हमें ‘संकीर्णता’ से ऊपर उठकर सोचना होगा

Thursday, Feb 25, 2016 - 12:33 AM (IST)

लोकतंत्र में असहमतियों और विरोध को उसका स्वभाव और गुण माना जाता है क्योंकि पूर्ण वैचारिक एकता इसलिए संभव नहीं है क्योंकि स्वार्थों का संघर्ष और उनके द्वारा गढ़े गए नारे सर्वस्वीकार्य नहीं हो सकते। देशद्रोह, राष्ट्रद्रोह, मातृभूमि, भाषा और धर्म को ही निर्णायक मानना भी इसी कोटि में आता है।

यही कारण है कि बिहार के कन्हैया कुमार जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के निर्वाचित अध्यक्ष थे, के खिलाफ देशद्रोह के आरोप को जहां प्रसिद्ध न्यायविद् सोली सोराबजी अनुचित मानते हैं, वहीं भाजपा के मंत्री रहे पटना के सांसद शत्रुघ्न  सिन्हा भी इससे असहमत हैं। वे आरोपों को अनुचित बताकर उसे निर्दोष भी बताते हैं।

देशद्रोह की पहचान किस रूप में की जाए। क्या जन्म के कारण ही यह स्वाभाविक रूप से नागरिकता की भांति प्राप्त हो जाता है या इसके अन्य ताॢकक आधार भी हैं, क्योंकि बहुत से लोगों का जन्म विदेशों या आकाश में हुआ लेकिन उन्हें भारतीय नागरिक के रूप में स्वीकार किया गया क्योंकि उनके मां-बाप मूल रूप से इसी क्षेत्र के निवासी थे। 

इसी प्रकार सवाल यह भी उठता है कि लालकृष्ण अडवानी जो पाकिस्तान के सिन्ध में पैदा हुए थे, तो क्या मातृभूमि के आधार पर उन्हें पाकिस्तान का अंग मान लिया जाए। पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ दिल्ली में जन्मे थे लेकिन वे पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने, क्या इन लोगों के देशपे्रम को नकारा जा सकता है।

खान अब्दुल गफ्फार खां जिन्हें हम सीमांत गांधी के रूप में जानते हैं, भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन  के विरल सेनानियों में थे, उनका प्रदेश तो अंग्रेजों द्वारा विभाजित भारत का अंग था लेकिन भारत के नेताआें ने इस दूरस्थ क्षेत्र की प्रशासनिक कठिनाइयों का सामना करने की बजाय वहां जनमत संग्रह करके नया निर्णय कराने का प्रस्ताव किया जो सीमांत गांधी को कतई स्वीकार्य नहीं था, उन्होंने इसका विरोध किया। यह क्षेत्र इस समय पाकिस्तान का अंग है। वहां के शासकों ने उन्हें जेल में रखा और भारत ने उन्हें शीर्षस्थ सम्मान भारत रत्न से विभूषित किया।

तो क्या इसे पाकिस्तानी नागरिक का सम्मान कहा जाएगा। राष्ट्रगान के रचयिता रविन्द्रनाथ टैगोर का जन्म चटगांव जो पूर्वी पाकिस्तान का अंग बना, में हुआ था तो क्या यह उन्हें देशभक्त मानने में गुरेज का कारण बनेगा। देश का विभाजन एक राजनीतिक निर्णय था जिसके फलस्वरूप लाखों लोग अपने मूल जन्म स्थानों को छोड़कर इधर या उधर गए, लेकिन इस परिवर्तन के कारण उन्हें देशद्राही की संज्ञा देना उचित होगा?

किसे देश का गद्दार कहा जाए या देशभक्त। इस रूप में भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई विदेशियों ने भारत का समर्थन किया, इन आन्दोलनों को उन लोगों ने उचित बताकर इसमें सांझीदारी की तो क्या इन लोगों को ब्रिटिश सरकार द्वारा  देशद्रोही बताना उचित होगा, क्योंकि यह तो विचारगत मामला था कि देशों के निर्णय का अधिकार वहां के निवासियों की इच्छा पर आधारित होना चाहिए, शक्ति या कब्जे पर नहीं। कश्मीर को महाराजा हरि सिंह के पिता गुलाब सिंह ने अंगे्रजों से एक करोड़ रुपए में खरीदा था। 

आज उस कश्मीर का बड़ा हिस्सा आजाद कश्मीर के नाम से पाकिस्तान के पास है, वहां के निवासियों को हम भारतीय मानेंगे, पाकिस्तानी या विदेशी। भारतीय क्षेत्र में हुर्रियत नाम के संगठन वाले इसे पाकिस्तान में शामिल कराना चाहते हैं लेकिन क्या उनकी नागरिकता या मताधिकार भारत की किसी सरकार ने छीने हैं, आज भी वे अपने को कश्मीर का ही नागरिक बताते और इसी क्षेत्र में रहते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 6 नए क्षेत्र जो पृथक राज्य थे, भारत में शामिल हुए हैं। 

उन्हें सिक्किम, गोवा, पांडिचेरी, दमनदीव आदि के नाम से जाना जाता है, क्या इनकी भारतीयता पर किसी प्रकार का संदेह करना उचित होगा कि वे भारत के संविधान और शासन को स्वीकार करके अन्यों की भांति ही हैं। इसलिए मूल प्रश्न यही है कि हम भ्रामक शब्दों की बजाय देश की एकता और स्वीकार्यता के बल पर  उसे कितना विस्तारित करते या घटाते हैं। इसलिए मानना यही होगा कि देश किसे कहें और अपना राज्य हमारी संयोजक शक्ति और निर्णायक तत्व क्या हैं जो इस कार्य में सहायक या बाधक बनते हैं।

जहां तक जाति, धर्म, सम्प्रदाय और भाषा का सम्बन्ध है, यह संयोजक और निर्णायक नहीं हो सकते। यही कारण तो है कि वे 57 देश जो मुस्लिम बहुल हैं और जिनके शासक भी मुस्लिम ही हैं वे भी अपने को एकता के सूत्र में नहीं बांध पाए हैं। आज अल्लाह, पैगम्बर और कुरान में विश्वास रखने वाला इस्लाम भी 72 खेमों में बंट चुका है। इसी प्रकार ईसाई, बौद्ध और सिख भी अपने को धर्म के आधार पर नहीं जोड़ पाए हैं। 

भारत का पड़ोसी नेपाल भी हिन्दू बहुल राज्य है लेकिन सिक्किम तो भारत का अंग होना स्वीकार कर सकता है पर नेपाल नहीं। इसी प्रकार जब राष्ट्र की परिभाषाआें के लिए एकात्मक सूत्रों की खोज होती है तो भाषा, जाति, संस्कृति ही निर्णायक होते हैं। यही कारण है कि 18 देशों का यूरोप एक राष्ट्र तो माना जा सकता है लेकिन हम भारत को बहुराष्ट्रीय राज्य ही कहते हैं। राष्ट्र और राज्य (नेशन और स्टेट) के अन्तर को हम समाप्त नहीं कर पाए हैं। जब देश का स्वतंत्रता आन्दोलन चल रहा था तो कई ब्रिटिश नागरिक भी भारत की स्वतंत्रता के पक्षधर थे और कुछ तो इस लड़ाई में महत्वपूर्ण पदों पर भी विद्यमान थे, तो क्या उनके योगदान को नकारा जा सकता है।

जो लोग देश को गुलाम बनाए रखने के लिए अंग्रेजी साम्राज्य के साथ थे क्या उन्हें देशद्रोही कहकर नकारना उचित होगा। इसलिए मूल रूप से संयोजक तत्वों को मजबूत करने के लिए परस्पर विश्वास की रचना और उस पर अमल ही निर्णायक तत्व है इसीलिए भारत की संविधान सभा ने इन गुणों को पिरोने, सजाने और उनकी रक्षा के विधान भी किए हैं, वे जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र पर अवलम्बित नहीं हैं। इसलिए सवाल यह है कि हम आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों के प्रति किस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाते हैं जिससे भेदभाव को कम किया जा सके और लोगों में विश्वास का सृजन किया जा सके। 

यह काम विश्वास के सृजन पर ही संभव है, इसीलिए संविधान के अनुच्छेद-19 (एक) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मूल अधिकारों में शामिल किया है लेकिन इसमें जो दंड के लिए कानून बने हैं उसका आधार भी यही माना गया है कि यदि यह स्वतंत्रता घृणा, द्वेष और लोगों के अलगाव का कारण बनाने के लिए है तो दंड उसके प्रभावों के आधार पर होना चाहिए इसलिए ‘स्वतंत्र ङ्क्षचतन प्रक्रिया’ और उसकी रक्षा को आवश्यक माना गया है लेकिन जिस प्रकार हम कुछ नारों को गढ़ कर विपरीत ङ्क्षचतनों को समाप्त करना चाहते हैं, वह स्वीकार्य नहीं हो सकता।

देश की एकता की रक्षा का मूल तत्व तो उन लोगों पर निर्भर है जो राज्य का संचालन करते हैं जिनके हाथ में भावी स्वरूप रचने का अधिकार भी दिया गया है और इसी के साथ ही लोकतंत्र में निर्वाचन पद्धति के साथ ही प्रशासन और व्यवस्था का दायित्व निभाने के लिए कार्यपालिका की रचना की गई है। 

देश की एकता के लिए संकट का कारण तो तब होगा जब इस संस्थान की निष्ठा संविधान से अधिक कुछ कट्टरपंथियों और उनके द्वारा निर्धारित मान्यताआें की आेर बढ़ेगी। यह अधिकार सम्पन्न संस्थाएं जब जनता में अविश्वास का कारण बनेंगी तब इसे संकट की शुरूआत माननी चाहिए। कानून और व्यवस्था की रक्षा के लिए जिस सुरक्षा व्यवस्था की रचना हुई है, यदि वह अपने दायित्वों का निर्वाह न्यायालयों की परिधि नहीं बल्कि उसके कक्षों तक करने में असमर्थ होती है तो आरोप यह लगेगा कि यह स्थिति संवैधानिक नहीं बल्कि वैचारिक विश्वासों के कारण हो रही है और तब यह समाज बिखराव की आेर बढ़ेगा।

जब सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश भी यह कहते हैं कि फांसी की सजाएं 97.$3 प्रतिशत दलितों और अल्पसंख्यकों को ही होती हैं  तो यदि यह किन्हीं दोषों से ग्रस्त हैं तो इसका जिम्मेदार कौन है। जब हाशिमपुर  के 42 निर्दोषों को गोली मारकर उन्हें नहर में फैंकने वाले सारे लोग निर्दोष सिद्ध होंगे या बिहार में दलितों पर हमले करके उनको मौत की नींद सुलाने वाले निर्दोष माने जाएंगे तो इन कर्मियों के लिए अभियोजक और उससे जुड़े लोगों को उत्तरदायी मानना ही पड़ेगा। इस प्रकार की प्रवृत्तियां कैसे रुकें, यह सोचना राज्य का दायित्व होगा जिसके वे प्रतिनिधि हैं। 

प्रधानमंत्री की उद्घोषणाआें के विपरीत अपने को उन्हीं का समर्थक बताने वाले अपनी संकुचित धारणाआें को राष्ट्रीय बताकर शक्ति को ही कारक मानकर सत्ता को बदनाम करने का कारण बनेंगे तो इससे सर्वाधिक नुक्सान उन्हीं दलों, विचारकों और संचालकों को पहुंचेगा जो सत्ता का संचालन कर रहे हैं। धरती मेरी माता है, मैं उसका पुत्र, इस कल्पना को क्या छोटा घरौंदा ही माना जा सकता है या इसे विश्व के रूप में देखना होगा।
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