जीवन खुलकर जीने का नाम है

punjabkesari.in Saturday, Dec 21, 2024 - 06:29 AM (IST)

अक्सर सरकार यानी राजा और समाज अर्थात कुटुंब की तरफ से ऐसे फरमान आते रहते हैं जिनका उद्देश्य यह तय करना ही नहीं बल्कि उन्हें जोर-जबरदस्ती लागू करना भी होता है जिसे आसान शब्दों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन कहते हैं। 
आधुनिक वैश्वीकरण के युग में जिसमें, सूचना तंत्र और टैक्नोलॉजी ने, दुनिया हो या हमारा मन मस्तिष्क, सब के बंद झरोखों और दरवाजों को खोल दिया है। कुछ मुट्ठी भर लोग जिनके हाथ सत्ता लग जाती है, ऐसे राजनीतिज्ञ, आर्थिक रूप से संपन्न या अपनी दबंगई से भय का वातावरण बना सकने में माहिर अपनी मर्जी से हमारे विशाल देश पर निरंकुश राज करना चाहते हैं।

जड़ और वृक्ष : देश की प्रजा एक पेड़ की जड़ के समान होती है जिस के सहारे तना, टहनियां, पत्ते और फल फूल पलते और बढ़ते हैं। यह तब हो पाता है जब जड़ को खाद पानी और दूसरे पौष्टिक तत्वों से मजबूत बनाए रखा जाता है। 
वृक्ष राजा या प्रजातंत्र में सरकार की तरह होता है। जब वह अपने घमंड में चूर होकर जड़ को ही खोद-खोद कर उसे यानी प्रजा को ही नष्ट करना चाहे तो यही होगा न कि जिस डाल पर बैठे उसी को सत्ता की तलवार से काट रहे हैं।
यह प्रश्न इसलिए विचार और चिंतन मनन करने योग्य है क्योंकि हमारे नेता जिनमें प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री सभी आते हैं, वे लोगों के व्यक्तिगत जीवन पर अपना कब्जा चाहते हैं। उनकी तरफ से जब ऐसी नसीहतें और उन्हें मानने के हुक्म आते हैं और मजा यह कि वे कानून तक बना देते हैं कि कोई क्या खाएगा, क्या पिएगा, क्या पहनेगा, कैसे उठेगा, चलेगा और बोलेगा या बतियाएगा। 

समाज के कट्टरपंथियों की तो ऐसे में पौ बारह हो जाती है क्योंकि उन्हें सत्ता का संरक्षण मिला होता है। इसका परिणाम यह होता है कि युवा वर्ग अपने ही दकियानूसी परिवार के नियंत्रण की बेडिय़ां तोड़कर कहीं और चले जाना बेहतर समझता है। वे विरोध सहकर भी पढ़ाई और नौकरी के लिए दूर चले जाते हैं और परिवार से नाम मात्र का संबंध भी नहीं रखना चाहते क्योंकि वहां बंदिशों के सिवाय कुछ नहीं और यहां जीने और उड़ान भरने के लिए मुक्त आकाश है।

सामाजिक वर्जनाएं : जब लड़का और लड़की साथ पढ़ते हैं, नौकरी या व्यवसाय करने लगते हैं तो उनमें नजदीकियां होना स्वाभाविक है। वे लिव इन अपना लेते हैं और विवाह बंधन में बंधने की बजाय जब तक निभे साथ रहो, जब मुश्किल हो जाए तो अलग हो जाओ या किसी नए साथी, जिसके साथ मन मिल जाए, साथ रहने लगो।  इसका परिणाम यह हो रहा है कि वे संतान नहीं चाहते। यह समस्या भारत के लिए नई है लेकिन ब्रिटेन, अमरीका और यूरोपियन देशों में काफी समय से है। वहां अब लोगों का अपने अतिरिक्त किसी दूसरे पर ध्यान ही नहीं जाता कि उसने क्या पहना, क्या खाया पिया और कैसे जिया।

हमारे एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री बयान देते हैं कि युवा वर्ग भटक गया है उसे कंट्रोल में रखना होगा। विवाह किए बिना साथ रहना उनकी कल्पना में ही नहीं। हकीकत यह है कि आज का युवा अपने ही परिवार में मां के साथ पिता का दुव्र्यवहार और मारपीट देखकर और उनके कभी अलग न हो सकने की भयावहता के कारण, डरने लगा है कि शादी कर ली तो तलाक लेने में ही जिंदगी गर्क हो जाएगी। हालांकि एल.जी.बी.टी. कानून है लेकिन वह उन्हें हजम नहीं हो रहा। अगर इस वर्ग के लोग एक परिवार की तरह रहना चाहते हैं तो इन थोड़े से लोगों को साथ रहने दो न, क्यों उन्हें खतरा समझते हो। खानपान, पहनावे को लेकर ही नहीं, कौन सी फिल्म देखें, कैसा संगीत सुनें या कोई कलाकार, पेंटर या शिल्पकार कैसी कलाकृति बनाए, यह सब अगर शासन निर्धारित करेगा तो यह अधिनायकवाद यानी डिक्टेटरशिप के अलावा और क्या होगा ?

जात-पात और धर्म: एक और मुद्दा है जो शांतिप्रिय लोगों को अक्सर विचलित करता रहता है। वह है जात बिरादरी और धर्म तथा परंपरागत रीति-रिवाजों और मान्यताओं का। हमारे देश में आज से नहीं प्राचीन और पौराणिक काल से अंतर्जातीय विवाह होते रहे हैं और अंतधार्मिक विवाहों की भी संख्या कम नहीं है। आज ऐसे हजारों दंपति होंगे जो दूसरी जात के लड़के या लड़की से शादी करने के बाद अपने ही माता-पिता और अन्य परिवारजनों के कोप का भाजन बन रहे होंगे। यह युवा तरस जाते हैं अपने माई बाप या भाई बहन का चेहरा देखने तक को लेकिन खानदान की नकली इज्जत की बेडिय़ों में जकड़े ये लोग पत्थर की तरह उम्र भर नहीं पसीजते। कौन बनेगा करोड़पति में ऐसे अनेक पति पत्नी की दास्तान देखने को मिलती रही है कि कैसे दूसरी जाति या धर्म के व्यक्ति से लगन करने पर वे निरपराध होते हुए भी अपराधी जैसा जीवन जी रहे हैं।

सामाजिक चेतना, भाईचारा, समानता और सुरक्षा का संबंध हमारे संविधान में भी बहुत गहराई से समझाया गया है। किसी को किसी के निजी जीवन में ताक-झांक करने का अधिकार नहीं है। व्यक्ति को उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमता और स्वयं के विवेक पर आधारित निर्णय लेने की आजादी है। वह अपनी मर्जी और जिस तरह रहने से उसे खुशी मिलती है तो वह ऐसा कर सकता है। यह बात बहुत स्पष्ट शब्दों में न केवल संविधान में कही गई है बल्कि स्कूल-कॉलेज के सिलेबस में ही यही है। अब या तो यह सब गलत है जो हमें सिखाया पढ़ाया गया है या फिर कुछेक लोगों का ढकोसला, जो चाहते हैं कि युवा शिक्षित जनता उनकी कठपुतली बन कर रहे। यह न तो हो सकता है और न ही कभी संभव हो पाएगा कि कोई देश अपने युवाओं को मानसिक रूप से गुलाम बनाकर रखे और वे कुछ भी न कहें, चुपचाप सुनते और मानते रहें। आश्चर्य नहीं होगा कि यदि सरकार और कुछ कट्टरपंथी नहीं सुधरे तो युवा अपनी एकता और आधुनिक वैज्ञानिक सोच के बलबूते इन्हें पूर्ण रूप से धराशायी करने के लिए संघर्ष करने न निकल पड़ें?-पूरन चंद सरीन
 


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