उड़ी ‘लक्षण’ है, ‘बीमारी’ नहीं

Wednesday, Sep 28, 2016 - 12:09 AM (IST)

पाकिस्तान में बलूचिस्तान वैसा ही है, जैसा हमारे यहां कश्मीर, जो महाराजा हरि सिंह द्वारा भारत में विलय के 70 साल बाद भी विद्रोही बना हुआ है लेकिन भारत के मामले में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने यह वचन दिया था कि घाटी में चीजें स्थिर होते ही जनमत संग्रह कराएंगे। वह अपना वायदा निभा नहीं सके।

नेहरू ने पाया कि चीजें ‘गीता बनाम कुरान’ के नारे के स्तर पर पहुंच जाएंगी और लोग धार्मिक भावनाओं के असर में इस कदर आ जाएंगे कि अपना मत व्यक्त नहीं कर पाएंगे। जब माने हुए नेता शेख अब्दुल्ला भारतीय संघ में शामिल हो गए तो उन्होंने मान लिया कि लोगों का फैसला मिल गया है जो जनमत संग्रह जैसा ही है और इसके साथ ही विलय पूरा हो गया।

उड़ी में जो कुछ हुआ वह लक्षण है, बीमारी नहीं। बीमारी यह है कि आंदोलन का नेतृत्व करने वाले युवक खुद का देश चाहते हैं, उसी तरह जिस तरह बलूचिस्तान पाकिस्तान से स्वतंत्र देश बनना चाहता है। अगर यह उन्हें मिल जाता है तो हमारी सीमा पर एक और इस्लामिक देश होगा।

हाल में, उनके बुलावे पर हुई श्रीनगर की मेरी यात्रा के दौरान मैंने कश्मीरी छात्रों से कहा कि वे जैसी इच्छा रखते हैं, लोकसभा उसे नहीं स्वीकारेगी। उन्होंने कहा कि यह आपकी समस्या है कि आप किस तरह बदलाव लाते हैं। स्वतंत्र देश की युवकों की मांग उससे अलग है जो यासिन मलिक तथा शब्बीर शाह कुछ साल पहले चाहते थे। यह अलग बात है कि यासिन ने भी इस सुर में अपना सुर मिला लिया है।

पाकिस्तान अब कश्मीर घाटी के लोगों के लिए प्रासंगिक बन गया है क्योंकि उन्होंने भी स्वायत्तता की मांग बदल कर आजाद इस्लामिक देश की मांग कर ली है। सीमा पर भारतीय सैनिकों पर हमला उनके गुस्से की परिणति है। पाकिस्तान ने भी माहौल कुछ हद तक इसके लिए ठीक पाया और घाटी में घुसपैठियों की संख्या बढ़ा दी है।
लेकिन यह पहली बार नहीं है कि पाकिस्तान ने घुसपैठिए भेजे हैं।

ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिसमें भारतीय संसद, मुम्बई या पठानकोट के हमले शामिल हैं। ऐसी हर घटना पर देश के बाकी हिस्सों में बदले के लिए युद्ध की पुकार सुनाई देने लगती है। इस बार सरकार पर इतना अधिक दबाव था कि उसे लोगों को भरोसा देना पड़ा कि जवाबी कार्रवाई की जाएगी लेकिन इसके लिए जगह और समय अपनी पसंद के चुने जाएंगे।

लेकिन लोग जमीन पर कार्रवाई चाहते हैं चाहे युद्ध ही क्यों न करना पड़े। मुझे याद है कि संसद, मुम्बई और पठानकोट पर हमलों के तुरंत बाद क्या हुआ था। हमारी प्रतिक्रिया इस रूप में आई थी कि करीब साल भर या उससे ज्यादा तक सीमा पर या उससे आगे तक सैनिक तैनात थे। इस समय गुस्सा ज्यादा गहरा और बड़ा है। फिर भी सरकार संयम बरत रही है, हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह भरोसा दिया है कि उड़ी में हमला करने वालों को बिना सजा के छोड़ा नहीं जाएगा।

लेकिन हमें यह भी पता है कि निर्वाचित शासक किस हद तक जा सकते हैं जब दोनों देशों के पास परमाणु हथियार हों लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आता कि इस्लामाबाद उन आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं करता जिनके बारे में पहचान हो गई है कि वे पाकिस्तान में रहते हैं। आतंकवादियों के खिलाफ इसने अब तक जो किया है वह भारत के आग्रह पर नहीं बल्कि वाशिंगटन के कहने पर।

युद्ध भड़काने वाले कुछ लोगों को छोड़कर भारत में लोगों की यही समझ है कि शांति का कोई विकल्प नहीं है। यही समय है कि देश के राजनीतिज्ञ अपने व्यवहार के बारे में आत्ममंथन करें। वे युद्ध के बारे में बात नहीं भी करते हैं तो उनके भाषण और उनके हाव-भाव में मित्रता वाली बात एकदम नहीं है। वे युद्ध और शांति दोनों की बात एक ही साथ करते हैं। जब दोनों तरफ के लोग गुस्से में हैं तो वे नफरत की आग क्यों भड़का रहे हैं?

फ्रांस और जर्मनी ने 100 साल से भी ज्यादा समय तक युद्ध किया था। वे आज एक-दूसरे के सबसे अच्छे दोस्तों में से हैं। बंटवारे के पहले कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्ना ने मुझे यह उदाहरण दिया था जब मैंने उनसे पूछा था कि अंग्रेजों के जाने के बाद हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे का गला पकड़ लेंगे। उन्होंने कहा कि हम सबसे अच्छे दोस्त होंगे। मुझे कोई शक नहीं है कि एक दिन ऐसा होगा। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह ने बार-बार कहा है कि नियति ने भारत और पाकिस्तान को साथ रख दिया है तथा अच्छा दोस्त होने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है।

मैं उनके साहस और प्रतिबद्धता की प्रशंसा करता हूं कि उनकी संख्या कितनी भी कम रही हो, मुम्बई पर आतंकी हमले के विरोध में उन्होंने कराची में मोमबत्ती जलाई या लाहौर में जुलूस निकाला। यही समय है जब भारत को समझदारी की जरूरत है। यही वह अवसर भी है जब भारत और पाकिस्तान के बीच अच्छे संबंधों में विश्वास की परीक्षा होनी है।

लेकिन इसके साथ ही पाकिस्तान को भारत के गुस्से को समझना चाहिए और उसका सम्मान करना चाहिए। मुंबई या पठानकोट में जिन्होंने हमला किया वे शायद अल-कायदा या तालिबान के हों जिन्होंने पाकिस्तान में भी तबाही मचा रखी है। ये संगठन जो उन लोगों की मदद कर रहे हैं, उन्हें प्रशिक्षण और हथियार दे रहे हैं।

ऐसे उग्रवादी कानून के दायरे से बाहर क्यों हैं? उनमें से कुछ को भारतीय संसद पर हमले के बाद हिरासत में लिया भी गया था, उसके बावजूद वे व्यावहारिक रूप से आजाद थे और उपदेश दे रहे थे तथा भारत के खिलाफ जहर फैला रहे थे। भारत को शक है कि मुंबई नरसंहार के बाद जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया उनके घर के सामने वाले दरवाजे बंद थे लेकिन पीछे के दरवाजे खुले थे।

जर्मनी को छोड़ कर किसी भी महाशक्ति ने मुंबई हमले के लिए पाकिस्तान को सीधे जिम्मेदार नहीं ठहराया है। जांचकत्र्ताओं को यकीन है कि भारत पर हमला करने वाले पाकिस्तान के किसी न किसी आतंकी गुट से जुड़े हैं। भारत ने अतीत में पाकिस्तान को जो सबूत दिए हैं वे इस्लामाबाद को प्रेरित करने में सफल नहीं हुए।

नैशनल इन्वैस्टीगेशन एजैंसी (एन.आई.ए.), जो उड़ी की घटना की जांच कर रही है, 2009 में पूरे ताम-झाम के साथ अस्तित्व में आई है। इसका गठन इस तरह की कई विफलताओं, जिसमें 26 नवम्बर की घटना भी शामिल है, के बाद लोगों का गुस्सा शांत करने के लिए किया गया है। उन्हें मामला सौंप दिया गया है लेकिन अभी तक शून्य परिणाम आए हैं। इस मामले में एन.आई.ए. क्या करेगी, यह देखना बाकी हैै।    

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