बैंकों की परेशानी को और बढ़ाएंगे गारंटी रहित ऋण

Thursday, Jun 27, 2019 - 04:01 AM (IST)

गत वीरवार संसद के दोनों सदनों के संयुक्त सत्र को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का सम्बोधन मोदी सरकार के आर्थिक लक्ष्यों का स्पष्ट वक्तव्य था। बेहतर समझने के लिए कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में हम क्या आशा कर सकते हैं, उनके भाषण में किए गए मूक आर्थिक वायदों की समीक्षा करना लाभकारी होगा। भारतीय अर्थव्यवस्था को 2024 तक 5 खरब डालर तक विकसित करने के लक्ष्य ने समाचार पत्रों में सुर्खियां बटोरीं। स्वाभाविक है कि प्रश्र उठाए जा रहे हैं कि क्या यह एक आकर्षक नारा ही है या सरकार इसे मात्र 5 वर्षों में हासिल करने के लिए गम्भीरतापूर्वक कार्य कर रही है, जो एक उच्च महत्वाकांक्षी लक्ष्य है। 

उल्लेखनीय है कि 5 खरब डालर के लक्ष्य का जिक्र प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 15 जून को नीति आयोग की गवॄनग कौंसिल की बैठक को अपने सम्बोधन में भी किया था। मोदी ने स्वीकार किया था कि लक्ष्य चुनौतीपूर्ण है मगर यह भी कहा था कि इसे प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि राज्यों को अपनी क्षमता की पहचान करके जिला स्तर से ही जी.डी.पी. लक्ष्यों को बढ़ाने की ओर काम करना चाहिए। राष्ट्रपति ने भी इस लक्ष्य को प्राप्त करने में राज्यों की भूमिका को रेखांकित किया था। उन्होंने कहा था कि लक्ष्य राज्यों के साथ सहयोग से प्राप्त किया जाएगा। 

यह सच है कि तेजी से विकास कर रहे राज्य देश के सकल आर्थिक विकास में मदद कर सकते हैं। मगर  यह चुनौतीपूर्ण लक्ष्य प्राप्त करने का भार राज्यों के कंधों पर डालना महत्वपूर्ण है। यह सहकारी संघवाद में विश्वास प्रदर्शित करने का मोदी सरकार का एक तरीका हो सकता है। यह बचने का एक रास्ता भी हो सकता है। यदि 5 खरब डालर का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जाता तो राज्य आसानी से बलि का बकरा बन सकते हैं। 

हर तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास कारगुजारी ने अतीत में नए लक्ष्यों को हासिल करने में कठिनाई के संकेत दिए हैं। 2013-14 में भारत की डालर जी.डी.पी. का अनुमान 2 खरब डालर का था। 2018 में इसके 2.7 खरब डालर तक बढऩे का अनुमान था, जो 35 प्रतिशत की वृद्धि है। यदि 2024 में 5 खरब डालर का लक्ष्य हासिल करना है तो इस समय के दौरान विकास 85 प्रतिशत की दर से होना चाहिए। यह एक बड़ा कार्य है। आधिकारिक लक्ष्य निर्धारित करने से पूर्व क्या इस विचार पर अच्छी तरह से सोच-विचार किया गया था? 

सर्वाधिक तेजी से विकसित होने वाला देश नहीं
राष्ट्रपति पहले ही स्वीकार कर चुके हैं कि भारत विश्व में सर्वाधिक तेजी से विकसित होने वाला देश नहीं रहा। उन्होंने कहा कि आज भारत विश्व में सर्वाधिक तेजी से विकास करने वाले देशों में से एक है। रिजर्व बैंक के गवर्नर ने भी स्वीकार किया कि भारतीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक गतिविधियां आकर्षण खो रही हैं। विशेषज्ञों ने कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था द्वारा उन्हें विकास की रफ्तार हासिल करने में कुछ और तिमाहियां लगेंगी। जी.डी.पी. वृद्धि के हालिया आंकड़े कोई आशा नहीं दिखाते। तो क्यों वह लक्ष्य निर्धारित किया गया था? 

राष्ट्रपति ने यह भी कहा था कि ‘उद्योग 4.0 के मद्देनजर’ सरकार शीघ्र ही नई औद्योगिक नीति घोषित करेगी। उद्योग 4.0 से तात्पर्य चौथी औद्योगिक क्रांति से है, जिसने तकनीक, आटोमेशन, कृत्रिम समझ तथा डाटा एनालिटिक्स के इस्तेमाल को प्रोत्साहित किया मगर इसके साथ ही इसने नौकरियों की वर्तमान किस्म के लिए खतरा भी पैदा किया। भारत जैसे देश के सामने बेरोजगारी एक प्रमुख समस्या बनी हुई है इसलिए नई सरकार किस तरह की नई औद्योगिक नीति बना सकती है? 

खुदरा व्यापार नीति
सरकार का वायदा कि यह एक राष्ट्रीय खुदरा व्यापार नीति बनाएगी, भी सम्भावनाओं से परिपूर्ण है। इस नीति का उद्देश्य खुदरा व्यवसाय को प्रोत्साहित करना होगा लेकिन विदेशी निवेशकों के साथ-साथ बड़ी भारतीय कम्पनियां इसकी रूपरेखा पर बेताबी से नजर रखे होंगी। छोटे व्यापारी खुदरा क्षेत्र को खोलने का विरोध कर रहे हैं। हाल ही में वालमार्ट के भारतीय संयुक्त उद्यम द्वारा 2011 में भारत सरकार के अधिकारियों को कुछ अनुचित भुगतानों के खुलासे का भी खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश बारे मोदी शासन के दृष्टिकोण पर असर होगा। क्या नई खुदरा व्यापार नीति में विदेशी निवेश संबंधी नियमों को ऐसी चिंताओं का समाधान करने हेतु अच्छी तरह से प्रतिबंधात्मक बनाया जाएगा या खुदरा क्षेत्र को खोलने के दौरान छोटे व्यापारियों को खुश करने के लिए कुछ अन्य प्रोत्साहन दिए जाएंगे? 

उद्यमियों की पूंजी की जरूरतों का हवाला देते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि सरकार उनके लिए बिना किसी गारंटी के 50 लाख रुपए तक के ऋण उपलब्ध करवाएगी। बैंकों ने अभी अपनी गैर-निष्पादित सम्पत्तियों (एन.पी.ए.) से निपटने की शुरूआत की है। बिना किसी गारंटी के इतने बड़े आकार के ऋण वित्तीय क्षेत्र के स्वास्थ्य के लिए गम्भीर समस्या पैदा कर सकते हैं। दुर्भाग्य से ऐसे गारंटीरहित ऋणों का बोझ पहले से ही परेशान सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों को उठाना पड़ेगा। क्या सरकार एक अलग नाम से ऋणों की ‘दावत’ को प्रोत्साहित कर रही है?-ए.के. भट्टाचार्य

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