मतदाताओं को तय करने दें कि उनके लिए बेहतर क्या है

Thursday, Oct 06, 2022 - 04:58 AM (IST)

चुनावों की पूर्व संध्या पर राजनीतिक दलों द्वारा किए गए वायदों पर भारत के चुनाव आयोग द्वारा अपने रुख पर दिया गया यू-टर्न देश के लोकतांत्रिक कामकाज के लिए खतरों से भरा हुआ है। 

कुछ ही हफ्ते पहले आयोग ने शीर्ष अदालत को बताया था कि मुफ्त या कल्याणकारी उपायों के वायदे व्याख्याओं के लिए खुले थे। इसने अदालत में कहा था कि राजनीतिक दलों को यह बताने के लिए कहना कि वे मतदाताओं से किए गए वायदों को पूरा करने के लिए धन कैसे उत्पन्न करेंगे, इस विषय पर नीति निर्माण को विनियमित करने के लिए अपनी शक्तियों का प्रयोग करना होगा और यह आयोग के लिए हस्तक्षेप करने के लिए वांछनीय नहीं था। 

इसने इस साल 9 अप्रैल को शीर्ष अदालत को बताया था कि चुनावों के लिए मुफ्त उपहार देना या विस्तृत करना एक नीतिगत निर्णय था या राजनीतिक सवाल। क्या ऐसी नीतियां आर्थिक रूप से व्यावहारिक थीं जिनका आर्थिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा जिसका निर्णय मतदाता द्वारा किया जाना था। आयोग ने एक वकील की याचिका के जवाब में हलफनामा दायर किया था जो अदालत से यह चाहता था कि अदालतें पार्टियों को तर्कहीन मुफ्त का वायदा करने से रोकें। याचिका प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एक बयान से प्रेरित थी जिन्होंने मुफ्त की रेवडिय़ां संस्कृति के खिलाफ बात की थी। इस मुद्दे पर सुप्रीमकोर्ट भी मैदान में कूद पड़ा था और उसने चुनाव आयोग से पूछा था कि वह मुफ्त की घोषणा को हतोत्साहित करने के लिए क्या कदम उठा सकता है? 

जाहिर है कि चुनाव आयोग को अपने रुख को पलटने के लिए किन शक्तियों ने हाथ घुमाया होगा? वहीं आयोग ने अपने पुनॢवचार के पीछे के तर्क को स्पष्ट करने की जहमत ही नहीं उठाई। इसके बजाय इसने सभी मान्यता प्राप्त दलों को एक पत्र जारी कर कहा कि वह पार्टियों के लिए मतदाताओं को अच्छी तरह से परिभाषित मानकों के खिलाफ चुनावी वायदों के वित्तीय प्रभाव के बारे में सूचित करना अनिवार्य बनाने की योजना बना रहा है। प्रस्ताव का उद्देश्य पत्र के अनुसार उपलब्ध वित्तीय स्थान के भीतर ऐसे वायदों को लागू करने की व्यावहारिकता का आकलन करना है। पत्र में आगे कहा गया है कि आयोग सैद्धांतिक रूप से सहमत है। इस दृष्टिकोण से कि घोषणा तैयार करना राजनीतिक दलों का एक अधिकार है। लेकिन यह आचरण पर कुछ वायदों के अवांछनीय प्रभाव को नजरअंदाज नहीं कर सकता। 

आयोग का नवीनतम रुख स्पष्ट रूप से बिना ज्यादा सोचे-समझे इसके प्रभाव में जाने पर आधारित है। यह बात इस आधार पर टिकी हुई है कि मतदाता उन राजनीतिक दलों को पुरस्कृत करते हैं जो लम्बे और तर्कहीन दावे करते हैं क्योंकि वे इसमें शामिल लागतों या केंद्र के वित्तीय स्वास्थ्य से अंजान होते हैं। यह तर्क अपने आप में तर्कहीन है और यह मानता है कि मतदाता ऐसे वायदों से बहक जाते हैं। नामांकन पत्र दाखिल करते समय उम्मीदवारों के आपराधिक इतिहास के खुलासे के बारे में क्या कहा जा सकता है? चुनाव जीतने वाले आपराधिक मामलों वाले उम्मीदवारों की संख्या में कोई कमी नहीं आई है। स्पष्ट रूप से मतदाता उम्मीदवारों के आपराधिक इतिहास से प्रभावित नहीं हो रहे हैं। 

चुनाव आयोग का प्रस्ताव आदर्श आचार संहिता लागू होने से पूर्व किए गए ऐसे वायदों के बारे में बात नहीं करता है। अवलम्बी सरकारों को निश्चित रूप से एक फायदा होगा क्योंकि उनके पास उन वायदों को पूरा करने के लिए वित्त को बदलने की शक्ति है जो वे करना चाहते हैं। केंद्र सरकार, जिसके पास अब वित्त से संबंधित और भी अधिक अधिकार हैं, निश्चित रूप से अपने नियंत्रण में अधिक वित्तीय संसाधनों के साथ लाभान्वित होगी। 

इसमें कोई संदेह नहीं है कि अर्थव्यवस्था की वित्तीय स्थिति के बारे में कोई विचार किए बिना मुफ्त के उपहारों की घोषणा करने की दौड़ में अवांछनीय है। हालांकि चुनाव आयोग के इस प्रस्ताव के गंभीर निहितार्थ हो सकते हैं। कौन तय करेगा कि किए गए वायदे व्यवहार्य थे या नहीं। कौन तय करेगा कि नई सरकार अपने वायदों के अनुसार संसाधन जुटा पाएगी या नहीं।
उन योजनाओं का मूल्यांकन कौन करेगा जिससे किसी भी पार्टी को अपने राजस्व में वृद्धि करनी पड़ सकती है।

ऐसे सवालों के जवाब खोजना आसान नहीं है और यह संदेहास्पद है कि चुनाव आयोग के पास ऐसा करने का अधिकार है या नहीं? यह मतदाताओं पर छोड़ देना बेहतर है कि कौन-सी पार्टी या उम्मीदवार झूठे दावे कर रहे हैं और मतदाताओं को उन नेताओं को चुनने दें जो उन्हें लगता है कि वायदों को पूरा कर सकते हैं।-विपिन पब्बी

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