कानूनी अड़चनों में उलझती वर-वधू की मर्यादाएं

Thursday, Mar 17, 2022 - 04:34 AM (IST)

विवाह दो आत्माओं के मिलन का एक पवित्र बंधन माना गया है, जिसका उद्देश्य एक सुदृढ़ परिवार की नींव डालना होता है। शादी को व्यक्ति  का दूसरा जन्म भी माना गया है क्योंकि इसके बाद वर-वधू सहित दोनों परिवारों का जीवन पूरी तरह बदल जाता है। विवाह को पति-पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का संबंध माना गया है, जिसे किसी भी परिस्थिति में तोड़ा नहीं जा सकता। विवाह में पति-पत्नी के बीच शारीरिक से अधिक मानसिक संबंध होता है, जिसे अधिक पवित्र माना गया है। विवाह के बाद 2 प्राणी अपने अलग-अलग अस्तित्वों को समाप्त करके एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं। विवाह के समय वर-वधू द्वारा अग्नि के इर्द-गिर्द सात फेरे तथा सात वचनों पर चलने का प्रण भी लिया जाता है। 

मगर विवाह के बाद पारिवारिक हस्तक्षेप बढऩे लगता है तथा वर-वधू दोनों में वैमनस्य उत्पन्न होना शुरू हो जाता है। बदलते परिवेश में महिला और पुरुष दोनों में आॢथक स्वावलंबन की चाहत विस्तृत होने लगती है तथा यही चाहत कई बार वर-वधू दोनों में विघटन का कारण भी बन जाती है। इसी तरह सदियों से सास-बहू के रिश्तों पर लगे धब्बे भी मिटाने से मिटते नहीं और इसी गलतफहमी के कारण लड़के और लड़की के रिश्तों में दरार आनी शुरू हो जाती है। 

पहले आजीविका कमाने का क्षेत्र केवल पुरुषों तक ही सीमित था और महिला घर पर ही रहती थी। आज अधिकतर पति-पत्नी दोनों कमाने लगे हैं तथा दोनों इतने व्यस्त रहते हैं कि एक-दूसरे को समय ही नहीं दे पाते। इसी तरह पहले तलाक मिलना कठिन होता था मगर अब यह आसानी से मिल जाता है। इसी के साथ-साथ महिलाओं में जागृति भी बढऩे लगी है और अब वह पुराना जमाना नहीं रहा जब नारी यातनाएं झेलती रहती थी। 

यह ठीक है कि विवाह के बाद लड़के की जिम्मेदारी दोहरी हो जाती है, उसे अपने बूढ़े मां-बाप व अविवाहित बहनों-भाइयों के पालन करने की जिम्मेदारी भी निभानी पड़ती है। ऐसा करना कई बार नवविवाहिता को गवारा नहीं होता, जिससे दोनों में तकरार बढऩी शुरू हो जाती है तथा एक समय ऐसा आता है, जब लड़की की प्रताडऩा आरंभ हो जाती है। उधर लड़की के माता-पिता भी अपनी लड़की की तकलीफों को सहन नहीं कर पाते तथा उसे कोर्ट-कचहरी में जाने की सलाह देने लगतेे हैं। बात यहीं समाप्त नहीं होती, इंतहा तो तब हो जाती है जब प्रताडि़त महिलाएं अपने पति व ससुराल के सदस्यों को सलाखों के पीछे भेज कर सांस लेती हैं। ऐसे हालातों में वर-वधू का जीवन नरक बन कर रह जाता है। 

वर्ष 1983 में भारतीय दंड संहिता की धारा 498 में संशोधन करके एक नई धारा 498-ए जोड़ी गई, ताकि पीड़ित महिला अपनी प्रताडऩा हेतु थाने में जाकर मुकद्दमा दर्ज करवा सके, मगर इस कानूनी प्रावधान का गलत इस्तेमाल होने लगा तथा न केवल लड़का, बल्कि उसके माता-पिता व भाई-बहन भी जेलों में जाने लग पड़े। यह सब कुछ देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप किया तथा आदेश पारित किए कि इस अपराध को जमानती बनाया जाए तथा मुकद्दमा दर्ज करने से पहले दोनों पक्षों की काऊंसलिंग की जाए। 

परिणामस्वरूप 2005 में घरेलू हिंसा संबंधी कानून बनाया गया, जिसमें दोनों पक्षों के संबंधों को सलाह-परामर्श द्वारा मधुर बनाने के प्रावधान किए गए। इसके अंतर्गत प्रताडि़त महिला के प्रार्थना पत्र पर पहले थाना स्तर, फिर कल्याण विभाग की विशेष महिला अधिकारी द्वारा काऊंसलिंग करना आवश्यक है तथा यदि इन दोनों पटलों पर लड़की को न्याय न मिल पाए तो फिर वह न्यायालय में गुहार लगा सकती है। इस एक्ट के बनने के बाद निश्चित तौर पर जहां एक तरफ पीड़ित महिलाओं को राहत मिली है, वहीं दूसरे पक्ष को भी अपना पक्ष रखने का पूर्ण अधिकार दिया गया है और परिणामस्वरूप अब महिलाओं के उत्पीडऩ संबंधी घटनाओं में व्यापक कमी आई है। 

मगर इस कानून का दूसरा पहलू भी है। वास्तव में कुछ असल तौर पर प्रताडि़त महिलाओं को तुरंत न्याय नहीं मिल रहा तथा वे कानून के इस मकडज़ाल में उलझती हुई लगती हैं। अब पुलिस को अपनी मनमानी करने का ज्यादा मौका मिल गया है क्योंकि मुलजिम पार्टी को कानून का डर लगा रहता है तथा पुलिस के भ्रष्टाचार में संलिप्त हो जाने से इंकार नहीं किया जा सकता।

दूसरी तरफ इस कानून का हवाला देकर महिला को अपने पति से सुलह करने का परामर्श दिया जाता है। जब महिला संतुष्ट नहीं होती, तब उसका प्रार्थना पत्र कल्याण विभाग द्वारा नियुक्त की गई महिला अधिकारी के पास भेज दिया जाता है तथा महिला को जगह-जगह भटकने के लिए मजबूर होना पड़ता है। हालांकि प्रताडि़त महिला को मुकद्दमा दर्ज करवाने से रोका नहीं जा सकता, मगर पुलिस घरेलू ङ्क्षहसा एक्ट के अंतर्गत ही कार्रवाई करना उचित समझती है तथा वास्तविक रूप से दुखी, प्रताडि़त महिला को तुरंत न्याय नहीं मिल पाता। 

विवाहित महिला अपना स्वतंत्र जीवन व्यतीत करना चाहती है और ससुराल पक्ष की छोटी-छोटी बातों को भी गंभीरता से लेना शुरू कर देती है, जिससे आपसी संबंध बिगडऩे शुरू हो जाते हैं। वैसे तो कोई भी विवाहित महिला (कुछ अपवादों को छोड़ कर) अपने पति से अलग नहीं रहना चाहती, मगर अपने माइंड-सैट व ससुराल पक्ष की तरफ  से लगाए गए ताने-मानों से तंग आकर पुलिस का दरवाजा खटखटाने के लिए मजबूर हो जाती है। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए कुछ सुझाव दिए जा रहे हैं : 

1. पीड़ित महिलाओं की शिकायतें केवल महिला पुलिस थाने में ही दर्ज होनी चाहिएं तथा इनका संज्ञान महिला पुलिस स्टेशन अधिकारी से नीचे वाले रैंक द्वारा नहीं लिया जाना चाहिए।
2. ऐसी शिकायतों का आकलन थाने के प्रवेक्षक अधिकारी द्वारा करना चाहिए तथा उसे लिखित रूप में अपने दिशा-निर्देश पारित करने चाहिएं।
3. यदि पीड़ित महिला अपना मुकद्दमा दर्ज ही करवाना चाहती है तो उसका साक्षात्कार पुलिस अधीक्षक द्वारा खुद लेना चाहिए तथा थाना अधिकारी को उचित निर्देश देने चाहिएं।
4. ऐसी शिकायतों का निपटारा करने के लिए उप-मंडल स्तर पर महीने में एक बार जागृति कैंप लगाना चाहिए तथा कम से कम इस कैंप में राजपत्रित पुलिस अधिकारियों को शिरकत करनी चाहिए। 

5. पंचायतों को भी ऐसी शिकायतें सुनने की शक्तियां प्रदान करनी चाहिएं, ताकि विवाद को शुरू में ही सुलझाया जा सके।
6. महिला पुलिस थानों में महिला अधिकारियों की संख्या बढ़ानी चाहिए ताकि शिकायतों का निपटारा कम से कम समय में किया जा सके।
7. यदि पाया जाए कि महिला ने अपने ससुराल वालों के विरुद्ध झूठा मुकद्दमा दर्ज करवाया है तो न्यायालय को अपने स्तर पर ही उसके विरुद्ध 182 भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत कार्रवाई कर लेनी चाहिए, ताकि वर पक्ष को भी न्याय मिल सके।-राजेन्द्र मोहन शर्मा डी.आई.जी. (रिटायर्ड)
 

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