‘सुन ले बापू यह पैगाम, मेरी चिट्ठी तेरे नाम’

Thursday, Oct 05, 2017 - 02:33 AM (IST)

बापू, आपको यह चिट्ठी मैं आपके जन्मदिन पर आपके ही आश्रम से लिख रहा हूं। 100 साल पहले चम्पारण सत्याग्रह के केंद्र के रूप में आपने भीतरवाह में यह केंद्र बनाया था। आश्रम की इमारत अब भी कायम है। अब भी उसे कंक्रीट और संगमरमर से ढका नहीं गया है। आश्रम की काया में आपकी सादगी आज भी झलकती है। चम्पारण सत्याग्रह की याद में बना संग्रहालय दरिद्र, बेतरतीब और अनमना-सा है। आपकी मूर्ति में तो जान है, पर और किसी चीज में नहीं।  लेकिन शायद आपको बुरा नहीं लगता  तो भला मैं उस पर आपत्ति करने वाला कौन हुआ? 

आश्रम की काया तो बची है लेकिन आश्रम की आत्मा के बारे में कहना मुश्किल है। सुना है पिछले साल आपके जन्मदिन पर यहां बहुत सरकारी तामझाम था। सरकार ने एक गांधी बहुरूपिया छोड़ा था तो विपक्ष ने दूसरा। इस बार सरकार नदारद थी, पर सुना कि कलैक्टर साहब आने वाले थे। आश्रम में रस्मी प्रार्थना चल रही थी। कुल मिलाकर माहौल कुछ थका और बुझा हुआ-सा था। सत्याग्रह की आत्मा आश्रम की चारदीवारी के बाहर जिंदा थी। वहां एक स्थानीय मुद्दे को लेकर अनशन चल रहा था। वहीं लोक संघर्ष समिति के पंकज जी से मुलाकात हुई जो हजारों पट्टाधारी भूमिहीनों को उनकी जमीन का कब्जा दिलाने के लिए अहिंसक संघर्ष कर रहे हैं। मुझे लगा कि अगर आप होते तो किसी औपचारिक समारोह में शामिल होने की बजाय जरूर भूमिहीनों के इस संघर्ष में शरीक होते।

वहीं बाहर ही देश भर के किसान आंदोलनों का शामियाना भी लगा था। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के बैनर तले हम लोग किसान मुक्ति यात्रा का आगाज कर रहे थे। चम्पारण सत्याग्रह के दौरान भारत के किसान की दशा पर कही गई आपकी बात को याद कर रहे थे। आपने कहा था कि नील की खेती करने वाला किसान बंधुआ है। आपकी नजर में उस किसान की अवस्था भारत के किसान की गुलामी का दर्पण थी। वहां बैठे मैं सोचने लगा क्या चम्पारण का किसान आज भी बंधुआ नहीं है? क्या भारत का किसान आज गुलाम नहीं है? 

चम्पारण का किसान कहता कि ‘‘निलहे गए मिलहे आए’’ यानी कि नील के जमींदार तो चले गए लेकिन उनकी जगह चीनी मिल की जमींदारी ने ले ली। आज भी चम्पारण में बड़ी जोत एकड़ में नहीं, किलोमीटर में नापी जाती है। राजे-रजवाड़े और कम्पनियों के पास कई किलोमीटर जमीन है। आज भी जमीन जोतने वाले लाखों परिवार जमीन की मलकीयत से वंचित हैं। गन्ना उगाने वाला किसान चीनी मिल से बंधा हुआ है। उसे इतना दाम भी नहीं मिलता जोकि पड़ोस के उत्तर प्रदेश में गन्ना उत्पादकों को मिलता है। किसान अब भी बंधुआ ही है- नील की जगह चीनी, जमींदार की जगह मिल और अंग्रेजों की जगह चुनी हुई सरकार ने ले ली है। 

बापू, यह सिर्फ  चम्पारण नहीं, पूरे देश के किसान की कहानी है। भारत का किसान आज भी गुलाम है। वह गुलाम है ऐसी अर्थव्यवस्था का जिसे न वह समझता है और जिस पर उसका कोई नियंत्रण भी नहीं। वह गुलाम है ऐसी व्यवस्था का जिसमें उसके फसल के दाम तो बढ़ते नहीं लेकिन लागत और घर खर्च बेतहाशा बढ़ते जा रहे हैं। किसानी घाटे का धंधा बन गई है। फिर भी किसान इसी लकीर को पीटने के लिए अभिशप्त है। किसान गुलाम है बैंक और साहूकार का जिसके कर्ज में वह डूबा है। आपके जमाने में कहते थे-किसान कर्ज में पैदा होता है, कर्ज में जीता है और कर्ज में ही मर जाता है। आज भी वही स्थिति बदली नहीं है-बस कर्ज की राशि बढ़ गई है और साहूकार की जगह बैंक ने ले ली है। आपके जमाने में लगान और कर्ज से सताए गुलाम विद्रोह कर देते थे। आज का गुलाम किसान आत्महत्या कर रहा है। 

आज का किसान गुलाम है आधुनिक खेती का, पिछले 70 सालों में उसे यह पाठ पढ़ा दिया गया है कि उसे अपने पुरखों की खेती छोड़ कर नई फसल, संकरित बीज, रासायनिक खाद, जहरीले कीटनाशक और पम्प से निकला बेतहाशा पानी लगाना होगा। शुरू के सालों में कुछ कमाई का लालच किसान को इस नई खेती में खींच लेता है। फिर न उसका बीज, न उसका ज्ञान, न उसकी खाद, न उसकी फसल। कुछ साल में आमदनी घट जाती है, कुएं सूख जाते हैं, नई लाइलाज बीमारियां लग जाती हैं लेकिन यह गुलामी नहीं छूटती है। इस मायने में तो आजादी के बाद किसान और ज्यादा गुलाम हो गया है। किसान गुलाम है अपनी ही चुनी हुई सरकारों का। कहने को देश में लोकतंत्र है, लोकतंत्र में बहुमत की सरकार है और किसान बहुमत में है लेकिन इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसान की हैसियत एक नौकर से ज्यादा नहीं है। 

पटवारी के सामने हाथ जोड़ता, तहसील में जूतियां घिसता,  बैंक मैनेजर के दरवाजे से दुत्कारा जाता, यह किसान आज भी नागरिक नहीं, प्रजा है। कहने को 300 से अधिक सांसद अपने को किसान की संतान बताते हैं लेकिन किसान इस व्यवस्था में हर कानून और नीति में सबसे अंत में आता है। हर सरकार के पास कम्पनियों के लिए मलाई है और किसान के लिए खुरचन, उद्योग के लिए पैसा है और किसान के लिए डायलॉग। अपने आपको किसान की संतान घोषित करने वाले मंत्री अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के सौदों में किसान का हित बेच कर चले आते हैं, कोई पूछने वाला भी नहीं है। 

बापू, किसान को इसी गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए आपने चम्पारण सत्याग्रह किया था। आज किसान को इस नई गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए कैसा सत्याग्रह करें? भीतरवाह आश्रम में चम्पारण सत्याग्रह की झांकी देखते हुए इतना तो स्पष्ट हुआ कि यह सत्याग्रह किसी बनी-बनाई लीक पर नहीं चल सकता। इस सत्याग्रह का रास्ता सतत् संघर्ष और नूतन प्रयोग से तय होगा। पिछले 3 महीनों में देश के 13 राज्यों में किसान मुक्ति यात्रा में किसानों के साथ घूम कर इतना तो समझ आया है कि किसान एक बार फिर स्वराज के संघर्ष के लिए तैयार है। 20 नवम्बर को देश भर के किसान दिल्ली पहुंच कर एक नए सत्याग्रह का उद्घोष करेंगे। आप वहां रहेंगे न बापू? 

भीतरवाह आश्रम से जाते वक्त मेरी निगाह आपके तीन बंदरों की मूर्ति पर पड़ी। मुझे लगा कि आप उनके साथ एक चौथा बंदर भी बैठाने को कह रहे हैं। ‘बुरा मत देखो’, ‘बुरा मत सुनो’, ‘बुरा मत कहो के साथ-साथ ‘बुरा मत सहो’ का एक चौथा बंदर भी बैठा हुआ है। उसका हाथ उठा हुआ है और मुठ्ठी बंद। मुझे लगा कि किसान स्वराज के इस नए सत्याग्रह के लिए आपका आशीर्वाद मिल गया है।

 

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