क्या सचिन और लता ‘भारत रत्न’ के हकदार हैं

Tuesday, Jul 26, 2016 - 12:30 AM (IST)

‘भारत रत्न’ हमारे देश का सबसे ऊंचा नागरिक सम्मान है। मेरा मानना है कि बॉलीवुड और क्रिकेट जगत के लोगों को केवल उनकी प्रसिद्धि और प्रतिभा के लिए यह पुरस्कार दिया जाना एक गलती है। ऐसा करने से इस पुरस्कार की गरिमा में कमी आती है और यह भी संभावना बनी रहती है कि इसका दुरुपयोग होगा। मैं तो यह कहूंगा कि बॉलीवुड और क्रिकेट जगत के जो लोग राज्यसभा के लिए मनोनीत किए जाते रहे हैं, उनके मामले में बिल्कुल ऐसा ही हुआ है।

मैं आपको दो उदाहरणें देना चाहूंगा—सचिन तेंदुलकर और लता मंगेशकर। दोनों में से कोई भी ‘भारत रत्न’ हासिल करने का अधिकारी नहीं था और दोनों ने ही अपनी प्रसिद्धि का दुरुपयोग किया है। आजकल सचिन इसलिए चर्चा में हैं कि वह अपने एक पूर्व कारोबारी सहयोगी को साथ लेकर रक्षा मंत्री से मिलने गए थे ताकि उनसे कोई सिफारिश करवा सकें। मामला था डिफैंस एरिया के नजदीक चल रहे व्यावसायिक निर्माण का।

जब इस मीटिंग का समाचार लीक हो गया तो सचिन ने यह कहते हुए बयान जारी किया कि इस मामले में उनका कोई व्यक्तिगत व्यावसायिक हित नहीं था। शायद उनकी बात ठीक थी लेकिन क्या लोगों के व्यावसायिक हितों के पक्ष में मंत्रियों के यहां चक्कर काटना ‘भारत रत्न’ विजेताओं का काम है?

इस मुद्दे के परिप्रेक्ष्य को समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि राज्यसभा में अपना प्रथम प्रश्र सचिन ने 3 वर्ष की अवधि गुजार लेने के बाद पूछा था और जब मैं ‘राज्यसभा में 3 वर्ष गुजारने’ की बात करता हूं तो इसका असली अर्थ यह है कि यह अवधि उन्होंने मुख्य रूप में राज्यसभा से बाहर ही गुजारी है। दिसम्बर 2015 की एक रिपोर्ट से खुलासा हुआ था कि राज्यसभा में सचिन की उपस्थिति केवल 6 प्रतिशत थी और उन्होंने एक भी चर्चा में हिस्सा नहीं लिया था। अपने दोस्तों और व्यावसायिक भागीदारों की सौदेबाजियों की पैरवी करने के लिए क्या उन्हें रक्षा मंत्री के पास जाने की फुर्सत है? इस प्रकार के व्यक्ति को ‘भारत रत्न’ दिया जाना मेरी नजरों में बिल्कुल ही अस्वीकार्य है।

‘भारत रत्न’ से सम्मानित होने के बाद भी सचिन बी.एम.डब्ल्यू. जैसे ब्रांड्स की इश्तिहारबाजी करना जारी रखे हुए हैं। क्या यह सार्वजनिक हस्तियों, और खासतौर पर सचिन जैसे अमीर व्यक्ति के लिए शोभनीय है। यह घोर शर्मनाक बात है और इससे इस पुरस्कार की गरिमा में कमी आती है।

जब हम लोगों को ‘भारत रत्न’ से सम्मानित करते हैं तो ऐसा मूल रूप में हम उनकी प्रतिभा के कारण करते हैं न कि उनकी सेवाओं को मान्यता देने के रूप में जबकि नागरिक सम्मानों का सही उद्देश्य तो सेवाओं को मान्यता देना ही होता है। सचिन का अपने पद का दुरुपयोग करने का लंबा इतिहास है। जब उन्हें तोहफे में फरारी कार मिली थी तो उन्होंने सरकार से अनुरोध किया था कि इसका निर्यात शुल्क माफ कर दिया जाए। आखिर इस बिगड़ैल अरबपति के खिलौनों का वित्तपोषण करदाताओं द्वारा क्यों किया जाए? आखिर एक अदालत ने सचिन को निर्यात शुल्क अदा करने पर बाध्य किया था।

जब उन्होंने बांद्रा में एक बंगले का निर्माण किया तो उन्होंने सरकार से अनुरोध किया कि केवल उनके मामले में छूट प्रदान की जाए ताकि वह बंगले का अधिक ऊंचाई तक निर्माण करवा सकें। आखिर यह रियायत केवल सचिन को ही क्यों प्रदान की जाए?  जब कोई भी अन्य व्यक्ति इस प्रकार की लिहाजदारियों के लिए सरकार से गुहार नहीं लगाता तो सचिन का ऐसा करना घोर स्वार्थ के सिवाय कुछ नहीं। 

बीती 13 जून को समाचार पत्रों में एक सुर्खी प्रकाशित हुई : ‘‘सचिन ने बंगाल के स्कूल को 76 लाख रुपए दान दिए।’’ मेरा इस समाचार की ओर आकॢषत होना स्वाभाविक था क्योंकि यह सचिन की स्वार्थपूर्ण जिंदगी से कुछ अलग प्रकार का था। जांच-पड़ताल करने पर पता चला कि सचिन ने जो पैसा ‘दान’ किया था वह उनका अपना नहीं था बल्कि स्कूल को राज्यसभा के फंड में से दिया गया था। यानी कि यह पैसा देश का था। इसमें दानशीलता वाली कोई बात नहीं थी और न ही ऐसा करके सचिन ने किसी पर कोई परोपकार किया था।

विश्व प्रसिद्ध मुक्केबाज मोहम्मद अली (कैशियस क्ले) के तो सचिन आसपास भी नहीं पहुंचते। मोहम्मद अली को नस्लवाद और सामाजिक नाइंसाफी के विरुद्ध लगातार और दिलेराना पैंतरा लेने के लिए कई नागरिक सम्मानों से नवाजा गया था। यहां तक कि वह अपनी मान्यताओं के लिए जेल जाने से भी नहीं झिझकते थे। सचिन के मुंह से आपने क्या कभी भी ऐसे मुद्दों पर कोई अर्थपूर्ण बात निकलती देखी है जो मुद्दे हमारे दौर में परेशानी का कारण बने हुए हैं? कदापि नहीं। वह तो हर समय किसी न किसी तरह का सामान बेचने में ही लगे रहते हैं।

लता मंगेशकर को 2001 में ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया था। कुछ वर्ष बाद उन्होंने धमकी दी कि यदि मुम्बई में उनके घर के सामने पैडर रोड पर फ्लाईओवर बनाया गया तो वह दुबई में जा बसेंगी। लता और उनकी बहन आशा भौंसले ने इतने प्रभावी ढंग से इस परियोजना का विरोध किया कि यह अभी भी अधर में लटकी हुई है।

अप्रैल 2012 की एक रिपोर्ट में बताया गया कि राज्यसभा में उपस्थिति के मामले में लता मंगेशकर का रिकार्ड सबसे बदतरीन था। वह कई वर्ष तक राज्यसभा की सदस्य रही थीं। सदन में दोनों की उपस्थिति का घटिया रिकार्ड उनकी बेरुखी का प्रमाण है। मैं तो यही कहूंगा कि वे दोनों देश के प्रति बेरुखी धारण किए हुए हैं।

क्या ‘भारत रत्न’ से सम्मानित व्यक्तियों को ऐसा व्यवहार करना चाहिए? क्या उन्हें अपनी व्यक्तिगत जरूरतों को अनगिनत लोगों की जरूरतों से ऊपर रखना चाहिए? यह सरासर बेहूदगी है कि इस प्रकार के लोगों को उनके द्वारा की गई सेवाओं का आकलन किए बगैर केवल प्रतिभा (टैलेंट) के लिए पुरस्कृत किया जाता है।

और जहां तक उनकी प्रतिभा का सवाल है, क्या उन्हें पहले ही जरूरत से अधिक पुरस्कृत नहीं किया जा चुका है? उन्होंने खुद को बहुत अमीर बना लिया है। उनका ऐसा करना सही भी है और बढिय़ा भी। उन्हें ऐसा ही होना चाहिए। उन्होंने अपना पैसा और प्रसिद्धि दोनों ही अपने प्रयत्नों से अर्जित किए हैं। जहां तक हमसे सम्मान हासिल करने की बात है वे अधिक समाजोन्मुखी ढंग से काम करके इसे अर्जित कर सकते थे लेकिन इसकी बजाय उन्होंने सामाजिक और सार्वजनिक हितों के प्रति उदासीनता का रवैया अपनाए रखा है। यहां तक कि वे संसद में उपस्थित होने की भी परवाह नहीं करते। क्या सचिन कभी किसी मैच या विज्ञापन फिल्म की फोटो शूट पर उपस्थित होने से चूके हैं?

समय की सरकार अक्सर प्रसिद्धि की चकाचौंध का शिकार हो जाती है और इस प्रकार के लोगों का सम्मान करना अपना कत्र्तव्य समझती है। परन्तु अक्सर ऐसे मामलों में बहुत जबरदस्त लॉङ्क्षबग होती है। यह प्रपंच रुकना चाहिए। हमें लोगों की प्रतिभा और उनके द्वारा अर्जित सेवाओं को अलग-अलग करके देखना चाहिए और राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान करने के मामले में केवल सार्वजनिक सेवा का रिकार्ड ही ध्यान में रखा जाना चाहिए।      
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