कानून है फिर भी लड़नी पड़ रही ‘हक की लड़ाई’

punjabkesari.in Sunday, Dec 05, 2021 - 04:35 AM (IST)

पिछले दिनों कोलकाता पुलिस में इंस्पैक्टर भर्ती परीक्षा का विज्ञापन निकला तो पल्लवी ने उसमें बैठने का मन बना लिया। जब उसने आवेदन पत्र डाऊनलोड किया तो उसमें जैंडर के केवल 2 ही कॉलम थे, पुरुष और महिला। मजबूरन उसको हाईकोर्ट की शरण में जाना पड़ा। अपने वकील के जरिए उसने हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की और 2014 के ट्रांसजैंडर एक्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए अपनी दलील रखी। अगली तारीख पर राज्य सरकार के अधिवक्ता ने हाईकोर्ट को बताया कि सरकार आवेदन पत्र के प्रारूप में पुरुष और महिला के साथ-साथ ट्रांसजैंडर कॉलम रखने के लिए सहमत हो गई है। अब पल्लवी पुलिस अफसर बने या नहीं, उसने भारत भर के ट्रांसजैंडर्स के लिए एक खिड़की तो खोल ही दी है। 

ऐसे ही पुलिस में भर्ती होने वाली देश की पहली ट्रांसजैंडर और तमिलनाडु पुलिस का हिस्सा पृथिका यशिनी का आवेदन रिक्रूटमैंट बोर्ड ने खारिज कर दिया था क्योंकि फॉर्म में उनके जैंडर का विकल्प नहीं था। ट्रांसजैंडर्स के लिए लिखित, फिजिकल परीक्षा या इंटरव्यू के लिए कोई कट-ऑफ का ऑप्शन भी नहीं था। इन सब परेशानियों के बावजूद पृथिका ने हार नहीं मानी और कोर्ट में याचिका दायर की। उसके केस में कटऑफ को 28.5 से 25 किया गया। पृथिका हर टैस्ट में पास हो गई थी, बस 100 मीटर की दौड़ में वह 1 सैकेंड से पीछे रह गई। मगर उनके हौसले को देखते हुए उनकी भर्ती कर ली गई। 

मद्रास हाईकोर्ट ने 2015 में तमिलनाडु यूनिफॉम्र्ड सर्विसिज रिक्रूटमैंट बोर्ड को ट्रांसजैंडर समुदाय के सदस्यों को भी मौका देने के निर्देश दिए। इस फैसले के बाद से प्रवेश फॉर्म के जैंडर में तीन कॉलम जोड़े गए। तमिलनाडु में ही क्यों, राजस्थान में भी यही हुआ। जालौर जिले के रानीवाड़ा इलाके की गंगा कुमारी ने 2013 में पुलिस भर्ती परीक्षा पास की। हालांकि, मैडिकल जांच के बाद उनकी नियुक्ति को किन्नर होने के कारण रोक दिया गया था। गंगा कुमारी हाईकोर्ट चली गई और 2 साल के संघर्ष के बाद उसे सफलता मिली। ये फैसले बताते हैं कि जरूरत इस बात की है कि समाज के हर व्यक्ति का नजरिया बदले, नहीं तो कुर्सी पर विराजमान अधिकारी अपने नजरिए से ही समुदाय को देखेगा। 

2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश में लगभग 5 लाख ट्रांसजैंडर्स हैं। इस समुदाय के लोगों को समाज में अक्सर भेदभाव, फटकार, अपमान का सामना करना पड़ता है। अधिकांश लोग भिखारी या सैक्स वर्कर के रूप में अपनी जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं। 15 अप्रैल, 2014 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने थर्ड जैंडर को संवैधानिक अधिकार दिए और सरकार को इन अधिकारों को लागू करने का निर्देश दिया। उसके बाद 5 दिसंबर, 2019 को राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद थर्ड जैंडर के अधिकारों को कानूनी मान्यता मिल गई। 

लैंगिकता पर सभी देशों में चर्चा होती है, उन्हें समान अधिकार और स्वतंत्रता दिए जाने की वकालत होती है। बावजूद इसके लिंग के आधार पर सभी को समान अधिकार और स्वतंत्रता अभी भी नहीं मिल पाई है। 2011 की जनगणना बताती है कि महज 38 प्रतिशत किन्नरों के पास नौकरियां हैं, जबकि सामान्य जनसंख्या का प्रतिशत 46 है। 2011 की जनगणना यह भी बताती है कि केवल 46 प्रतिशत किन्नर साक्षर हैं, जबकि समूचे भारत की साक्षरता दर 76 प्रतिशत है। किन्नर समाज अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न का शिकार है। इनको नौकरी और शिक्षा पाने का अधिकार बहुत कम मिलता है। 

जीवन के सुअवसर प्राप्त न होने के कारण उन्हें अपने स्वास्थ्य की समुचित देखभाल करने में भी दिक्कत आती है। दक्षिण भारत के 4 राज्यों (तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश) के आंकड़े बताते हैं कि कुल एच.आई.वी. संक्रमण में 53 प्रतिशत किन्नर समुदाय का हिस्सा है। किन्नर समुदाय भेदभाव के कारण ही अपनी भावनाओं को छुपाता है क्योंकि वे इस बात से डरे होते हैं कि कहीं वे अपने परिवारों के द्वारा घर से निकाल न दिए जाएं और अपनी इस लैंगिक विभिन्नता के कारण स्वयं और अपने परिवार के लिए अपमान व लज्जा का कारण न बन जाएं। किन्नरों के परिवारों में कम से कम एक व्यक्ति ऐसा जरूर होता है जो यह नहीं चाहता कि लैंगिक भिन्नता के कारण वे समाज में किसी से भी बात करें। किसी व्यक्ति के किन्नर होने की जानकारी होने पर समाज के लोग उस व्यक्ति से दूरी बनाने लगते हैं। 

विकास के इस दौर में किन्नर समाज के विकास की अनदेखी एक गंभीर विषय है। सवाल है कि आखिर वह स्थिति कब आएगी जब समाज के सामान्य सदस्यों की तरह इन्हें भी सहजता से इनका हक उपलब्ध होगा। कानून के बावजूद भी उनकी समान भागीदारी से बहुत कुछ बदल पाने की उम्मीद तब तक बेमानी है जब तक कि सामाजिक स्तर पर नजरिया बदलता नहीं। जब तक सामाजिक ढांचे में उनकी उपेक्षा की जाती रहेगी, तब तक कानूनी अधिकार खोखले ही रहेंगे। आवश्यक है कि समान अधिकारों के साथ-साथ समाज का भी समान दृष्टिकोण हो। केवल अलग लिंग पहचान के कारण मनुष्य की उपेक्षा अपने आप में अमानवीय है। संघर्ष का अंत कानून के पारित होने से नहीं होता, बल्कि यहीं से सामाजिक स्वीकृति के लिए एक नया संघर्ष शुरू होता है। ट्रेनों, बसों या सड़क पर लोग बद्दुआ के डर से पैसे देने के लिए मजबूर होते हैं, लेकिन यह उनकी समस्या का समाधान नहीं है। 

किन्नर के रूप में पैदा होने में उनका कोई दोष नहीं है। इनकी तकदीर बदलना हमारे हाथ में नहीं है लेकिन सोच तो बदल ही सकते हैं। सोच बदलेगी तो किन्नर भी मुख्यधारा से जुड़ सकते हैं और बेहतर जीवन जी सकते हैं। आई.पी.एस., आई.ए.एस. अफसर ही नहीं, सेना में शामिल होकर देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति भी दे सकते हैं।-देवेन्द्रराज सुथार
 


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