहीं कि हम सदा के लिए गुलाम बने रहेंगे। जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की शक्ति नहीं आ जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाए जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं मिल सकेगा।’’
एक अवसर पर गांधी जी ने विदेशी भाषा द्वारा दी जाने वाली शिक्षा से होने वाली हानियों का उल्लेख करते हुए कहा है ‘‘मां के दूध के साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में टूट जाता है। इसके अतिरिक्त विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा देने से अन्य हानियां भी होती हैं। शिक्षित वर्ग और सामान्य जनता के बीच में अन्तर पड़ गया है। हम जनसाधारण को नहीं पहचानते, जनसाधारण हमें नहीं जानता। वे हमें साहब समझते हैं और हमसे डरते हैं। यदि यही स्थिति अधिक समय तक रही तो एक दिन लार्ड कर्जन का यह आरोप सही हो जाएगा कि शिक्षित वर्ग जनसाधारण का प्रतिनिधि नहीं है।’’
उन्होंने यह भी कहा, ‘‘मुझे लगता है कि जब हमारी संसद बनेगी तब हमें फौजदारी कानून में एक धारा जुड़वाने का आंदोलन करना पड़ेगा। यदि 2 व्यक्ति भारत की एक भाषा जानते हों और इस पर भी उनमें से कोई दूसरे को अंग्रेजी में पत्र लिखे या एक-दूसरे से अंग्रेजी में बोले तो उसे कम से कम 6 महीने की सख्त सजा दी जाएगी।’’
साफ जाहिर है कि गांधीजी को भारत की असलियत की गहरी समझ थी। वह जानते थे कि अगर भारत में आॢथक विकास और शिक्षा का काम गांवों की बहुसंख्यक आबादी को केन्द्र में रखकर किया जाए, तभी भारत का सही विकास हो पाएगा, अन्यथा चंद लोग तो मजे करेंगे और बहुसंख्यक आबादी बर्बाद होगी। यही आज हो रहा है। असहिष्णुता हिन्दू और मुसलमान के बीच में नहीं, बल्कि 2 फीसदी अंग्रेजीदां वर्ग और 98 फीसदी आम हिन्दुस्तानी के बीच है, जिसे दूर करने के लिए अपनी भाषा नीति को बदलना होगा। क्या संसद इस पर विचार करेगी?