वामपंथी समलैंगिकों के ‘मित्र हैं या शत्रु’

Friday, Nov 29, 2019 - 12:56 AM (IST)

विगत26 नवम्बर को भारत ने अपना 70वां संविधान दिवस मनाया। उसी कालांतर में, 24 नवम्बर को दिल्ली में समलैंगिक समुदाय ने अपने अधिकारों और समाज में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाए जाने के नाम पर ‘‘प्राइड परेड’’ भी निकाली। इस संबंध में सोशल मीडिया में जो वीडियो और छायाचित्र वायरल हैं, उनके अनुसार- कुछ तथाकथित समलैंगिक जहां ‘‘कश्मीर मांगे आजादी’’ जैसे नारे लगाते, तो कुछ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, योग गुरु बाबा रामदेव के लिए अपशब्दों से भरे पोस्टर और ‘‘भारत माता को चाहिए गर्लफ्रैंड’’ जैसे भड़काऊ प्लेकार्ड लहराते दिख रहे हैं।

अब कहने को तो दिल्ली में समलैंगिकों ने ‘‘प्राइड परेड’’ देश में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने और अपने अधिकारों की सुरक्षा हेतु निकाली थी, किंतु उसमें देशविरोधी नारे क्यों गूंजे? क्या इस घटना के बाद देश में समलैंगिकों और उनके आंदोलन को संदेह की दृष्टि से देखा जाना चाहिए? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर हमें एक माह पूर्व लंदन के एक घटनाक्रम से मिल गया था। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को मोदी सरकार द्वारा हटाए जाने के विरोध में देश से हजारों मील दूर लंदन में 5 अक्तूबर को भारत-विरोधी एक कार्यक्रम का आयोजन हुआ था। इसका संचालन वामपंथियों ने लंदन स्थित एस.ओ.ए.एस. (स्कूल आफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज) विश्वविद्यालय के एक परिसर में किया था। इसमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी-लेनिनवादी) की पोलित ब्यूरो सदस्य कविता कृष्णन भी शामिल हुई थीं।

जब उस मंच से कश्मीर को लेकर भारत के खिलाफ जहर उगला जा रहा था, तब 5 नकाबपोश समलैंगिक छात्रों ने आसन पर पहुंचकर विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिया। उन छात्रों के हाथों में जो एल.जी.बी.टी. का झंडा और बैनर था, उसमें अनुच्छेद 370 को समलैंगिक विरोधी और वामपंथियों को ‘प्रतिगामी’ कहते हुए यह संदेश देने का प्रयास किया गया कि जम्मू-कश्मीर से इस विकृत अनुच्छेद के हटने से वहां के लोगों को देश के शेष नागरिकों के साथ समलैंगिक समुदाय को भी सभी समान अधिकार मिल गए हैं।

उस समय एक प्रदर्शनकारी ने भारतीय न्यूज चैनल को अपनी पहचान छिपाने की शर्त पर बताया था- ‘‘आप सोच भी नहीं सकते कि जम्मू-कश्मीर में समलैंगिक समुदाय के अधिकारों को किस तरह कुचला जा रहा था।’’ सच तो यह है कि कश्मीर में जो भी, शरीयत के अनुसार ‘‘काफिर’’ हैं- उनको किसी भी प्रकार के प्रजातांत्रिक अधिकारों से वर्षों पहले ही वंचित कर दिया गया था।

लंदन की इस घटना से स्पष्ट है कि समाज में किसी व्यक्ति का समलैंगिक होना- उसके देशविरोधी गतिविधियों में लिप्त होने या देश को विभाजित करने के प्रपंच में शामिल होने या फिर विदेशी शक्तियों की कठपुतली बनने का मापदंड नहीं हो सकता है। इस पृष्ठभूमि में दिल्ली के समलैंगिक प्रदर्शन में देशविरोधी नारे क्यों लगे? दिल्ली में 24 नवम्बर को आयोजित समलैंगिक प्राइड परेड में जहां ‘‘कश्मीर मांगे आजादी’’ जैसे देशविरोधी और भड़काऊ नारे लगे, तो ‘‘भारत माता को चाहिए गर्लफै्रंड’’ जैसे विकृत प्लेकार्ड लहराए गए।

इससे संबंधित सोशल मीडिया पर एक वायरल वीडियो में कुछ लोग नारे लगाते हुए कह रहे हैं- ‘‘कश्मीर मांगे...आजादी, है हक हमारा...आजादी, तुम पुलिस बुलाओ....आजादी, तुम गोली चलाओ...आजादी, तुम लाठी मारो... हम लेकर रहेंगे...आजादी, हम लड़कर लेंगे...आजादी, हम भिड़कर लेंगे...आजादी।’’ इस प्रकार के नारे फरवरी 2016 में दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय में लग चुके हैं।

समलैंगिक अधिकारों का कश्मीर की तथाकथित ‘‘आजादी’’ से कोई संबंध हो सकता है
क्या भारत में समलैंगिक अधिकारों का कश्मीर की तथाकथित ‘‘आजादी’’ से कोई संबंध हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर खोजने हेतु पहले भारत में समलैंगिक समुदाय की स्थिति का आकलन करना आवश्यक है। निर्विवाद रूप से बदलते परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज में समलैंगिकों की स्थिति हाल के वर्षों में सुधरी है। किंतु इस दिशा में समाज से एकाएक आमूलचूल परिवर्तन की आशा करना- बिल्कुल अताॢकक है। सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले साल समलैंगिक संबंधों पर निर्णय देते हुए औपनिवेशिक कानून को निरस्त करने का आदेश दिया था। पुराने कानून में समलैंगिक संबंधों के आरोप सही पाए जाने पर 10 वर्ष कारावास का प्रावधान था।

शीर्ष अदालत के इस फैसले के बाद केन्द्र सरकार ‘‘ट्रांसजैंडर (अधिकारों का संरक्षण), विधेयक 2019’’ लेकर आई है, जिसमें समाज के इस वर्ग के अधिकार न केवल परिभाषित हैं, साथ ही इसमें उनके साथ होने वाले शारीरिक-यौन हिंसा जैसे अपराध और हर स्तर के भेदभाव को रोकने हेतु प्रावधान भी किए गए हैं। यह विधेयक संसद के दोनों सदनों से पारित हो चुका है। इसी विधेयक के कुछ प्रावधानों का समलैंगिक समुदाय भी विरोध कर रहा है। अब सवाल है कि अपनी मांगों की पूर्ति हेतु दिल्ली के ‘‘प्राइड परेड’’ में शामिल समलैंगिकों का एक विकृत  समूह, भारत को कई टुकड़ों में बांटने के षड्यंत्र में क्यों शामिल हो गया?

इस प्रश्न का उत्तर उस विदेशी विचारधारा और रुग्ण मानसिकता में मिलता है, जिसने सनातन भारत को कभी एक राष्ट्र के रूप में स्वीकार नहीं किया और अब समलैंगिकों को माध्यम बनाकर ‘‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’’ के घोषित एजैंडे को मूर्तरूप देना चाहते हैं। अपने वैचारिक दर्शन के कारण वामपंथी आरम्भ से ही भारत की सनातनी संस्कृति, प्राचीन सभ्यता और उसके मान-बिंदुओं के न केवल धुर-विरोधी रहे हैं, बल्कि इन सभी से घृणा भी करते हैं। अपने इसी वैचारिक समानता और संयुक्त उद्देश्य के कारण वामपंथी- इस्लाम और ईसाइयत के कट्टर मजहबी अभियान (मतांतरण सहित) का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन करते रहते हैं।

वामपंथी देश में स्वयं को समलैंगिकों का सबसे बड़ा हितैषी समझते हैं
अक्सर, वामपंथी देश में स्वयं को समलैंगिकों का सबसे बड़ा हितैषी, तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को धुरविरोधी बताकर प्रस्तुत करते हैं। क्या यह सत्य नहीं कि जब सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिकता को अपराधमुक्त किया था, तब समाज के अन्य वर्गों की भांति संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी इसका स्वागत किया था? सच तो यह है कि समलैंगिकता को आपराधिक मानते हुए देश के कई कैथोलिक चर्च, ईसाई संगठन और इस्लामी संस्था सर्वाधिक लामबंद हुए थे। इस पृष्ठभूमि में इस बात का अंदाजा लगाना आसान है कि क्यों समलैंगिकों के एक गुट ने दिल्ली के हालिया प्रदर्शन में केवल हिंदूवादी संगठनों, प्रतीकों और व्यक्तियों को निशाने पर लिया?

परतंत्र भारत में मुस्लिम लीग को छोड़कर वामपंथियों का ही वह एकमात्र राजनीतिक कुनबा था, जो इस्लाम आधारित पाकिस्तान के सृजन के लिए औपनिवेशिक षड्यंत्र का हिस्सा बना। वामपंथी 1962 के युद्ध में समान वैचारिक चिंतन के कारण चीन के साथ खड़े रहे। भारत के प्रति पाकिस्तान की वैचारिक नीति-‘‘हजारों घाव देकर मौत के घाट उतारना’’ किसी से छिपी नहीं है, तो उसे क्रियान्वित करने में चीन की प्रत्यक्ष-परोक्ष भूमिका के प्रति अधिकतर राष्ट्रवादी भी अवगत और सुचेत हैं। सच तो यह है कि भारतीय पासपोर्ट धारक वामपंथी इन दोनों शक्तियों के अग्रिम दस्ते के रूप में सक्रिय हैं। यही कारण है कि पाकिस्तान-चीन पोषित अलगाववादी, आतंकी, जेहादी एजैंडा- वामपंथियों के नारों, प्रचार, साहित्य और अन्य क्रियाकलापों से स्पष्ट झलकता है, जिसे ‘‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’’ के नाम पर स्वघोषित सैकुलरिस्टों (कांग्रेस सहित) का समर्थन मिलता रहता है।

आखिर कश्मीर के संदर्भ में ‘‘आजादी’’ का वास्तविक अर्थ क्या है? क्या वहां के नागरिक, जो ‘‘आजादी’’ की बात करते हैं- घाटी में शरीयत और निजाम-ए-मुस्तफा की हुकूमत नहीं चाहते हैं? क्या इन दहशतगर्दों और चरमपंथी तत्वों को ऐसा कश्मीर नहीं चाहिए, जहां काफिरों (समलैंगिक सहित) का कोई स्थान न हो? स्मरण रहे कि दिल्ली में समलैंगिक ‘‘प्राइड परेड’’ इसलिए निकाल पाए क्योंकि हमारा देश लोकतंत्र, संविधान और बहुलतावाद की नींव पर खड़ा है, न कि यह किसी फतवे या मजहबी दर्शन द्वारा नियंत्रित है। सच तो यह है कि समलैंगिकों की सुरक्षा और उनके अधिकार भारतीय संविधान की प्रभावशीलता में ही निहित हैं। इस पृष्ठभूमि में दिल्ली के ‘‘प्राइड परेड’’ में कश्मीर संबंधी नारे लगाने वाले वास्तव में, समलैंगिकों के मित्र हैं या शत्रु- इसका फैसला करना अधिक कठिन नहीं है। 
बलबीर पुंज- punjbalbir@gmail.com 

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