कोविंद को जातिगत पहचान से जोडऩा राजनीतिक परिपक्वता से अन्याय होगा

Wednesday, Jun 21, 2017 - 10:54 PM (IST)

‘‘मैंने जैसे स्वयं सफलता पाई, वैसे तुम लोग भी मेहनत करो।’’ यह शब्द राष्ट्रपति पद के लिए राजग के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद ने अपने भतीजे को कहे थे और इंडियन एक्सप्रैस की एक रिपोर्ट में इसका उल्लेख किया गया था। यह एक पंक्ति ही इस महानुभाव  को सटीक शब्दों में परिभाषित करती है। अन्य कई खूबियों के साथ कोविंद अपने प्रयासों से सफलता की सीढिय़ां चढऩे वाले व्यक्ति हैं। 

वह यू.पी. के जिला कानपुर के समीपवर्ती एक साधारण से गांव परोख में पैदा होकर भारतीय संसद, सुप्रीम कोर्ट और फिर पटना के राजभवन में पहुंचे। वह एक सामाजिक कार्यकत्र्ता और कर्मठ पार्टी वर्कर के रूप में ही अपने जीवन पथ पर अग्रसर रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकत्र्ता बनने के बाद वह जनसंघ में काम करते हुए उत्तर प्रदेश में भाजपा के सक्रिय नेता बन गए। अपनी शिक्षा-दीक्षा के लिहाज से कोविंद एक वकील हैं। वह एक दशक से भी अधिक समय तक सुप्रीम कोर्ट में सरकार के स्थायी कानूनी सलाहकार और वकील रहे हैं। सिविल सेवा परीक्षा पास करने के बाद जब वह अपने पसंदीदा आई.ए.एस. काडर में न जा सके औरउन्हें एलाइट सेवाओं की पेशकश की गई तो उन्होंने इसे अलविदा कहना ही बेहतर समझा। 

1994 में वह राज्यसभा के सांसद बने और 2006 तक लगातार दो बार इसी हैसियत में काम करते रहे। संसद में उनके साथी उन्हें एक अत्यंत विनम्र और मृदुभाषी और एकाग्र प्रवृत्ति वाले व्यक्ति के रूप में याद करते हैं। उन्होंने भाजपा अनुसूचित जाति मोर्चा और पार्टी प्रवक्ता सहित अनेक पदों पर भाजपा में सेवाएं दीं। बुरी तरह जाति व्यवस्था में संलिप्त राजनीतिक तंत्र में कोविंद की जातिगत पहचान चर्चा का एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गई है। कुछ लोगों ने उन्हें उम्मीदवार बनाए जाने को भाजपा की अपने प्रभाव क्षेत्र को विस्तार देने की कवायद करार दिया है, जबकि कुछ अन्य इसे बहुत गजब का राजनीतिक ‘मास्टर स्ट्रोक’ मानते हैं। कोविंद की दलित पहचान निश्चय ही एक वास्तविकता है, वह एक निम्र मध्यवर्गीय किसान परिवार से संबंध रखते हैं।

उनका भारत के प्रथम नागरिक यानी राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनना हमारे लोकतंत्र और जीवन मूल्यों की शक्ति के प्रति हमारा श्रद्धा भाव है। हमारे देश में दलित भाईचारे को नए प्रतिनिधित्व की जरूरत है और कोविंद जैसे नेता इस नए दौर के नेतृत्व  का प्रतीक हैं। ऐसे लोग नए दौर के दलित चिंतन का प्रतिनिधित्व करते हैं जो एक सशक्त हो चुके समुदाय के विकासोन्मुखी एक्टिविज्म पर केन्द्रित है। नव-सशक्त दलित नेतृत्व की उल्लेखनीय विलक्षणता यह है कि वह सामाजिक पहचान को व्यापक राष्ट्रीय  पहचान के अंग के रूप में ही देखते हैं। यह एकजुटतावादी मानसिकता कोविंद जैसे नेताओं द्वारा अनेक वर्षों तक  भाजपा और संघ परिवार की ‘एक राष्ट्र-एक परिवार’ विचारधारा को हृदयंगम करने में से ही पैदा हुई है। 

लेकिन यदि हम अपनी परिचर्चा केवल कोविंद की जातिगत पहचान तक ही परिसीमित रखते हैं तो यह न केवल इस व्यक्ति के साथ बल्कि हमारे राष्ट्र की राजनीतिक परिपक्वता के साथ भी भारी अन्याय होगा। ब्रिटिश दौर में लाल पत्थर से बनाए गए और आजकल राष्ट्रपति भवन नाम से विख्यात 340 कमरों वाले आवास व कार्यालय में सुशोभित होने वाले वह न तो प्रथम दलित होंगे और न ही अंतिम। 1997 से 2000 के बीच के.आर. नारायणन भी इस महलनुमा इमारत के  वासी रह चुके हैं। नारायणन की तरह कोविंद भी बहुत पढ़े-लिखे और अनुभवी नेता हैं। राष्ट्रपति पद के इस प्रत्याशी की पूर्व राष्ट्रपति के साथ जो तुलना की जा रही है वह न केवल अवांछित  है बल्कि अन्यायपूर्ण भी है। एक-दो असुखद प्रकरणों को छोड़कर गत अनेक दशकों दौरान राष्ट्रपति पद काफी हद तक गैर विवादित रहा है। अपनी प्रवृत्ति और स्वभाव के मद्देनजर कोविंद के लिए इस पद के अनुरूप खुद को ढालना कोई कठिन नहीं होगा। 

संसदीय शिष्टमंडलों के रूप में दर्जन से भी अधिक देशों की यात्राओं के दौरान उन्होंने ग्लोबल राजनीति के बारे में जो विशाल अनुभव हासिल किया है वह अब उनके लिए बहुत अनमोल सिद्ध होगा क्योंकि राष्ट्रपति के रूप में उन्हें अनगिनत वैश्विक नेताओं का स्वागत करना पड़ेगा। के.आर. नारायणन के संबंध में यह स्मरण रखना बहुत महत्वपूर्ण है कि जब वह वर्ष 2000 में पैरिस गए तो वहां क्या हुआ था? तब फ्रांसीसी मीडिया ने भारतीय राष्ट्रपति की सरकारी यात्रा के बारे में रिपोर्ट को यह सुर्खी प्रदान की थी : ‘‘एलिसी में एक अछूत।’’ राष्ट्रपति नारायणन ने तब केवल एकमात्र इंटरव्यू फ्रांस के एक अग्रणी समाचारपत्र ‘ली मोंडे’ को दिया था और इस दैनिक ने इस साक्षात्कार को उनकी जाति से जोड़ कर प्रकाशित किया था। 

जिस प्रकार फ्रांसीसी मीडिया ने नारायणन की साधारण पृष्ठभूमि को अत्यंत बचकाना और उपहासजनक तरीके से प्रस्तुत किया उससे भारतीय पक्ष (राष्ट्रपति सहित) बुरी तरह आहत और परेशान हुआ था। बाद में फ्रांस सरकार को मजबूर होकर खेद व्यक्त करना पड़ा और क्षमा याचना करनी पड़ी। के.आर. नारायणन और रामनाथ कोविंद की भारत के उच्चतम पद तक की यात्रा उनकी व्यक्तिगत पहचान तथा राष्ट्र की सामूहिक इच्छा शक्ति दोनों की दृष्टि से ही गर्व का विषय होना चाहिए। जब डाक्टर जाकिर हुसैन देश के उपराष्ट्रपति बने थे तो कुछ उत्साही लोग उन्हें बधाई देने उनके घर गए थे। ऐसे लोगों ने कहा : ‘‘हुसैन जैसे मुस्लिम का भारत में उपराष्ट्रपति बनना इस बात का प्रमाण है कि हमारा सैकुलरवाद कितना सफल है। ’’ 

इस पर डाक्टर हुसैन ने लताड़ लगाते हुए इन लोगों को कहा: ‘‘एक मुस्लिम का भारत का उपराष्ट्रपति बनना सैकुलरवाद की सच्ची सफलता है। कोई भी व्यक्ति उन्हें मुस्लिम के रूप में बधाई देने नहीं आया बल्कि लोग उन्हें केवल भारतीय के रूप में देखते हैं।’’ जाने-माने सामाजिक मनोवैज्ञानिक जोनाथन हैत अपनी पुस्तक ‘द राइट इस माइंड’ में दुखी होकर लिखते हैं : ‘‘हमारी राजनीति स्वार्थी नहीं बल्कि गुटवादी है।’’ गुटीय पहचान अधिक महत्वपूर्ण है और यही किसी व्यक्ति को परिभाषित करती है। इसका परिणाम यह होता है कि कुछ घिसी-पिटी अवधारणाएं बन जाती हैं जिससे अंततोगत्वा वैमनस्य और विभाजन बढ़ता है। फलस्वरूप हम अपनी महान राष्ट्रीय विभूतियों को छोटे-छोटे गुटों के नेता बनाकर रख देते हैं। इसका खमियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ता है जैसा कि हम के.आर. नारायणन के मामले में देख चुके हैं। 

यदि कोविंद समाज के किसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं तो वह है भारत का बहुसंख्यक यानी ग्रामीण, कृषक, आर्थिक एवं सामाजिक रूप में वंचित वर्ग। यह वही वर्ग है जिसका प्रतिनिधित्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी करते हैं। उन्हें भी नई दिल्ली के कथित बुद्धिजीवियों ने ‘चाय वाला’ होने का उलाहना देकर नाक सुकेड़े थे। कोविंद और मोदी दोनों ही असली भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे प्रोलतारी माक्र्स और फिलास्फर सुकरात का एकजुट स्वरूप हैं।     

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